NSSO के आंकड़ों में बाजीगरी, 5 वर्षों में कैसे कम हुई 50 प्रतिशत बेरोजगारी?

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नई दिल्ली। हैरान होने की जरूरत नहीं है। ये आंकड़े फर्जी नहीं हैं, बल्कि एनएसएसओ (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय) के द्वारा जारी किये गये हैं, इसलिए देश को इन आंकड़ों को आधार बनाना ही पड़ेगा। भारत सरकार की आवधिक श्रम बल वार्षिक रिपोर्ट (Periodic Labour Force Survey, July 2022-June 2023) की रिपोर्ट बताती है कि देश में बेरोजगारी की मौजूदा दर घटकर इस वर्ष मात्र 3.2% रह गई है। 2017-18 के आंकड़ों पर गौर करेंगे तो यह 6% के उच्च स्तर पर बनी हुई थी, और तब कहा जा रहा था कि 45 वर्षों के इतिहास में बेरोजगारी अपने उच्चतम स्तर पर है।

यह चमत्कार कैसे हुआ, इसे समझने के लिए 9 अक्टूबर, 2023 को सरकार द्वारा जारी संक्षिप्त प्रेस नोट शायद पर्याप्त नहीं होगा, क्योंकि इसमें कुछ खास जानकारी ही मुहैया कराई गई है। इसके लिए एनएसएसओ के महानिदेशक, सत्येंद्र बहादुर सिंह द्वारा जारी 435 पेज की रिपोर्ट को खंगालना पड़ेगा, जिसमें सप्ताह में एक घंटे काम को भी रोजगार बता दिया गया है। इसका अर्थ है कि यदि आप पूरे सप्ताह बेरोजागारी की मार झेल रहे हों, लेकिन किसी को पार्ट टाइम काम के लिए आपकी श्रम शक्ति चाहिए, तो समझ लीजिये आप बेरोजगारों की कतार में नहीं रहे। शान से अपनी शर्ट की जेब में ‘रोजगारशुदा’ वाला बिल्ला टांग लें। युवाओं को तो शादी के प्रस्ताव भी आने शुरू हो सकते हैं।

यह बात हल्के-फुल्के ढंग से कही है, क्योंकि आर्थिक और सांख्यकीय आंकड़े बेहद बोझिल और ऊबाऊ होते हैं, जिनमें थोड़ी सी हेरफेर कर दें तो नतीजे कुछ के कुछ हो सकते हैं। आवधिक श्रम बल के वार्षिक आंकड़े बेहद दिलचस्प और देश की स्थिति को समझने के लिए बेहद जरुरी जानकारी प्रस्तुत करते हैं, लेकिन बेरोजगारी के स्तर में भारी गिरावट को दिखाने के मकसद से संभव है मानदंड में व्यापक फेरबदल किया गया हो, लेकिन इसने देश में रोजगारशुदा लोगों और बेरोजगारी दोनों की तस्वीर को धुंधला कर दिया है।

मजे की बात तो यह है कि इक्का-दुक्का आर्थिक विशेषज्ञों को छोड़ किसी ने भी एनएसएसओ द्वारा जारी हालिया आंकड़ों को तवज्जो भी देना उचित नहीं समझा है। समाचारपत्रों में जरूर इस बारे में खबरें छपी हैं।

मसलन एक अखबार ने इस खबर के शीर्षक में लिखा है, “घट गई बेरोजगारी की दर! सरकार के आंकड़े से समझिये।’ इसके बाद खबर के नीचे हाईलाइट में तीन बिंदुओं में सारा निचोड़ डाल दिया है। पहला, देश में बरोजगारों की संख्या तेजी से कम हो रही है, दूसरा- यह बात सरकार की तरफ से जारी एक सर्वेक्षण में उजागर हुआ है और तीसरा-यह सर्वेक्षण नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की तरफ से किया गया है।

गोया अखबार का भी मानना है कि उसे इन आंकड़ों में भारी लोचा नजर आ रहा है, इसलिए उसने अपनी सफाई में साफ़-साफ़ स्रोत की घोषणा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री पा ली है।

एनएसएसओ के चमत्कारिक आंकड़ों पर कोई हायतौबा नहीं?

