प्रयागराज। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (UPPSC) के कार्यालय के बाहर इन दिनों गहमागहमी का माहौल है। सैकड़ों छात्र-छात्राएं आरओ-एआरओ परीक्षा (RO/ARO Exam) को लेकर आयोग के फैसले पर नाराजगी जताते हुए प्रदर्शन कर रहे हैं।
PCS परीक्षा को एक दिन में कराने के निर्णय के बावजूद, प्रदर्शनकारियों की नाराजगी थमने का नाम नहीं ले रही।
प्रदर्शनकारी छात्रों का कहना है कि RO-ARO परीक्षा को लेकर आयोग ने अभी तक स्पष्ट निर्णय नहीं लिया है। आयोग द्वारा बनाई गई कमेटी को छात्र मामले को लटकाने की कोशिश मान रहे हैं।
छात्रों का सवाल है कि जब PCS परीक्षा को एक दिन में आयोजित करने के लिए केंद्र बनाए जा सकते हैं, तो RO-ARO परीक्षा को लेकर ऐसा क्यों संभव नहीं है।
11 नवंबर से शुरू हुआ यह आंदोलन 14 नवंबर को अपने पांचवें दिन में प्रवेश कर गया। छात्रों का कहना है कि जब तक RO-ARO परीक्षा को लेकर आयोग ठोस निर्णय नहीं लेता, तब तक वे आंदोलन जारी रखेंगे।
इस बीच, आयोग के सचिव अशोक कुमार ने गुरुवार को छात्रों को संबोधित करने की कोशिश की, लेकिन छात्रों की हूटिंग के कारण उन्हें वापस जाना पड़ा। बाद में लाउडस्पीकर के माध्यम से घोषणा की गई कि PCS परीक्षा अब एक दिन में आयोजित की जाएगी।
गुरुवार सुबह प्रदर्शनकारी छात्रों और पुलिसकर्मियों के बीच झड़प हो गई। पुलिस ने छात्रों को उठाने की कोशिश की, लेकिन छात्रों ने विरोधस्वरूप एक-दूसरे पर लेटकर स्थिति को और मुश्किल बना दिया।
छात्रों का आरोप है कि पुलिसकर्मियों ने छात्राओं के साथ अभद्र व्यवहार किया और उन्हें गालियां दीं। इस घटना के बाद छात्रों का आक्रोश और बढ़ गया।
पुलिस की इस कार्रवाई से आहत प्रदर्शनकारियों ने आयोग के रास्ते में लगाए गए बैरिकेड्स तोड़ दिए। लगभग 10 हजार से ज्यादा छात्र आयोग के गेट तक पहुंच गए और वहां हूटिंग और नारेबाजी शुरू कर दी। प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि सरकार और आयोग उनकी समस्याओं को गंभीरता से नहीं ले रहे।
छात्रों की शिकायतें और आयोग पर सवाल
छात्रों का कहना है कि RO-ARO परीक्षा के लिए पहले एक दिन में परीक्षा आयोजित करने का विज्ञापन दिया गया था। अब उसी परीक्षा को दो दिन में कराने का निर्णय क्यों लिया जा रहा है? छात्रों ने यह भी सवाल उठाया कि आयोग ने PCS परीक्षा के लिए पर्याप्त केंद्रों की व्यवस्था कर दी, लेकिन RO-ARO परीक्षा के लिए क्यों नहीं?
