‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’-आम महिलाओं ने सड़कों पर कब्ज़ा किया
स्वतंत्रता दिवस के एक दिन पूर्व कोलकाता में नया इतिहास लिखा जा रहा था। ‘क्लेम द नाइट’ जैसा ज़बर्दस्त महिला प्रतिरोध, जहां 6 साल की छोटी बच्चियों से लेकर बूढ़ी औरतें सड़कों पर रात भर नारे लगा रही थीं, निर्भया संघर्ष से एक कदम आगे था।क्योंकि नेतृत्व में कोई महिला संगठन नहीं, बल्कि साधारण महिलाएं थीं- पेशेवर महिलाएं, माताएं, युवतियां, यहां तक कि स्कूल की छात्राएं भी। एक 31-वर्षीय महिला चिकित्सक के बलात्कार और नृशंस हत्या, जिसमें बर्बरता की सारी हदें पार हो चुकी थीं, ने पूरे राज्य कि अंतरात्मा को बुरी तरह झकझोर दिया था। और बंगाल के इस कोलाहल ने पूरे देश को जगा दिया है। बता दिया है कि 2012 की वर्मा समिति की सिफारिशों के बाद एक दशक से अधिक बीत गया पर स्थिति जस की तस बनी हुई है।
कानून लागू करने के लिये राजनीतिक इच्छाशक्ति कहां?
जब पूरे देश में इस घटना को लेकर हाहाकार मच गया, और स्थिति बद से बद्तर होती चली गयी, सर्वोच्च न्यायालय को मामले को संज्ञान में लेकर 20 अगस्त को सीजेआई के नेतृत्व में बनी एक तीन-सदस्यीय पीठ का गठन कर सुनवाई शुरु करनी पड़ी।सबसे पहले तो कोलकाता उच्च न्यायालय की इस हास्यास्पद टिप्पणी को जस्टिस चंद्रचूड़ ने खारिज किया जिसमें कहा गया था कि महिलाओं को अपनी यौन इच्छाओं को काबू में रखना चाहिये और अपनी शारीरिक अस्मिता को बचाना चाहिये। यद्यपि ममता बनर्जी की तृणमूल सरकार ने बड़ी देर में एसआईटी का गठन किया, उसका क्रूर चरित्र खुले तौर पर सामने आ चुका है।वह किस किस्म के विपक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के महिला-विरोधी विचारधारा का ही अनुसरण करती नज़र आ रही है? जैसे एक समय बिहार में लालू के शासनकाल को ‘जंगल राज’ की संज्ञा दी गयी थी, आज ममता दीदी की सरकार ‘गुंडा राज’ का पर्याय बनती दिखाई दे रही है।
सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया -आखिर जिस अस्पताल में इतनी भयानक वारदात घटित हुई हो, वहां के भूतपूर्व प्रिंसिपल संदीप घोष के इस्तीफे के 4 घंटे बीतते-न-बीतते उन्हें आरजी कर अस्पताल से भी बड़े अस्पताल, नेशनल मेडिकल कालेज में नियुक्ति कैसे मिल जाती है? सवाल तो उठेगा ही, क्योंकि ममता जी स्वयं स्वास्थ्य मंत्री हैं। कोर्ट ने यह भी पूछा कि पहले मामले को (वाइस प्रिंसिपल द्वारा) आत्महत्या क्यों बताया गया, एफआईआर रात 11 बजे तक दर्ज़ क्यों नहीं किया गया और बेटी के अभिभावकों को 3 घंटे बाहर क्यों खड़ा रखा गया?
