केरल में आशा कर्मियों के अनिश्चितकालीन हड़ताल के साथ अब आंगनबाड़ी महिलाएं भी मैदान में कूद पड़ी हैं 

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शुक्रवार को केरल विधानसभा सचिवालय के सामने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठी आशा कार्यकर्ता आर। शीजा की तबीयत नासाज हो जाने के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। केरल आशा स्वास्थ्य कार्यकर्ता संघ की राज्य समिति की सदस्य शीजा ने गुरुवार से भूख हड़ताल शुरू की थी। शीजा के अस्पताल में भर्ती होने के कारण अब उनके स्थान पर एक अन्य आशा कार्यकर्ता शोभा भूख हड़ताल पर बैठ गई हैं।

10 फरवरी से केरल की 26,000 आशा कार्यकर्ताओं ने 7,000 रुपये मासिक मानदेय में वृद्धि की मांग को लेकर जो धरना-प्रदर्शन शुरू किया था, उसे देश की संसद में भी कांग्रेस और आरएसपी नेता दुहरा चुके हैं। केरल की वामपंथी सरकार के साथ वार्ता विफल हो जाने के बाद आशा कार्यकर्ताओं ने जो अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल का सिलसिला शुरू किया था, उसे भी अब चौथा दिन हो चुका है। केरल आशा स्वास्थ्य कार्यकर्ता संघ की राज्य महासचिव एम।ए। बिंदु और जिला समिति सदस्य थंकमणि ने भी अपनी भूख हड़ताल जारी रखी है। प्रदर्शनकारियों ने अपनी मांगें पूरी होने तक हड़ताल को जारी रखने की कसम खाई है।

इस मुद्दे पर सीपीआई (एम) की स्थिति काफी पेशोपेश वाली हो चुकी है। गरीबों, वंचितों और विशेषकर महिलाओं के मुद्दों को मजबूती से उठाने वाली सीपीआई(एम) के सामने अपने ही राज्य में ऐसी स्थिति आ सकती है, शायद उसने इसकी कल्पना भी नहीं की होगी। केरल राज्य सरकार पिछले कुछ वर्षों से गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रही है। 

केंद्र की भाजपा सरकार जहां एक तरफ फंड के आवंटन में केरल के हिस्से को लगातार घटाती जा रही है, वहीं राज्य सरकार का आरोप है कि उसे केंद्र की ओर से विभिन्न योजनाओं के तहत 2023-24 का भुगतान नहीं किया गया है। उधर केंद्र सरकार इस दावे को ख़ारिज करते हुए दावा कर रही है कि उसने सरे भुगतान चुकता कर दिए हैं, लेकिन राज्य सरकार ने अभी तक fund utilisation certificate जारी नहीं किया है। 

करीब 66,000 राज्य आंगनबाड़ी महिला कार्यकर्ताओं के आंदोलन में कूदने के बाद अब स्थिति कहीं ज्यादा गंभीर हो चुकी है। राज्य में सीपीआई(एम) लगातार दूसरी बार अपना कार्यकाल पूरा करने जा रही है, जो कि अपनेआप में ऐतिहासिक है। केरल में आमतौर पर सीपीआई(एम) के नेतृत्व वाली एलडीएफ़ और कांग्रेस के नेतृत्व वाली (यूडीएफ़) को बारी-बारी से सत्ता में आसीन होने का मौका मिलता आया है। लेकिन कोविड-19 महामारी में पूरे देश में सबसे बेहतरीन प्रदर्शन की वजह से केरल को देश ही नहीं पूरी दुनिया में सराहना मिली। पूर्व स्वास्थ्यमंत्री शैलजा के नेतृत्व में ये आशा वर्कर्स ही थीं, जिनके दम पर राज्य सरकार इस अभूतपूर्व सफलता को हासिल कर पाने में सफल रही थी।

