सागर से ग्राउंड रिपोर्ट: रात 2 बजे से शाम 7 बजे की ड्यूटी के बाद भी नहीं भरता तेंदूपत्ता मजदूरों का पेट

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सागर। मध्यप्रदेश देश में सबसे अधिक वन क्षेत्रफल वाला राज्य है। मध्यप्रदेश को देश का ह्रदय भी कहा जाता है। प्रदेश का क्षेत्रफल 308,252 वर्ग किमी है। इस क्षेत्रफल में से 77,462 वर्ग किमी क्षेत्रफल में जंगल फैले हुए हैं। जो कि, पूरे देश के जंगलों के 30 प्रतिशत हिस्से के बराबर है। मध्य प्रदेश के यह जंगली क्षेत्र नौरादेही, कान्हा, बांधवगढ़, पन्ना, सतपुड़ा, पंचमढ़ी जैसे विभिन्न अभ्यारणों से सटे हुए हैं। इस प्रचंड गर्मी के आलम में जंगली क्षेत्रों में ‘तेंदूपत्ते’ की ताबड़-तोड़ तुड़ाई की जा रही है। तेंदूपत्ता को आमतौर पर एक मौसमी रोजगार माना जाता है। इस रोजगार में कड़ी मशक्कत है, जिससे तेंदूपत्ता मजदूरों का खून-पसीना एक हो जाता है।  

इस प्रचंड गर्मी के वक्त जब लोग घरों में एसी, कूलर की हवा में बैठे हैं। तब तेंदूपत्ता मजदूर तेंदूपत्ता को लेकर काफी संघर्ष कर रहे हैं। तेंदूपत्ता रोजगार की राह में कितनी चुनौतियाँ हैं यह जाने के लिए हमने सागर जिले के नौरदेही अभ्यारण से सटे रानगिर के जंगल का दौरा किया। सागर से करीब 40 किलोमीटर जब हमने अपनी मोटर साइकिल दौड़ाई तब हम रानगिर जंगल के समीप पहुंचे। जंगल में हम कुछ दूर ही गए कि, पथरीला रास्ता हमारे सामने आ गया। तब हमने अपनी मोटर साइकिल को एक पेड़ की छांव में रख दिया। 

अब हम पैदल ही पथरीले रास्ते चलने लगे। पथरीले रास्ते पर चलते-चलते हम एक पहाड़ी के पास पहुंचे। जब हमने पहाड़ी को पार किया तब तेंदूपत्ता मजदूर ब्रजेश चौधरी हमें मिले। जब हमने उनसे हाल-चाल पूछते हुए सवाल किया कि, तेंदूपत्ता तोड़ने के काम के प्रति आपके क्या विचार हैं और इसमें क्या चुनौतियाँ आ रहीं हैं? तब ब्रजेश चौधरी बताते हैं कि, ‘मैं उदयपुरा गाँव से 10 किलोमीटर दूर रानगिर के जंगल के लिए रात 2 बजे तेंदूपत्ता तोड़ने निकलता हूँ। तब तेंदूपत्ता तोड़ने का काम पर पाता हूँ। उदयपुरा गाँव से कम से कम 50 लोग तेंदू पत्ता तोड़ने रानगिर के पहाड़ आते हैं। हम तेंदू पत्ता इसलिए तोड़ते हैं कि, बरसात के मौसम में जब कोई काम ना मिले तब बीड़ी के काम से पेट भर सकें। एक दिन में 8-10 घंटे देकर हम मुश्किल से 200 रुपये का ही तेंदू पत्ता तोड़े पाते हैं। तेंदू पत्ता में मिलता कम दाम हमारे खान-पान के खर्चों पर लगाम लगा देता है।, 

तेंदूपत्ता की गड्डियां बांधते पति-पत्नी भागबल और भारती।

ब्रजेश आगे कहते हैं कि, ‘जंगल में हमें कई परेशानियाँ होती हैं। एक तो घर से लाया गया पानी जल्द खत्म हो जाता है। ऐसे में पानी की दिक्कत अक्सर बन जाती है। वहीं, जंगल में जानवरों का खतरा भी रहता है, इसलिए 8-10 लोगों को समूह में रहना पड़ता है’।  