शायद कोर्ट को यह भी पूछना चाहिये था कि घटना होने के दिन से ही अस्पताल के उस हिस्से को तोड़कर पुनर्निर्माण का काम कैसे होने लगा, जहां वारदात को अंजाम दिया गया था? जबकि पुलिस को उस एरिया को पूरी तरह सील करना चाहिये था? या कोलकाता पुलिस क्या इस प्रोटोकोल से अनभिज्ञ है? कोर्ट ने इसपर सख्त टिप्पणी की कि यह कैसे होता है कि 14 की रात को जब डॉक्टर धरने पर बैठे हों, अचानक 7000 (कलकत्ता उच्च न्यायलय के रिकार्ड के अनुसार) हमलावरों की सेना, अस्पताल क्षेत्र में बलात घुस जाती है, हड़ताली चिकित्सकों को मारती-पीटती, धमकाती है, महिला डॉक्टरों को बलात्कार की धमकी देती है, और पूरे अस्पताल को क्षतिग्रस्त करके आराम से चली जाती है।
पुलिस की अच्छी संख़्या होने के बावजूद वे डरे हुए और अपने को बचाते हुए नज़र आते हैं। कहते हैं ऊपर से आर्डर नहीं था तो कार्यवाही कैसे करते। ज़ाहिर है इस हमले का मकसद साक्ष्य नष्ट करना और हड़तालियों को डराना था; और हम जानते हैं कि इससे किसको लाभ होता। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने यहां तक कह दिया कि ऐसी घटना बिना पुलिस की जानकारी के नहीं हो सकती (पढ़ें- पुलिस की मिलीभगत के बिना) यह सब तब होता है जब ममता जी एक सांस में पुलिस द्वारा जांच करने के लिये सप्ताह भर का समय निर्धारित करती हैं, और दूसरी सांस में मामले में प्रगति न होने पर केस सीबीआई को सौंप देने का नर्म संकेत भी देती हैं।
क्या हम पूछ सकते हैं कि क्या यह लंबा अंतराल साक्ष्य मिटाने और ‘मैनेजमेंट’ करने के लिये रखा गया था? और अब, जब केस सीबीआई के पास जा चुका है, क्या बात है कि मुख्यमंत्री जी 16 तारीख को एक रैली निकालती हैं, जिसका नारा होता है ‘रात्रीर साथी’ यानी ‘रात के साथी’। लगता है ममताजी जुमलेबाज़ी में हमारे प्रधानमंत्री जी से कम नहीं; शायद एक कदम आगे ही होंगी।पर कोलकाता के एक पत्रकार बताते हैं कि मामला इतना ही नहीं है कि एक संजय राय, जिसे गिरफ्तार किया गया, वह दोषी है।इस घटना में अस्पताल का एक बड़ा नेक्सस शामिल है, जिसपर आंच नहीं आयी है। आज कोर्ट ने प्रिंसिपल संदीप घोष को भी घेरा-कि आखिर वह क्या कर रहे थे? अब उनकी भूमिका की भी जांच होगी! पर ममता फेस सेविंग मोड में आकर ताबड़तोड़ महिला सुरक्षा के लिये अपने मुख्य सलाहकार के ज़रिये कई घोषणाएं कर डालती हैं।
खोखले वायदे और पश्चिम बंगाल का पोलिटिकल कल्चर
