दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के घर आग लगने की घटना में करोड़ों रुपये की नकदी के जलने का विवाद इन दिनों चर्चा में है। इस मामले में जाँच शुरू हो गई है और जस्टिस वर्मा का तबादला भी कर दिया गया है। इस विवाद के बीच एक अन्य मामले में फैसला आया है, जिसकी चर्चा जस्टिस वर्मा के मामले के साथ जोड़कर की जा रही थी। चंडीगढ़ की विशेष सीबीआई कोर्ट ने शनिवार को 17 साल पुराने 15 लाख रुपये की नकदी से जुड़े मामले में रिटायर्ड जज जस्टिस निर्मल यादव को बरी कर दिया। यह घटना 2008 की है, जब नकदी से भरा एक पैकेट गलती से जस्टिस निर्मलजीत कौर के घर पहुँच गया था। जस्टिस कौर ने इसकी सूचना तत्कालीन पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को दी थी। उस समय जस्टिस निर्मल यादव पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट की सिटिंग जज थीं। अब उन्हें इस मामले में निर्दोष मानते हुए बरी कर दिया गया है।
चंडीगढ़ की विशेष सीबीआई कोर्ट की जज अलका मलिक ने शनिवार को जस्टिस निर्मल यादव के मामले में अंतिम फैसला सुनाया। उन्होंने जस्टिस यादव के साथ-साथ इस मामले के अन्य आरोपियों को भी बरी कर दिया। फैसले के बाद रिटायर्ड जस्टिस निर्मल यादव ने अपना बयान जारी किया, जिसमें उन्होंने कहा, “मैंने कोई अपराध नहीं किया था और पूरे ट्रायल के दौरान मेरे खिलाफ कोई आपराधिक सबूत नहीं मिला।”
दरअसल, सीबीआई ने दिसंबर 2009 में एक क्लोजर रिपोर्ट दाखिल की थी, जिसे भारतीय दंड संहिता के तहत अंतिम रिपोर्ट के रूप में जाना जाता है। इसका मतलब था कि वे इस मामले को बंद करना चाहते थे। हालाँकि, विशेष सीबीआई कोर्ट ने मार्च 2010 में इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया और आगे की जाँच का आदेश दिया। यह अप्रत्याशित था, क्योंकि आमतौर पर ऐसी रिपोर्ट स्वीकार कर ली जाती हैं, लेकिन इस मामले की गंभीरता और न्यायपालिका पर इसके प्रभाव को देखते हुए कोर्ट ने पुनर्जाँच का निर्देश दिया। इसके बाद जून 2010 में सीबीआई ने नया प्रस्ताव भेजा और मार्च 2011 में राष्ट्रपति की अनुमति मिलने के बाद आरोप-पत्र दाखिल किया गया। यह प्रक्रिया जस्टिस यादव की सेवानिवृत्ति के दिन, 3 मार्च 2011 को पूरी हुई, जो एक महत्वपूर्ण समय था।
यह मामला भारतीय न्यायपालिका के लिए संवेदनशील था, क्योंकि यह एक हाई कोर्ट जज के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से जुड़ा था। जाँच के दौरान एक आंतरिक समिति ने भी जस्टिस यादव के खिलाफ सबूतों की जाँच की और निष्कर्ष निकाला कि नकदी उनके लिए थी। इसके अलावा, नवंबर 2009 में जस्टिस यादव का तबादला उत्तराखंड हाई कोर्ट में कर दिया गया था, जो इस मामले की गंभीरता को दर्शाता है।
अंततः, 29 मार्च 2025 को सीबीआई कोर्ट ने जस्टिस यादव और अन्य आरोपियों को बरी कर दिया, क्योंकि अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में विफल रहा। यह फैसला 17 साल बाद आया, जो इस मामले की जटिलता और लंबी कानूनी प्रक्रिया को दर्शाता है।
चंडीगढ़ की विशेष सीबीआई कोर्ट की जज अलका मलिक ने अपने फैसले में कहा कि रिकॉर्ड पर पक्के सबूत मौजूद हैं कि क्लर्क प्रकाश राम 13 अगस्त 2008 की शाम को जस्टिस निर्मलजीत कौर के सरकारी आवास पर एक प्लास्टिक की थैली लेकर पहुँचा था, जिसमें 15 लाख रुपये के नोट थे। उस समय जस्टिस कौर के कैंप ऑफिस में चपरासी के रूप में मौजूद अमरीक सिंह ने उस व्यक्ति को देखा और थैली को कागजात समझकर खोला। थैली में नोटों की गड्डियाँ देखकर जस्टिस कौर सतर्क हो गईं और उन्होंने तुरंत इसकी सूचना पुलिस को दी, जिससे राज्य की जाँच मशीनरी सक्रिय हो गई।