भाजपा और मोदी सरकार की ओर से भी इतने बेहतरीन आंकड़ों पर कोई टिप्पणी नहीं सुनने को मिल रहा है। संभवतः 5 राज्यों में विधानसभा चुनावों के दौरान इस मुद्दे को उठाकर वह इसे जाया नहीं करना चाहती है। बेरोजगारी का मुद्दा तो राष्ट्रीय स्तर पर 2024 में सुर्ख़ियों में आएगा, जब लोकसभा चुनावों में विपक्षी गठबंधन इंडिया की ओर से मोदी सरकार के 10 वर्षों का हिसाब-किताब गली-गली में शोर मचाकर किया जायेगा।

उस समय एनएसएसओ के ये आंकड़े बेहद काम के होंगे, क्योंकि गहन सर्वेक्षण से निकलकर आये वार्षिक आंकड़े तो साफ़ बता रहे हैं कि देश में बेरोजगारी की दर अपने न्यूनतम स्तर पर है। 2017-18 वित्त वर्ष में 6.1% बेरोजागारी की दर को 45 वर्षों में सर्वाधिक बेरोजागारी के तौर पर याद किया जाता है। यह वही दौर था जब मोदी सरकार ने देश में 500 और 1,000 रूपये के नोट अचानक से बंद कर देश को कतार में खड़ा करवा दिया था।

नकदी की सप्लाई चोक हो जाने से देश के लाखों छोटे एवं सूक्ष्म उद्योग-धंधे बंद हो गये थे और कई महीनों बाद जाकर जब 2,000 और बाद में 500 रूपये के नोट आसानी से उपलब्ध हुए तब जाकर दोबारा से अर्थव्यस्था पटरी पर आ सकी थी। लेकिन उस दौरान जिनका व्यवसाय पटरी से उतरा तो वह फिर शायद ही उबर सका।

लेकिन एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक 2018-19 में बेरोजगारी दर घटकर 5.8% हो गई, 2019-20 में यह घटकर 4.8%, 2020-21 के दौरान 4.2%, 2021-22 में 4.1% तो 2022-23 में अब घटकर मात्र 3.2% रह गई है। अगर यही रफ्तार रही तो यकीन मानिये, अगले 3 साल में भारत में बेरोजगारी का नामोनिशान नहीं बचेगा। यह मजाक का विषय नहीं है, क्योंकि एनएसएसओ ने रोजगार के दायरे में उन्हें भी शामिल कर रखा है जो स्वरोजगार उद्यम में बिना कोई पारिश्रमिक लिए भी अपने श्रम का योगदान देते हैं।

इसे समझने में पाठकों को दिक्कत पेश आ सकती है, लेकिन इस परिभाषा को समझना जरुरी है। इसी के सहारे हम इन आंकड़ों को समझ सकते हैं, और अपने लिए भी राय बना सकते हैं कि वे रोजगारशुदा हैं या बेरोजगार हैं। उदाहरण के लिए किसी परिवार में किराने की दुकान है। अधिकृत रूप से इसे घर के मुखिया चलाते हैं, लेकिन उनका बेरोजगार बेटा जो नौकरी की आस में पिछले 4 साल से सरकारी नौकरी के लिए आवेदन भर रहा है।

लेकिन जैसे ही उसका सुबह शाम दोस्तों के साथ तफरीह करने का मन करता है, बापू उसे डांटकर सौदा बांधने या चावल की बोरी तोलने के काम पर लगा देते हैं। ऐसे काम में हिस्सा बंटाने से अतिरिक्त नौकर रखने की जरूरत खत्म हो जाती है, और गल्ले में महीने के 7,000 रूपये की बचत/लाभ हो जाती है। बेटे ने नौकर का काम कर यह बचत/लाभ अर्जित की है, लेकिन उसे इसमें 1 रुपया भी पारिश्रमिक नहीं मिलेगा।

घरवाले और मोहल्ले वाले उसे बेरोजगार ही समझते हैं, लेकिन उन्हें नहीं पता कि भारत सरकार ऐसा हर्गिज नहीं सोचती। वह इस युवा को रोजगारशुदा मानती है, क्योंकि उसके द्वारा आर्थिक गतिविधि में हिस्सेदारी की गई है, भले ही पारिश्रमिक के नाम पर उसे घर में दो वक्त की रोटी मिलती है।

पारंपरिक रोजगार की परिभाषा बनाम एनएसएसओ की नई परिभाषा

ऐसा जान पड़ता है कि देश में 2014 के बाद से सिर्फ इतिहास के ही पुनर्लेखन का काम नहीं हुआ है, बल्कि अर्थशास्त्र में भी व्यापक बदलाव आ चुका है। सिर्फ हमें इनके आधार-बिंदुओं में किये गये बदलावों के प्रति जागरूक नहीं बनाया गया है। अपने पहले कार्यकाल में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक खबरिया चैनल के एंकर के साथ अपनी बातचीत में कहा था कि यदि कोई व्यक्ति आपके दफ्तर के नीचे पकौड़े की दुकान चलाकर दो-चार हजार रूपये महीने कमा लेता है तो क्या आप इसे रोजगार नहीं कहोगे। पत्रकार ने सिर हिलाते हुए हामी भरी थी। समझ लीजिये तभी से देश ने भी इस तथ्य को स्वीकृति दे दी थी, लेकिन पड़ोसी के बच्चे के लिए।