प्रयागराज में छात्रों के आंदोलन ने राजनीतिक हलकों में भी हलचल मचा दी है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने X (पूर्व में ट्विटर) पर लिखा, “शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करने में जुटी भाजपा सरकार की अक्षमता की कीमत आखिर छात्र क्यों चुकाएं? पढ़ाई करने वाले छात्रों को सड़क पर लड़ाई करने को मजबूर कर दिया गया है।”
आयोग ने RO-ARO परीक्षा को लेकर एक कमेटी बनाने की घोषणा की है, जो परीक्षा के आयोजन से संबंधित सभी पहलुओं पर विचार करेगी। लेकिन छात्रों का कहना है कि यह कदम उनकी समस्याओं को टालने की एक कोशिश है। उनका मानना है कि आंदोलन खत्म होने के बाद आयोग मनमाने निर्णय ले सकता है, जो छात्रों के हित में नहीं होगा।
प्रदर्शनकारी छात्रों ने स्पष्ट कर दिया है कि वे न बंटेंगे और न हटेंगे। उनकी लड़ाई RO-ARO परीक्षा में पारदर्शिता और न्याय के लिए है। प्रदर्शन के दौरान छात्रों ने आयोग की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं और सरकार से मांग की है कि उनकी समस्याओं को प्राथमिकता के आधार पर हल किया जाए।
आंदोलनकारी छात्रों में असंतोष
पिछले दो वर्षों से आयोग की परीक्षाओं को लेकर छात्रों में गहरा असंतोष है। छात्रों का आरोप है कि आयोग समय पर परीक्षाओं का आयोजन करने में बार-बार असफल रहा है। जनवरी 2024 में यूपी सिविल सर्विसेज के लिए जारी नोटिफिकेशन मार्च में परीक्षा के लिए था, लेकिन यह अक्टूबर तक टलता रहा।
इसके अलावा, फरवरी में आयोजित आरओ-एआरओ परीक्षा पेपर लीक के कारण रद्द कर दी गई थी। जब अक्टूबर में परीक्षा निर्धारित की गई, तो इसे फिर दिसंबर में आयोजित करने की घोषणा कर दी गई। इन निरंतर बदलावों और रद्द की गई परीक्षाओं के कारण छात्र नाराज थे।
छात्रों ने नॉर्मलाइजेशन प्रक्रिया पर भी कड़ा विरोध जताया। उनका कहना है कि यह प्रक्रिया उनकी मेहनत का सही मूल्यांकन नहीं करती। नॉर्मलाइजेशन के चलते परिणाम डकवर्थ-लुइस जैसी प्रणाली से घोषित किए जाते हैं, जो प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती।
हर शिफ्ट में पेपर की कठिनाई का स्तर अलग हो सकता है, लेकिन नॉर्मलाइजेशन के तहत इन अंतरों को अनदेखा कर दिया जाता है। छात्रों का मानना है कि इस प्रक्रिया से उनकी रैंकिंग और चयन पर नकारात्मक असर पड़ता है। उनका यह भी कहना था कि अगर एक ही दिन और एक ही शिफ्ट में परीक्षा आयोजित की जाए, तो यह अधिक न्यायपूर्ण होगा।
दूसरी ओर, आयोग ने तर्क दिया कि एक साथ परीक्षा आयोजित करने से पेपर लीक और अनुचित गतिविधियों का खतरा बढ़ जाता है। हालांकि, छात्रों का कहना है कि यह समस्या बेहतर संसाधनों और कड़े प्रबंधनों के जरिए हल की जा सकती है।
आयोग का नॉर्मलाइजेशन प्रक्रिया को अपनाना खुद इस बात का संकेत है कि वह इसकी खामियों को स्वीकार करता है। छात्रों ने सुझाव दिया कि अगर परीक्षा प्रणाली में सुधार नहीं किया गया, तो यह उनके भविष्य को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा।
उपचुनावों से पहले बड़ा आंदोलन