यह भी साबित तथ्य है कि सब-इंस्पेक्टर जोगिंदर सिंह घटनास्थल पर पहुँचे और उन्होंने उस व्यक्ति और नकदी की थैली को हिरासत में लिया। थैली को सेक्टर 11, चंडीगढ़ पुलिस स्टेशन के थाना प्रभारी के सामने पेश किया गया, जहाँ जाँच में 15 लाख रुपये नकद बरामद हुए। सीबीआई का कहना है कि यह राशि गलती से जस्टिस निर्मलजीत कौर के घर पहुँच गई थी, जबकि इसे जस्टिस निर्मल यादव, जो उस समय पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट की सिटिंग जज थीं, के घर पहुँचाया जाना था।
सीबीआई के अनुसार, यह राशि रेगुलर सेकेंड अपील (RSA) नंबर 550 ऑफ 2007 में गैरकानूनी रिश्वत के रूप में दी जानी थी, जिसका फैसला जस्टिस निर्मल यादव ने किया था। सीबीआई का पूरा जोर हरियाणा के एडिशनल डिस्ट्रिक्ट जज आर.के. जैन के बयान पर था। यह सच है कि RSA नंबर 550 ऑफ 2007 का फैसला जस्टिस निर्मल यादव की कोर्ट ने 11 मार्च 2008 को सुनाया था। यहाँ यह बताना जरूरी है कि यह मामला 16 अगस्त 2008 को दर्ज हुआ था, यानी फैसले के पाँच महीने बाद। यह तथ्य गवाह PW26 के बार-बार बदलते बयानों में बहुत महत्व रखता है, जिसने सीबीआई को अपने पहले बयान (27 सितंबर 2008) में कई बदलाव किए।
ट्रायल के दौरान इस गवाह के बयान को देखने से, जिसकी कोर्ट ने सबूतों की जाँच के दौरान विस्तार से चर्चा की, यह साफ है कि यह गवाह बिल्कुल भरोसेमंद नहीं है। गवाह ने जाँच के दौरान स्पष्ट कहा कि उसने सितंबर 2008 में सीबीआई को दिए अपने पहले बयान में कई अहम बातें छोड़ दी थीं, जो उसने 2010 में अपने पूरक बयान में जाँच अधिकारी को बताई थीं।
आर.के. जैन का दावा कि उसने जस्टिस निर्मल यादव के दबाव में चुप्पी साध रखी थी, विश्वसनीय नहीं लगता, क्योंकि उसने यह स्पष्ट नहीं किया कि उस पर किस तरह का दबाव था। उस दौरान हाई कोर्ट या किसी अन्य एजेंसी ने उसके खिलाफ कोई कार्रवाई शुरू नहीं की थी। उसका तबादला भी नहीं हुआ था। वास्तव में, वह एक भी ऐसी बात नहीं बता सका, जिसे जस्टिस यादव द्वारा उस पर डाले गए “दबाव” के रूप में माना जा सके। इस तरह के सामान्य आरोप कोई भी आसानी से लगा सकता है। आर.के. जैन का पूरा बयान उसके पहले बयान से स्पष्ट रूप से अलग है।
यहाँ यह बताना जरूरी है कि आर.के. जैन का पूरक बयान तब दर्ज किया गया, जब पहली जाँच में सभी आरोपियों को निर्दोष पाया गया था और 19 दिसंबर 2009 को कोर्ट में क्लोजर रिपोर्ट पेश की गई थी। हालाँकि, उस समय के सीबीआई जज ने इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया और आगे की जाँच का आदेश दिया।
न्यायिक रिकॉर्ड से पता चलता है कि दोबारा जाँच के दौरान सीबीआई ने कोई नया सबूत पेश नहीं किया, सिवाय आर.के. जैन के पूरी तरह बदले हुए बयान के। PW26 का सबूत उसके पिछले बयानों में बदलावों का एक संग्रह है और यह बिल्कुल विश्वसनीय नहीं है। इस कोर्ट को इस पक्षपातपूर्ण और प्रेरित गवाह की गवाही को खारिज करने में कोई हिचक नहीं है।
अभियोजन पक्ष ने अपना मामला सीधे और परिस्थितिजन्य सबूतों पर आधारित किया था। हालाँकि, परिस्थितिजन्य सबूतों से अपराध साबित करने के लिए परिस्थितियों की कड़ी को हर शक से परे साबित करना जरूरी है। यह कानून का स्पष्ट सिद्धांत है कि परिस्थितिजन्य सबूतों के मामले में, जिन परिस्थितियों से अपराध का निष्कर्ष निकाला जाता है, उन्हें पूरी तरह साबित करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने शरद बिरधी चंद सरदा बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, 1985 SCR (1) 88 में परिस्थितिजन्य सबूतों से अपराध साबित करने के पाँच सुनहरे सिद्धांत (“पंचशील”) बताए हैं:
- जिन परिस्थितियों से अपराध का निष्कर्ष निकाला जाना है, उन्हें पूरी तरह साबित करना चाहिए।
- साबित तथ्य सिर्फ आरोपी के अपराध की परिकल्पना के अनुरूप होने चाहिए, यानी वे किसी अन्य परिकल्पना से समझाए न जा सकें।
- परिस्थितियाँ निर्णायक प्रकृति की होनी चाहिए।
