बणों हक कथारे: लाहौल के जंगलों को बचाती स्थानीय महिलाओं के संघर्ष की कहानी

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शिमला। हिमाचल प्रदेश लगातार व्यवस्था जनित आपदाओं के कहर का शिकार बनता जा रहा है। हिमालय के नाजुक पारिस्थितिक तंत्र के साथ खिलवाड़ करते हुए सड़कें निकाली जा रही है, बांध बनाए जा रहे हैं, टनल खोदी जा रही हैं और बड़ी मात्रा में हाईड्रो प्रोजेक्ट लगाये जा रहे हैं। हर जिले में इस बार मानसून सीजन के दौरान कई जान-माल की हानि हुई है।

एक तरफ सरकार, बड़ी कंपनियां और विदेशी बैंक हैं जो हिमालय को बर्बाद करने पर तुले हुए हैं वहीं दूसरी तरफ यहां की स्थानीय जनता भी है जो जंगलों को बचाने के लिए जद्दोजहद कर रही है। इसी जद्दोजहद को अपने कैमरे में कैद किया है लंबे समय से हिमाचल में पर्यावरण पर काम कर रहे सुमित महार ने। हाल ही में इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म की स्क्रीनिंग लाहौल में की गई है।

हिमधरा पर्यावरण समूह द्वारा प्रायोजित फ़िल्म ट्रांस-हिमालयी लाहौल घाटी में महिला मंडलों के तीन दशकों से अधिक समय से चल रहे सामूहिक वन भूमि के प्रबंधन के साझा प्रयासों की कहानी है। यह फिल्म आज़ादी से पहले (औपनिवेशिक काल) से वर्तमान तक लाहौल घाटी में अलग-अलग दबावों के चलते सामाजिक-पारिस्थितिक व्यवस्थाओं, विशेष रूप से आम लोगों के अपने सामूहिक वन संसाधनों के साथ संबंधों में बदलावों, जंगलों को बचाने के प्रयासों, वन अधिकार अधिनियम 2006 के गैर-क्रियान्वयन, स्थानीय समुदाय की वनों पर हकदारी और वन संरक्षण में उनकी भूमिका को कानूनी मान्यता ना मिलने व वर्तमान- भविष्य की चुनौतियों को दर्शाती है।

साथ ही इस फ़िल्म में जलवायु परिवर्तन के चलते आपदा ग्रस्त गांवों के हालात, रोहतांग सुरंग निर्माण के बाद बढ़ते पर्यटन से उभर रहे पर्यावरणीय व सामाजिक प्रभावों व चंद्रा भागा नदियों में प्रस्तावित जल विद्युत परियोजनाओं को लेकर स्थानीय लोगों के विचारों को भी दर्शाया गया है।

हिमधारा पर्यावरण समूह

फिल्म के एडिटर, कैमरामैन व हिमधरा समूह के सदस्य सुमित का कहना है कि “यह फ़िल्म लाहौल घाटी में वन आश्रित स्थानीय समुदायों द्वारा दशकों से किए जा रहे वन संरक्षण के प्रयासों को वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत क़ानूनी मान्यता हासिल करने कि दिशा में विचार व चर्चा शुरू करने की पहल है”। समूह के सुमित जोड़ते हैं की “अगर देखा जाये तो लाहौल के स्थानीय समुदाय वन अधिकार अधिनियम 2006 की धारा 3(1)(झ) में उल्लेखित वन संसाधनों की रक्षा, प्रबंधन, संरक्षण का दायित्व पिछले 3-4 दशकों से निभा रहे हैं। लेकिन अभी तक लाहौला समुदाय क़ानूनी मान्यता से वंचित हैं”।

अब इस फिल्म को अब उन्हीं गांव-गांव में दिखाया जा रहा है जिनकी ये कहानी है। हाल ही में एक अभियान चलाते हुए -बणों हक़ कथारे-की लाहौल के 1 दर्जन गांवों में स्क्रीनिंग की गई। हिमधरा पर्यावरण समूह के सदस्यों द्वारा 26 अक्टूबर से 1 नवम्बर 2023 तक यात्रा के जरिये “बणों हक़ कथारे” दस्तावेज़ी फ़िल्म को गांव स्तर पर दिखाया गया। इस फ़िल्म को लाहौल की सुदूर मयाड़ घाटी के चिमरेट, करपट, चांगुट, टिंगरेट, उडघोष, छालिंग, शुक्पटो व खंजर गांवों व जिला मुख्यालय केलांग के पास बिलिंग, क्वारिंग व दारचा गांवो में दिखाया गया।

फिल्म देखने के बाद अपनी प्रतिक्रिया देते हुए सेव लाहौल स्पीती संस्थान के महासचिव रिगजिन हायरप्पा कहते हैं कि “बणों हक़ कथारे, फ़िल्म लाहौल के महिला मंडलों के प्रयासों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, वन अधिकार के गंभीर मुद्दों, वर्तमान की पर्यावरणीय चुनौतियों को बखूबी ढंग से दर्शाती है। यह फ़िल्म हमारे जनजातीय समाज में अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति चेतना बढ़ाने की दिशा में मददगार साबित होगी”।

हिमधरा पर्यावरण समूह के सदस्य उपकार का कहना है कि “हमने स्क्रीनिंग के पहले चरण में मयाड घाटी के लगभग सभी गाँवों में फ़िल्म दिखाई, जिसमें महिलाओं, बुजुर्गों व युवाओं ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। आने वाले समय में हम इस फ़िल्म को लाहौल की विभिन्न उप-घाटियों में दिखाने की योजना बना रहे हैं”।

बणों हक कथारे, डाक्युमेंट्री फिल्म का निर्देशन और स्क्रिप्ट लेखन मानशी आशेर किया है। मानशी लगभग डेढ़ दशक से हिमाचल प्रदेश के जल-जंगल-जमीन के मुद्दों से जुड़ी हुई हैं और इन्होंने हिमाचल के पर्यावरण व आर्थिक-सामाजिक जन जीवन पर हाईड्रो प्रोजेक्ट्स के पड़ने वाले दुष्परिणों को समय-समय पर अपने अध्ययन के जरिए दुनिया के सामने रखा है। वहीं इस डाक्यूमेंट्री की एडिटिंग प्रसिद्ध डाक्यूमेंट्री मेकर फैजा अह्मद खान ने की है। प्रोडक्शन हिमशी सिंह, सुमित महार और उपकार का है वहीं नरेशन साउंड रिकार्डिंग अमन शर्मा ने की है।

(गगनदीप सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं और शिमला में रहते हैं।)

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