घोषणा के अनुसार ये नियम बनेंगे-महिलाएं, चाहे वे सरकारी संस्थान में कार्यरत हों या निजी में, महिला कर्मचारियों की 2-सदस्यीय टीमें बनाई जायेंगी, ताकि वे एक-दूसरे को रिपोर्ट करती रहें, महिला सुरक्षा के लिये ऐप तैयार किया जायेगा जिसमें स्थानीय थाने के साथ सम्पर्क के लिये आलार्म होगा, मेडिकल कॉलेजों, अस्पतालों और हास्टलों के आस-पास पुलिस पैट्रोलिंग होगी, सुरक्षा गार्डों में महिला व पुरुषों का बराबर अनुपात होगा आदि। पर पश्चिम बंगाल के संदर्भ में ये बातें कितना मायने रखती हैं? इसी राज्य में पहले भी बलात्कार की घटनायें हुई हैं। और, हर बार राजनेताओं की ओर से ओछी महिला-विरोधी टिप्पणियां हुई हैं- तापसी मलिक से लेकर अभया तक- पार्टी कोई भी हो, पर लगता है अब सालों से यही राज्य का पोलिटिकल कल्चर बन गया है। और ममता इस संस्कृति की सबसे अव्वल प्रतिनिधि बन चुकी हैं। शायद आम चुनाव में भाजपा को शिकस्त देकर उनका दम्भ और भी बढ़ गया है। आज उनकी तानाशाही के विरुद्ध राज्य का पेशेवर हिस्सा ही नहीं, बल्कि भद्रलोक समाज भी, जो उनका मज़बूत आधार था, उठ खड़ा हुआ है।
तृणमूल सरकार अब अपने को बचा नहीं सकती
पता चल रहा है कि अस्पताल में तोड़-फोड़ मामले में जो लोग गिरफ्तार हुए हैं, उनका सीधा संबंध तृणमूल कांग्रेस से है। उन्होंने यह भी बताया कि सत्ताधारी पार्टी के एक सांसद, सुखेंदु शेखर रॉय ने मांग की है कि पुलिस कमिश्नर विनीत गोयल और प्रिंसिपल संदीप घोष का कस्टोडियल इंट्रोगेशन किया जाये, जबकि वे अब तक गिरफ्तार नहीं हुए हैं। आखिर संदीप घोष की जानकारी में ही घटना को अंजाम दिया गया है। पार्टी के दूसरे विधायक और सांसद अभी भी महिला चिकित्सकों के बारे में नकारात्मक टिप्पणी कर रहे हैं, मसलन मंत्री उदयन गुहा तो मंच से बोल रहे हैं कि “टी शर्ट-जींस वाली लड़कियां क्या आंदोलन करेंगी? उनके नारे लगाने वाले हाथ, उनकी सीएम पर उठ रही उंगलियां तोड़ दिये जायेंगे” महुआ सहित अन्य महिला सांसद केवल एक बार औपचारिक निंदा करके मुंह बंद किये बैठी हैं। महुआ जी ने तो अजित अंजुम के पोर्टल द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर उन्हें ब्लॉक तक कर दिया। अब क्या कहा जाये ममता-ब्रान्ड के महिला सशक्तिकरण के बारे में?
सिलिब्रिटीज़ पूछ रहे हैं सवाल, हाई कोर्ट ने भी लगायी फटकार
प्रसिद्ध फिल्मकार अपर्णा सेन, अंजन दत्त, अदाकारा चैती घोषाल, देबोलिना दत्त, उषाशी चक्रोवर्ती, शास्वत चट्टोपाध्याय, अबीर चैटर्जी और बंगला फिल्म जगत के तमाम लोगों सहित संगीतकार-अभिनेता बिक्रम घोष और उच्च न्ययालय के वकीलों ने प्रतिवाद किया और जुलूस निकाले हैं। यही नहीं, पूरे देश में-आईएमए के आवाहन के तहत हैदराबाद, चेन्नई, कोयम्बटूर, तिरुवनंतपुरम, निम्हांस-बेंगलुरु, मुम्बई, एम्स-दिल्ली, पीजीआई-चंडीगढ़, इलाहाबाद, लखनऊ, पटना, रांची, सिल्चर, गुवाहाटी, यानी लगभग हर ज़िले में सरकारी व गैर-सरकारी अस्पताल के स्वास्थ्यकर्मी आंदोलनरत हैं। लगातार मीडिया का एक हिस्सा खुलासे कर रहा है। आखिर कैसे चुप रहे कोई?