लेकिन आशा वर्कर्स की जिंदगी, जिसे योजना की शुरुआत में अंशकालिक मानकर शुरू किया गया था, आज उन्हें 8-12 घंटे तक खटना पड़ता है। उनकी भूमिका एक ऐसे मजबूत लिंक के तौर पर है जो देश में डॉक्टरों की कमी को पूरा करने के साथ-साथ, नवजात शिशुओं की मृत्युदर को अभूतपूर्व स्तर पर कम करने, टीकाकरण सहित सैकड़ों सरकारी कार्यक्रमों को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण कड़ी के तौर पर काम कर रहा है। लेकिन वेतन के नाम पर आशा वर्कर्स को मानदेय थमा दिया जाता है, जो केंद्र सरकार की ओर से मात्र 2,000 रुपये मासिक है। 

इस 2,000 रुपये मासिक अनुदान के बाद उन्हें विभिन्न कार्यों के लिए परफॉरमेंस के आधार पर इंसेंटिव दिया जाता है। राज्य सरकारें भी अपने-अपने राज्यों में अपनी श्रृद्धा के अनुरूप कुछ जोड़कर आशा वर्कर्स को जीवनयापन चलाने के लिए पारिश्रमिक दिया करती हैं। 2020-21 से केरल सरकार मासिक 5,000 रुपये का योगदान कर रही है। अब आशा वर्कर्स के लिए 21,000 मासिक वेतन उसके बिगड़े वित्तीय स्वास्थ्य की पहुंच से कोसो दूर है। लेकिन आशा और आंगनबाड़ी श्रमिकों के संघर्ष में कंधा से कंधा मिलाकर केंद्र सरकार के खिलाफ आंदोलन का रुख मोड़ने के बजाय सीपीआई(एम) आंदोलन को अराजक बताकर ख़ारिज कर रही है।

वहीं यदि पंजाब, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, ओडिसा और महाराष्ट्र सहित विभिन्न राज्यों का आकलन करें तो अधिकांश राज्यों में सीपीआई(एम) के नेतृत्व में ही आशा वर्कर्स और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता प्रतिमाह 26,000 रुपये मानदेय के लिए आंदोलन करती आई हैं।     

आशा वर्कर्स के मानदेय पर यदि गौर करें तो पूरे देश में यह इतना असमान है कि लगता ही नहीं कि हम एक देश हैं। हर राज्य में राज्य सरकारों की ओर से दी जाने वाली राशि का मानदंड भिन्न है। 22 मार्च 2022 को राज्य सभा में आशा वर्कर्स के लिए मानदेय पर सांसद झरना दास के प्रश्न पर मोदी सरकार ने जो राज्यवार ब्यौरा पेश किया था, उसके अनुसार आंध्र प्रदेश 10,000 रुपये प्रति माह के कुल प्रोत्साहन के बराबर शेष राशि प्रदान करता है। 

अरुणाचल प्रदेश 100% टॉप अप प्रदान करता है, जबकि बिहार प्रति आशा वर्कर्स को 1000 रुपये प्रति माह (वित्त वर्ष 2019-20 से), छत्तीसगढ़ वार्षिक आधार पर टॉप अप के रूप में अर्जित प्रोत्साहनों के अलावा प्रोत्साहन की मिलान राशि का 75%, दिल्ली 3000 रुपये प्रति माह जबकि गुजरात 50% टॉप अप प्रदान करता है।

हरियाणा ने जून 2018 से 4000 रुपये प्रति माह और 50% टॉप-अप, हिमाचल प्रदेश 2000 रुपये प्रति माह, कर्नाटक 4000 रुपये प्रति माह जबकि केरल वित्त वर्ष 2020-21 से 5000 रुपये प्रति माह दे रहा है। ओडिशा ने 1 अप्रैल, 2018 से 1000 रुपये प्रति माह, राजस्थान-आईसीडीएस के माध्यम से 2700 रुपये प्रति माह, सिक्किम 6000 रुपये प्रति माह, तेलंगाना 6000 रुपये प्रति माह की कुल प्रोत्साहन राशि के बराबर शेष राशि प्रदान करता है।

त्रिपुरा 08 निर्दिष्ट गतिविधियों के लिए 100% टॉप-अप और अन्य गतिविधियों के आधार पर 33% टॉप-अप प्रदान करता है, जबकि उत्तराखंड 5000 रुपये प्रति वर्ष और 1000 रुपये प्रति माह, वहीं उत्तर प्रदेश 5 निर्दिष्ट गतिविधियों की कार्यक्षमता से जुड़ी प्रति आशा वर्कर को 750 रुपये प्रति माह (मार्च 2019 से शुरू); और पश्चिम बंगाल 3000 रुपये प्रति माह प्रदान करता है।