- वे हर संभावित परिकल्पना को खारिज कर दें, सिवाय उस एक को जो साबित करनी है।
- सबूतों की एक ऐसी पूरी कड़ी होनी चाहिए जो आरोपी की बेगुनाही के किसी भी उचित आधार को न छोड़े।
इस मामले में सबूतों की कड़ी पूरी तरह गायब है, क्योंकि सीबीआई द्वारा भरोसा किए गए ज्यादातर गवाह अभियोजन पक्ष का समर्थन करने से मुकर गए और उन्हें विपक्षी गवाह घोषित किया गया।
सीबीआई ने कुछ गवाहों की गवाही को गैर-न्यायिक कबूलनामे के रूप में पेश करने की असफल कोशिश की, जो वास्तव में सुनवाई पर आधारित सबूत से ज्यादा कुछ नहीं है और इसकी कोई कानूनी कीमत नहीं है। इन गवाहों का सबूत न तो वैध है और न ही इस मामले में कोई मूल्य रखता है।
अभियोजन पक्ष आरोपियों का अपराध साबित करने में पूरी तरह विफल रहा। नतीजतन, आरोपी रविंदर भसीन, राजीव गुप्ता, निर्मल सिंह और सुश्री निर्मल यादव को उनके खिलाफ लगे आरोपों से बरी किया जाता है। ये आरोप भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 11, भारतीय दंड संहिता की धारा 120-B के साथ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 12, और धारा 120-B के साथ भारतीय दंड संहिता की धारा 193, 192, 196, 199 और 200 के तहत लगाए गए थे। उनकी जमानत की शर्तें रद्द की जाती हैं। मामले की संपत्ति को अपील या पुनरीक्षण की सीमा अवधि खत्म होने के बाद नियमों के अनुसार निपटाया जाएगा।
दरअसल, 17 साल पहले 13 अगस्त 2008 को एक व्यक्ति 15 लाख रुपये की नकदी से भरा पैकेट लेकर जस्टिस निर्मलजीत कौर के आवास पर पहुँच गया था। यह पैकेट कथित तौर पर जस्टिस निर्मल यादव के लिए था, लेकिन एक जैसे नामों के भ्रम के कारण वह गलती से जस्टिस कौर के आवास पर पहुँच गया। 16 अगस्त 2008 को इस मामले में पहली FIR दर्ज की गई। दस दिन बाद चंडीगढ़ के तत्कालीन प्रशासक जनरल (रिटायर्ड) एस.एफ. रोड्रिग्स ने इस केस को सीबीआई को सौंप दिया। सीबीआई ने 28 अगस्त 2008 को नए सिरे से FIR दर्ज की।
पुलिस जाँच में पता चला कि नकदी का पैकेट लाने वाला व्यक्ति हरियाणा के पूर्व एडिशनल एडवोकेट जनरल संजीव बंसल का क्लर्क था। उसने कथित तौर पर जस्टिस कौर को फोन कर बताया कि यह राशि वास्तव में निर्मल सिंह नामक व्यक्ति के लिए थी, लेकिन गलती से उनके आवास पर पहुँच गई। जनवरी 2009 में सीबीआई ने जस्टिस यादव के खिलाफ अभियोजन की मंजूरी माँगी। हाई कोर्ट ने करीब डेढ़ साल बाद नवंबर 2010 में यह मंजूरी दी। जस्टिस यादव ने इस मंजूरी के खिलाफ याचिका दायर की, जो खारिज हो गई। इसके बाद मार्च 2011 में राष्ट्रपति कार्यालय ने मुकदमा चलाने की अनुमति दी और उसी महीने सीबीआई ने चार्जशीट दाखिल कर दी।
ट्रायल शुरू होने पर अभियोजन ने 84 गवाहों के नाम पेश किए, लेकिन केवल 69 ने गवाही दी। इस साल फरवरी 2025 में हाई कोर्ट ने सीबीआई को 10 गवाहों का चार सप्ताह के भीतर दोबारा परीक्षण करने की इजाजत दी और ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया कि इस मामले में अनावश्यक स्थगन न दिया जाए।
करीब 17 साल तक चले इस मामले में कई मोड़ आए। इस दौरान चार गवाहों की मृत्यु हो गई, जबकि 69 अभियोजन गवाहों में से 13 मुकर गए, जिनमें जस्टिस यादव के निजी सुरक्षा अधिकारी और संजीव बंसल के रिश्तेदार जैसे प्रमुख लोग शामिल थे। संजीव बंसल की मुकदमे के दौरान ब्रेन ट्यूमर से मृत्यु हो गई।
300 से अधिक सुनवाइयों और लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद जस्टिस निर्मल यादव का बरी होना इस हाई-प्रोफाइल मामले का अंत है। यह फैसला एक ओर राहत देता है, वहीं जाँच की प्रारंभिक प्रक्रिया और उच्च पदों पर आसीन लोगों के खिलाफ मुकदमे की जटिलताओं पर सवाल भी उठाता है।
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं)
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