लेकिन आज सप्ताह में एक-एक घंटे काम का हिसाब रखा जा रहा है, और इसे रोजगार की श्रेणी में गिना जा रहा है। नोटबंदी, जीएसटी और दो साल कोविड-19 महामारी की मार ने पूरे देश की दशा-दिशा ही बदलकर रख दी है। कोरोना महामारी एक विश्व्यापी समस्या थी, जिसमें कई देशों की अर्थव्यस्था K-shape हो गई थी। लेकिन कई देश इस K-shape की स्थिति से उबर चुके हैं, लेकिन भारतवर्ष में यह कोविड-19 से भी बड़े प्रकोप के रूप में करोड़ों-करोड़ नागरिकों और देश की अर्थव्यस्था को लील रहा है।

अमीरी और गरीबी की चौड़ी होती खाई

K-shape इकॉनमी के बारे में बता दें कि यह वह अवस्था होती है जब किसी देश की अर्थव्यस्था में धनी और गरीब वर्ग दो विपरीत ध्रुव की ओर तेजी से बढ़ते जाते हैं। K में आप दो डंडियों को जिस प्रकार से अलग-अलग दिशा में खींचते हैं, ठीक उसी प्रकार अमीर तेजी से अमीर होते जाते हैं, और गरीब नीचे की ओर धंसता जाता है। भारत में इसे चौपाया वाहनों, फ्रिज, रियल एस्टेट की बिक्री से आसानी से समझ सकते हैं।

आज मारुती, हुंडई और टाटा नैनो की प्रारंभिक मॉडल की गाड़ियां बिकनी बंद हो रही हैं, और इन कंपनियों ने भी घोषणा कर दी है कि वे अब इनके उत्पादन को बंद कर रही हैं। इन कंपनियों की ओर से आये दिन लग्जरी गाड़ियों के मॉडल बाजार में उतारने की घोषणाएं हो रही हैं। जर्मन मर्सिडीज कार की बिक्री रिकॉर्ड उछाल पर है, और उसकी खरीद के लिए हमारे देश के धनवान लोग क्यू में लगकर अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। दस-पंद्रह हजार रुपये की कीमत वाले रेफ्रीजरेटर की मांग बिल्कुल जमीन पर आ गई है, लेकिन 1.5 लाख रुपये वाले फ्रिज की मांग तेजी से बढ़ी है।

इसी प्रकार रियल एस्टेट क्षेत्र में भी गरीबों एवं मध्य आय वर्ग वाले फ्लैट्स की बिक्री न के बराबर है, इसलिए अब बिल्डर्स और रियल एस्टेट के बड़े खिलाड़ियों ने अपना सारा ध्यान उच्च आय वर्ग के एचआईजी, विला या उससे भी महंगे आवासीय क्षेत्रों के डिजाइन एवं निर्माण पर खुद को झोंक दिया है।

वस्तुतः देखें तो 2010 के बाद से ही देश में रियल एस्टेट तेजी से धराशाई हुआ था, लेकिन कोविड-19 के बाद इसमें जो भी तेजी आई है, वह लक्ज़री क्षेत्र में ही देखने को मिली है। इसका सीधा अर्थ है कि देश की 80% से अधिक आबादी अपनी 2016 से पूर्व की स्थिति से नीचे ही गई है, और उसके पास अपनी रोजमर्रा की जरुरतों को पूरा करने के लिए भी पर्याप्त धन का प्रबंध नहीं हो पा रहा है। जबकि एक ऐसा वर्ग भी देश में तेजी से उभरा है, जिसके पास तेजी से धन का संकेंद्रण बढ़ा है और उसे अब आम हो चुकी वस्तुओं एवं सेवाओं के बजाय ब्रांडेड गाड़ी, फ्रिज, टीवी, स्कूल या फाइव स्टार सुविधा वाले अस्पताल की दरकार है।

एनएसएसओ के रोजगार वाले मानदंड को यदि छोड़ दें तो उसके द्वारा जारी वार्षिक आंकड़े अपनेआप में उल्लेखनीय सूचनाएं प्रदान करते हैं। इनमें कई तथ्य ऐसे हैं, जिन्हें देख देश की आंखें खुली की खुली रह सकती हैं। मसलन, देश में किस राज्य में औसत मजदूरी कितनी है और कौन सा राज्य पगार देने में अव्वल है।

सर्वेक्षण में 12,714 यूनिट्स को आधार बनाया गया है, जिसमें 6,982 गांवों एवं 5,732 शहरी क्षेत्रों से आंकड़े जुटाए गये हैं। कुल 1,01,655 घरों पर सर्वेक्षण संचालित किया गया है। इसमें ग्रामीण क्षेत्रों के 55,844 घरों और शहरी क्षेत्रों में 45,811 घरों में जाकर सर्वे किया गया है।