20 अगस्त को दिल्ली में औरतों पर बढ़ती हिंसा के विरुद्ध बड़े पैमाने पर गोलबंदी हुई है। 2012 की बलात्कार की पीड़िता निर्भया की मां तक आंदोलन के समर्थन में खुलकर बोल रही हैं। उनके घाव इस घटना से फिर हरे हो गये हों। उन्होंने सवाल उठाया कि मुख्यमंत्री क्यों आंदोलन का नाटक कर रही हैं, किससे मांग कर रही हैं, जबकि अस्पताल उनका है, पुलिस उनकी है, वह खुद स्वास्थ मंत्री और गृह मंत्री भी हैं? उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री स्थिति संभाालने में पूरी तरह नाकाम रही हैं; उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिये। पीयूसीएल ने कोलकाता उच्च न्यायालय में याचिका दायर की कि न्यायालय की निगरानी में जांच पूरी की जाय। उच्च न्यायालय ने सरकार को ज़बर्दस्त फटकार लगायी और ढेर सारे सवाल भी किये, इसके बाद ही प्रिंसिपल को पद से हटाया गया।
उधर सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (POSH अधिनियम) के कार्यान्वयन से संबंधित मामले में संकेत दिया है कि वह सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को एक ऑनलाइन डैशबोर्ड तैयार करने का निर्देश देगा, जिसमें संविधान और POSH अधिनियम के सदस्यों से संबंधित सभी प्रासंगिक जानकारी शामिल होगी। आज सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच की रिपोर्ट सौंपने के लिये 22 अगस्त की तारीख निर्धारित की है।
पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने भी काफी कड़ा रवैया अपनाया है। पश्चिम बंगाल समाज के एक हिस्से के साथ आपातकालीन बैठक भी बुलाई। पर सरकार ‘स्ट्रांग आर्म टैक्टिक्स’ अपनाकर डाक्टरों के आंदोलन को तोड़ना चाहती है। सीजेआई ने कड़े तेवर के साथ कहा कि सरकार आंदोलनकारी चिकित्सकों को डराने-धमकाने से बाज आए।
क्या तृणमूल सरकार आंदोलन तोड़ने के लिये टेरर टैक्टिक्स अपना रही है?
साम-दाम-दण्ड-भेद, अब हर तरीके से चिकित्सकों की हड़ताल को तोड़ने की कवायद चल रही थी। तृणमूल नेता सुखेंदु शेखर को सरकार के विरोध में बोलने पर पुलिस ने नोटिस थमा दिया और दो बार पुलिस स्टेशन भी बुलाया। शांतनु सेन को तृणमूल प्रवक्ता पद से हटाए जाने के बाद शनिवार को कोलकाता नगर निगम के स्वास्थ्य विभाग के सलाहकार पद से भी हटा दिया गया। जिन उपद्रवियों को ‘राम और वाम’ के नाम पर बदनाम किया जा रहा है, उनमें से पुलिस ने शनिवार (17 अगस्त, 2024) को दो वामपंथी संगठनों – डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया (डीवाईएफआई) और स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के नेतृत्व को शहर के आरजी कार मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में 15 अगस्त की सुबह हुई भीड़ हिंसा के सिलसिले में तलब किया। शहर के दो जाने-माने चिकित्सक डॉ. कुणाल सरकार और डॉ. सुबोर्नो गोस्वामी को भी पुलिस ने तलब किया। आरोप है कि वे लोगों के बीच गलत सूचनाएं फैलाकर उन्हें भ्रमित कर रहे थे।