ऐन उपचुनावों के पहले इस आंदोलन ने जिस तरह से तेजी पकड़ी, उसने कई सवाल खड़े कर दिए। प्रयागराज में प्रतियोगी छात्रों का इस तरह अचानक संगठित होकर आंदोलन करना असामान्य माना जा रहा है। क्या इसके पीछे राजनीतिक उद्देश्य थे? विपक्ष की ओर से आंदोलन को समर्थन मिलने के बाद यह चर्चा और तेज हो गई।
अखिलेश यादव ने सोशल मीडिया पर लगातार सरकार पर निशाना साधा। उन्होंने लिखा कि पीसीएस, आरओ/एआरओ जैसी परीक्षाओं के अभ्यर्थियों और उनके परिवारों को मिला दिया जाए, तो यह संख्या करोड़ों में पहुंच जाती है।
उन्होंने भाजपा को चेतावनी देते हुए कहा कि इन युवाओं की जायज मांगों को अनदेखा करना पार्टी के लिए भारी पड़ सकता है।
इस आंदोलन ने उपचुनावों से पहले सरकार की परेशानी बढ़ा दी। हालांकि, छात्रों की मांगों को लेकर सरकार ने समय पर कुछ निर्णय ले लिए, जिससे स्थिति को नियंत्रित किया जा सका। लेकिन यह स्पष्ट है कि प्रतियोगी परीक्षाओं की निष्पक्षता और समयबद्धता को लेकर छात्रों की नाराजगी खत्म नहीं हुई है।
छात्रों से बात करने के लिए चार दिन तक कोई मंत्री क्यों नहीं पहुंचा, यह सवाल कई तरह की चिंताओं को जन्म देता है। खासकर तब, जब उत्तर प्रदेश में प्रतियोगी परीक्षाओं को लेकर सरकार पहले ही आलोचनाओं के घेरे में रही हो।
लोकसभा चुनावों के दौरान भी इस मुद्दे ने भाजपा के लिए परेशानी खड़ी की थी। फिर भी, ऐसा लगता है कि सरकार इस समस्या की गंभीरता को समझने में नाकाम रही है।
सोचने वाली बात यह है कि जब उपचुनावों में मात्र एक हफ्ता बचा हो और राज्य में नौ सीटों के लिए चुनाव होने वाले हों, तब भी छात्र आंदोलन को लेकर सरकार इतनी लापरवाह कैसे हो सकती है? यह आंदोलन, जिसकी आग पूरे प्रदेश में फैलने की आशंका थी, उसे संभालने के लिए चार दिनों तक कोई भी मंत्री छात्रों से मिलने तक नहीं गया।
प्रदेश में दो-दो डिप्टी सीएम हैं, लेकिन किसी ने भी इस स्थिति को गंभीरता से नहीं लिया। ट्विटर पर सक्रियता दिखाने वाले डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य, जिनकी राजनीति का केंद्र इलाहाबाद है, इस मसले पर पूरी तरह से नदारद नजर आए। क्या उन्हें वहां जाने से रोका गया, या उन्होंने खुद ही इस मुद्दे से दूरी बनाए रखना बेहतर समझा, यह सवाल अब भी बना हुआ है।
दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इलाहाबाद के सभी विधायक और सांसद इस आंदोलन को लेकर छात्रों के पक्ष में थे। यह केवल समाजवादी पार्टी तक सीमित नहीं था।
भाजपा के विधायक और सांसद भी छात्रों की मांगों का समर्थन करते नजर आए। यह दिखाता है कि आंदोलन की गूंज सिर्फ विपक्ष तक सीमित नहीं थी, बल्कि सत्ताधारी पार्टी के नेताओं के बीच भी इस मुद्दे को लेकर असंतोष था।
यह पूरी स्थिति इस बात को रेखांकित करती है कि सरकार का शीर्ष नेतृत्व और प्रशासन किस तरह से इस मुद्दे पर आंख मूंदे बैठा रहा। जबकि विपक्ष इसे राजनीतिक हथियार बनाकर अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगा था।
भाजपा के लिए यह मुद्दा उपचुनावों में भारी नुकसान पहुंचाने वाला साबित हो सकता था। लेकिन सरकार का ढुलमुल रवैया और चार दिनों तक स्पॉट पर किसी भी वरिष्ठ नेता का न पहुंचना, इसे और गंभीर बना गया।
(आराधना पांडेय स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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