नरभक्षियों की जमात का पसंदीदा नारा हो गया है जैश्रीराम

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धर्म हमेशा से व्यक्तिगत आस्था का विषय रहा है और प्यार, सम्मान, आस्था किसी पर थोपे नहीं जाते दिल दिमाग यह खुद तय कर लेते हैं कि किस से प्यार करें किसका सम्मान करें, चूंकि हम जिस परिवार में जन्म लेते हैं, उस परिवार की धार्मिक आस्था को शुरू से अपना मानकर स्वीकार लेते हैं और उसी हिसाब से हम हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई कहलाते हैं। वरना ‘ऊपर वाले’ ने तो हमें सिर्फ इंसान बनाकर भेजा है।

और ‘ऊपर वाला’ जिसे हम ईश्वर, अल्लाह का नाम देते हैं, उसके लिए मानवता सर्वोपरि है। इसलिए इंसान की नीयत यानी इंसानियत देख ईश्वर-अल्लाह उन्हें अपने करीब रखता है। वह यह भी नहीं देखता कि वह किस धर्म में पैदा हुआ है, वह तो सिर्फ और सिर्फ इंसान देखता है।

मगर विविधताओं और विभिन्न धर्मों के लोगों को संजोये भारत की धरती पर अब धर्म के नाम पर धर्मोन्माद सीरिया, इराक, पाकिस्तान की तरह तेजी से पांव  पसार रहा है।

झारखंड के जमशेदपुर में एक 22 वर्षीय युवक तबरेज की चोरी के इल्जाम में बिजली के खम्भे से बांधकर भीड़ द्वारा बेतहाशा पिटाई की जाती है, जब भीड़ में शामिल लोगों को पता चलता है कि आरोपी युवक मुसलमान है तो उससे जय श्रीराम, जय हनुमान के नारे लगवाए जाते हैं।

वह जय श्रीराम, जय हनुमान के नारे भी लगाता है, आखिरकार बंधक बनाया गया व्यक्ति जिसके जान के लाले पड़े हों वह कर भी क्या सकता है, वह बार-बार भीड़ से अपनी रिहाई की फरियाद करता है।

मगर भीड़ उसे अधमरा होने तक पीटती रहती है, उसके बाद उसे पुलिस को सौंपती है जहां तबरेज की मौत हो जाती है।

आखिरकार मॉब लिंचिंग में फिर एक युवक मारा गया, और यह इसलिए भी हुआ क्योंकि दिन रात सोशल मीडिया में चलने वाले हिंदू-मुसलमान वाले मैसेज तेरा धर्म खराब, मेरा धर्म अच्छा कहने वालों की भीड़ अब धर्म को आस्था के रूप में न लेकर थोपने और एक दूसरे धर्म के लोगों को चिढ़ाने के स्तर तक आ गयी है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर हिन्दू-मुसलमान जैसे बहस ने लोगों के दिमाग़ को इतना कुंद कर दिया है कि लोग धीरे-धीरे तालिबानी संस्कृति की तरफ बढ़ रहे हैं, लोकतंत्र पर भीड़तंत्र हावी होता जा रहा है। 

सोशल मीडिया पर जब इस तरह की घटनाओं की भर्त्सना होती है तो कुंठित मानसिकता के लोग किसी अन्य घटना का हवाला देकर पूछते हैं कि जब फलां  जगह ढेकनवा को फलनवां धर्म के लोगों ने मार दिया था तब क्यों नहीं आवाज उठाये। मगर उन्हें समझना चाहिये की मरने मारने वाले का धर्म कुछ भी हो कोई भी उसे धर्म के आधार पर सही नहीं ठहरा सकता है। 

याद रखिये देश में धर्मोन्माद की खाद राजनीति के फसल के लिए बेहद उपजाऊ है, धार्मिक कट्टरता फैलाकर वोट लेने वाले तो अपना काम शुरू कर चुके हैं इनकी सोच से बचिए नहीं तो जो धर्म की अफीम बांटी जा रही है उसे ग्रहण कर हम बर्बर तालिबानी संस्कृति के युग में पहुंच जाएंगे। अगर इस तरह की घटनाओं का हम प्रतिकार नहीं करते हैं तो वह दिन दूर नहीं जब कभी संयोग से उसी उन्मादी भीड़ के हत्थे चढ़ गए तो उस वक्त हमें बचाने वाला कोई नहीं होगा। इसलिए इस प्रकार की घटना का विरोध होना चाहिए बिना हिंदू-मुसलमान में बंटे हुए। क्योंकि एकता और अखंडता के इस देश में धार्मिक उन्माद हमारी सोच को सीरियाई आतंकवाद की तरफ ले जाएगा और मानवता क्या है यह आने वाली पीढ़ी को पता ही नहीं चलेगा।

(अमित मौर्या “गूंज उठी रणभेरी” के संपादक हैं और आजकल वाराणसी में रहते हैं।)

 

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