इस लिहाज से देखने पर तो एकबारगी यही लगेगा कि केरल तो देश में एक-दो राज्यों को छोड़ सबसे ज्यादा मानदेय दे रहा है। लेकिन हमें इस तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि न्यूनतम मजदूरी देने के मामले में केरल देश में सबसे ऊपर है। यहां पर घास छीलने के लिए भी 1000-1200 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी मिलना आम बात है। ऐसे में आशा वर्कर्स को 250 रुपये प्रतिदिन का मानदेय न सिर्फ अपमानजनक है, बल्कि इस कलंक को राज्य की सरकार के द्वारा निष्पादित किया जा रहा है, जो बेहद शोचनीय है। 

उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे गरीब राज्यों में तो स्थिति नारकीय स्तर पर पहुंच चुकी है। इन राज्यों में महिला सशक्तिकरण की बात पूरी तरह से बेमानी बना दी गई है। खबर लहरिया की एक वीडियो रिपोर्ट से बांदा जिले की भोजन माताओं का हाल पता चला, जिन्हें मात्र 2,000 रुपये प्रति माह मानदेय दिया जा रहा है। लेकिन यह रकम भी उन्हें पिछले 6 माह से राज्य सरकार चुका पाने में असमर्थ है। 

जब जिला स्तर के अधिकारियों से संवावदाता ने इस बाबत प्रश्न किया तो उनका साफ़ कहना था कि भोजनमाता का मानदेय राज्य मुख्यालय से सीधे उनके खातों में स्थानांतरित होता है, इसलिए वे इस बारे में कुछ भी कर पाने में असमर्थ हैं। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार प्रयागराज में कुंभ आयोजित करने के लिए 7,500 करोड़ रुपये का आयोजन कर 3 लाख करोड़ रुपये की कमाई का दावा कर रही है, लेकिन प्रदेश के प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में लाखों भोजनमाताओं को एक गाय के चारे के बराबर मानदेय देते हुए शर्म महसूस नहीं करती। 

केरल और जम्मू-कश्मीर देश में ऐसे राज्य हैं, जो सर्वाधिक न्यूनतम मजदूरी देने के लिए जाने जाते हैं। यही कारण है कि केरल के साथ-साथ अब कश्मीर की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बजट सत्र के दौरान नई राज्य सरकार के समक्ष 5,000 रुपये नहीं 26,000 रुपये मानदेय दिए जाने के लिए आंदोलनरत हैं। 

केरल और कश्मीर की आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का यह आंदोलन कहीं से भी अनुचित नहीं है। राज्य सरकारें जो मानदेय दे रही हैं, वह इन राज्यों के न्यूनतम मजदूरी की दर की तुलना में एक तिहाई भी नहीं हैं। अब यदि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों की जनचेतना और अपने हक के लिए लड़ने की इच्छाशक्ति ही मर चुकी है तो उसके लिए केरल और कश्मीर के कार्यकर्ता कैसे दोषी हो सकते हैं? 

कांग्रेस पार्टी के लगभग सभी सांसदों ने लोकसभा और राज्यसभा में आशाकर्मियों के मुद्दों को प्रमुखता से उठाया है, और केंद्र-राज्य के बीच चल रही इस नूराकुश्ती को तत्काल बंद कर आशाकर्मियों को 21,000 रुपये प्रतिमाह वेतनमान, सरकारी कर्मचारी का दर्जा, 5 लाख रुपये रिटायरमेंट बेनिफिट आदि की घोषणा करने की मांग की है। सीपीआई(एम) के लगातार तीसरी बार राज्य में जीत दर्ज करने के लिए कोई बड़ा करिश्मा दिखाना होगा, वर्ना आगामी विधानसभा चुनाव में जीत की हैट्रिक लगाने का उसका ख्वाब, ख्वाब ही रह जाने वाला है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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