क्यों इतनी घबराई हुई हैं ममता दीदी? वह खुद अस्पताल के एक नेक्सस को पोसने के लिये ज़िम्मेदार तो नहीं? वरना इस मामले को दबाने में उनका स्वार्थ क्या है? क्या अभया को एस नेक्सस के बारे में पता था? आखिर उसे मारने के पीछे कौन सा राज़ है, जो जानना ज़रूरी है। क्या और भी कई अस्पतालों में ऐसे नेक्सस चलते हैं? इसका खुलासा भी होना चाहिये।
स्वास्थ्य प्रतिष्ठान के लिये बेहतर कानून बने
जिस तरह से परत-दर-परत ममता सरकार के गुंडा-माफिया राज की पोल खुलती जा रही है, उससे एक बात तो साफ हो गयी है कि हम केवल टिप आफ दी आइसबर्ग, यानी हिमशैल की नोक देख पा रहे हैं। अंदर की कालिख अभी हम से छिपी है।स्वास्थ्य प्रतिष्ठान समाज का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है, जिसके बारे में कई आयामों से सोचा जाना चाहिये। इसके कई पहलू भी हैं, जैसे सुरक्षा, स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रकचर, छात्रों और इन्टर्न्स के लिये पढ़ाई और काम के नियम, मरीजों को चिकित्सा प्रदान करने के लिये नियम-कानून और खर्च पर कैप (क्योंकि स्वास्थ्य सेवा को व्यापार नहीं बनाया जाना चाहिये), बजट वृद्धि आदि।
सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता रविंद्र गढ़िया से इन सवालों पर लम्बी बातचीत हुई। रविंद्र ने लायर्स कलेक्टिव में कार्य करते समय यौन उत्पीड़न विरोधी कानून को ड्राफ्ट करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। उनका कहना था कि फिल्हाल जो डॉक्टर्स की सुरक्षा के लिए सेंट्रल प्रोटेक्शन एक्ट (स्वास्थ्य सेवा कार्मिक और स्वास्थ्य सेवा संस्थान (हिंसा और संपत्ति को नुकसान निषेध) अधिनियम, 2023) को लागू करने की बात की जा रही है, और जो चिकित्सकों की प्रमुख मांग भी है, उसके सेक्शन 12 के तहत एक सुरक्षा प्रोटोकोल की बात ज़रूर कही गयी है पर यहां कहा जा रहा है कि “राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, उन विषयों के संबंध में इस अधिनियम के उपबंधों को कार्यान्वित करने हेतु नियम बना सकेगी, जो धारा 11 के क्षेत्राधिकार में नहीं आते हैं।“
अब पहला प्रश्न तो यह उठता है कि नियम बनाने का काम राज्य सरकारों पर क्यों छोड़ा गया है, जबकि इसके मायने हैं कि यह केंद्र सरकार की चिंता का विषय रहा ही नहीं। तब ऐसे कानून को बनाने के मायने क्या हैं, जिसमें सेक्शन 11 के तहत केवल इतना ही प्रावधान है कि राज्य सभा और लोक सभा के समक्ष नियम पेश किये जायेंगे और वे उनमें परिवर्तन या लागू न करने का निर्देश दे सकते हैं। रविंद्र ने कहा कि सेक्शन 12 बहुत ढीला-ढाला है, उसमें बहुत कुछ जोड़ा जाना चाहिये जो सुरक्षा विशेषज्ञों और स्टेकहोल्डर्स से मश्विरा करके तैयार किया जाना चहिये।
उदाहरण के लिये, अगर हमलावर अंदर का आदमी है, तब वह प्रिंसिपल, कोई पुरुष चिकित्सक, वार्डबाय, स्वीपर, गार्ड या सिविक स्वयंसेवी भी हो सकता है, जैसा कि इस मामले में है। और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इन नियमों को लागू करने के लिये और इंफ्रास्ट्रक्चर को चाक-चौबंद करने के लिये एक केंद्रीय स्कीम होनी चहिये तथा बजट आवंटन भी। वरना कानून भी ढकोसला रह जायेगा। इसी चिंता को ज़ाहिर करते हुए सीजेआई ने आदेश में कहा है, “हालाँकि, ये अधिनियम समस्या के मूल में मौजूद संस्थागत और प्रणालीगत कारणों को संबोधित नहीं करते हैं। संस्थागत सुरक्षा मानकों में सुधार किए बिना बढ़ी हुई सज़ा समस्या को प्रभावी ढंग से संबोधित करने में विफल रहती है।“