अंडमान निकोबार को छोड़कर पूरे देश में संचालित सर्वे में कुल 4,19,512 नागरिकों की भागीदारी रही। देश में श्रमशक्ति की कुल संख्या के लिए 15 वर्ष से लेकर 59 वर्ष की महिला और पुरुष को आधार बनाया गया है। 5 वर्ष से कम उम्र और 60 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्तियों सहित भिखारियों एवं वेश्यावृति से गुजर-बसर करने वालों को इसमें शामिल नहीं किया गया है।   

गुजरात सबसे कम मजदूरी देने वाले राज्यों में, लक्षद्वीप सबसे अमीर

इतने विशाल आंकड़ों को सरसरी तौर पर पढ़ना और समझना आसान नहीं है, लेकिन देश की दशा-दिशा में गुणात्मक बदलाव की चाह रखने वाली सरकारों के लिए इसमें काफी-कुछ है। लेकिन कुछ आंकड़े तो बेहद हैरान करने वाले हैं, विशेषकर गुजरात राज्य के आंकड़े देखकर तो आप चकरा जायेंगे।

टेबल-24 में औसत मासिक मजदूरी/वेतन के आंकड़े जारी किये गये हैं। इसमें गुजरात राज्य में ग्रामीण क्षेत्र में पुरुषों का मासिक वेतन/मजदूरी 12,730 रुपये बताई गई है, जबकि महिलाओं के लिए मात्र 8,390 रुपये का मेहनताना प्राप्त होता है। शहरी क्षेत्रों में भी कुछ खास फर्क नहीं है। पुरुष 18,676 और महिलाओं को मात्र 12,323 रुपये का मेहनताना नसीब होता है। कुलमिलाकर (ग्रामीण, शहरी, महिला, पुरुष) 15,378 रुपये मासिक पारिश्रमिक मिलता है।

लेकिन देश में सबसे ज्यादा पारिश्रमिक कहां मिलता है? वह है केन्द्रशासित लक्षद्वीप। यहां के गांव शहर की तुलना में अधिक संपन्न हैं, क्योंकि गांवों में पारिश्रमिक शहरी क्षेत्र की तुलना में अधिक है। ग्रामीण क्षेत्र में मासिक 59,134 रुपये जबकि शहरी क्षेत्र के लिए यह आंकड़ा 42,116 रुपये मासिक बैठता है। लक्षद्वीप की औसत भुगतान राशि 48,698 रुपये मासिक हैं।

इतनी बड़ी रकम तो हमारे देश के दिग्गज इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति भी अपने कम्पूटर साइंस के इंजीनियर को नहीं देते, लेकिन 12 घंटे काम की ख्वाहिश जरूर पाले बैठे हैं। एनएसएसओ के ये आंकड़े यदि गुजरात की जनता को पता चल गये तो वे गुजरात मॉडल को धता बता अमेरिका में गैरकानूनी तरीके से प्रवेश की मुश्किलों को लात मारकर लक्षद्वीप की सुंदर वादियों की ओर बड़ी तादाद में रुख अवश्य कर सकते हैं।

आंकड़ों के इस महाजाल में एक बात और जो हैरान करती है वह यह है कि, 3.2% बेरोजगारी दर में भी यदि ग्रामीण, शहरी या पुरुष एवं महिला अनुपात का ब्रेकअप देखें तो दिलोदिमाग घूम-फिरकर बार-बार रोजगार के नए मानकों पर चला जाता है, जिसे किसी महान अर्थशास्त्री ने ही ईजाद किया होगा, लेकिन नाम अभी भी किसी वजह से गुप्त रखा गया हो।

ये आंकड़े बता रहे हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों में बेरोजगारी की दर 2.8% और महिलाओं में तो मात्र 1.8% ही बची है। उत्तर भारत में आज भी खेतों का स्वामित्व रखने वाले उच्च जाति के अधिकांश पुरुष अपने हाथ से काम नहीं करते, जबकि उनके घरों की महिलाएं तो अपने खेत भी नहीं बता सकती हैं।

बहरहाल एनएसएसओ के आंकड़े तो यही बता रहे हैं कि ग्रामीण क्षेत्र में लगभग सभी महिआएं रोजगारशुदा हैं। इसी प्रकार शहरी क्षेत्रों में पुरुष बेरोजागारी की दर 4.7% तो महिलाओं में यह प्रतिशत 7.4% है। है न पॉजिटिव खबर! अब खुश रहिये और धन्यवाद दीजिये देश के सर्वेक्षण कर्ताओं को, क्योंकि यही वे भाग्यवान वीरवान हैं, जो देश को विश्वगुरु बनाकर ही चैन की सांस लेंगे। देश को ऐसे ही रहने दीजिये, देश तो बिना कुछ किये ही रोजगारशुदा हो चुका है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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