पर रविंद्र गढ़िया कहते हैं कि आम लोगों को सावधान रहना होगा कि निजी अस्पतालों और कारपोरेट अस्पतालों के मालिक इस कानून का गलत इस्तेमाल न करें, क्योंकि इसके तहत न्यूनतम 3 साल की गैर-जमानती सज़ा हो सकती है। इस पहलू के निवारण हेतु कानून में प्रावधान होना ज़रुरी है, अन्यथा व्हिसल ब्लोवर्स के ऊपर गाज गिरेगी।
इन बातों को कुछ हद तक हल किया जा सकेगा ऐसा भरोसा सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा गठित नेशनल टास्क फोर्स की कार्यवाही से हो सकता है। पीठ के अनुसार “उसे एक ऐक्शन प्लान तैयार करना है। इसको दो शीर्षकों के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है (I) चिकित्सा पेशेवरों के खिलाफ लिंग आधारित हिंसा सहित हिंसा को रोकना; और (II) प्रशिक्षुओं, निवासियों, वरिष्ठ निवासियों, डॉक्टरों, नर्सों और सभी चिकित्सा पेशेवरों के लिए सम्मानजनक और सुरक्षित कार्य स्थितियों के लिए एक लागू करने योग्य राष्ट्रीय प्रोटोकॉल प्रदान करना।“ टास्क फोर्स को 3 सप्ताह में अंतरिम रिपोर्ट और 2 माह में फाइनल रिपोर्ट दखिल करने को कहा गया है।
एससी के आदेश पर आरजी कर अस्पताल के पास सीआईएसएफ और सीआरपीएफ को तैनात किया गया है।
हर क्षेत्र में महिलाएं कैसे सुरक्षित हों!
कई ऐसे पेशे हैं जिनमें महिलाओं को रात्रि पाली में काम करना पड़ता है। ऐसे पेशों के लिये भी सुरक्षा कानून की ज़रूरत है।यही नहीं, शिक्षा संस्थानों में भी। लेख लिखते समय थाणे के बदलापुर के स्कूल में 2 बच्चियों के साथ बलात्कार को लेकर हज़ारों लोग रेलवे स्टेशन पर सुबह 6 बजे से पटरी पर जमे हुए हैं। मुख्य बात यह है कि जब तक सरकार में यह राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं होगी कि महिलाएं सुरक्षित रहें और बेखौफ पढ़ सकें, या अपने काम-काज में लग सकें, कानून बनाने का कोई मतलब नहीं होगा। महत्वपूर्ण बात है कि सरकार खुद जब भ्रष्टाचारियों, माफिया ताकतों और गुंडा वाहिनियों के बदौलत राज करती है, न कि जनता के समर्थन से, तब बड़े आंदोलनों और व्यापक जन प्रतिरोध ही उसे धूल चटा सकती है।
वर्तमान समय में हम यह भी कह सकते हैं कि किसी राज्य के संदर्भ में केंद्र सरकार की आलोचना और सख्ती तभी परिणाम दे पायेगी, जब वह खुद यह साबित कर सके कि उसके द्वारा शासित प्रदेशों में महिलाओं पर अत्याचार व हिंसा वास्तव में सबसे कम है। पर, कोलकाता मामले में इंडिया गठबंधन की प्रतिक्रिया काफी कमज़ोर रही है, जिसका लाभ भाजपा को निश्चित ही मिलेगा। महिला आंदोलन व प्रगतिशील आंदोलन को भी सुनिश्चित करना होगा कि वह केवल प्रदर्शनों से संतुष्ट न रहकर ऐसा समाज बनाने में जी-जान से लगे जिसमें औरतें सशक्त हों और जो महिलाओं की सुरक्षा व बेहतरी के लिये जवाबदेह बने। साथ ही वे सरकारों को भी जवाबदेह बनाये।
(कुमुदिनी पति स्वतंत्र टिप्पणीकार एवं महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं)
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