तेंदूपत्ता तैयार कैसे होता है? जब हम यह पूछते हैं तब ब्रजेश समझाते हुए बोलते हैं कि, ‘पहले तो एक-एक पत्ता तोड़कर इकट्ठा करना होता है। फिर, एक क्रम या कतार में 50 से 100 पत्ते जमा करने पड़ते हैं। इसके बाद तेंदू की गड्डियाँ रस्सी से बाँधना पड़ता है। आगे बंध चुकी गड्डियों को कम से कम 10-15 दिन धूप में सुखाना होता है। जब तेंदू पत्ते की गड्डियाँ सूख चुकी होती हैं। तब तेंदू पत्ता पूर्ण रूप से तैयार हो जाता है। ऐसे ही तेंदू पत्ता से बीड़ी बनाने की प्रक्रिया बड़ी बारीक होती है।

हमारे इस सवाल पर कि, तेंदूपत्ता के काम से आपको परिवार चलाने में कितनी मदद मिलती है? तब ब्रजेश अपने शब्द कुछ यूं बयां करते हैं, ‘मेरे 6 बच्चे हैं। बच्चों का गुजर-बसर बहुत मुश्किल है। कभी किसी बच्चे को कपड़ा नहीं खरीद पाते तो कभी बच्चों का पेट भरना अखरता है। परिवार के भरण-पोषण के लिए थोड़ी सी मदद सरकारी राशन से मिल जाती है’। 

एक तेदूपत्ता मजदूर के यहां धूप में सूखने रखी तेंदूपत्ता गड्डियां

ब्रजेश की बड़ी बेटी खुशबू ने इस वर्ष 8 वीं कक्षा की परीक्षा दी है। वह भी अपने पिता के साथ तेंदू पत्ता तोड़ने जंगल को आती है। खुशबू से जब हम बात करते हैं, तब वह बताती है कि, ‘मैं शौक से तेंदू पत्ता तोड़ने पहाड़ नहीं आती हूँ, मेरे पिता का बोझ कम हो सके इसलिए मैं जंगल की ओर खिंची चली आती हूँ। परिवार भूखा ना रह जाए इसलिए तेंदूपत्ता तोड़ने के अलावा मैं बीड़ी भी बनाती हूँ।,   

जंगल में हम आगे की ओर जाते हैं तब हमें तेंदूपत्ता तोड़ते दिखती हैं, किशनपुरा गाँव (दूरी करीब 10 किलोमीटर) की सरस्वती। जब हम उनसे संवाद करते हैं, तब वे बताती हैं कि, ‘तेंदू पत्ता हमारा मौसमी रोजगार है। इस वर्ष में पहले दिन मैं रानगिर के जंगल तेंदू पत्ता तोड़ने आयी हूँ। हम मजदूर आदमी हैं। कभी फसल बुआई-कटाई में, कभी घर बनाने में, तो कभी तेंदू पत्ता तोड़ने में रोजगार तलाशते फिरते हैं। यही मजदूरी हमारी रोटी तैयार करती है। तेंदू पत्ता हम कई सालों से तोड़ते आ रहे हैं। मगर, तेंदू और तेंदूपत्ते से बनती बीड़ी के काम से अपनी जिंदगी नहीं बदल पाए’। 

पहाड़ में तेंदूपत्ता के कुछ पेड़

सरस्वती को पीछे छोड़ते हुए हम कुछ कदम ही चलते हैं कि, हमें रूपरानी मिलती हैं। ये भी किशनपुरा गाँव की हैं। रूपरानी की उम्र करीब 75 साल है। वह भी तेंदू पत्ता तोड़ने आती हैं। हमने पूछा कि, इतनी में उम्र क्यों आती हैं तेंदूपत्ता तोड़ने? तब वह कहती हैं कि, ‘खुद का गुजारा चलाने के लिए तेंदूपत्ता तोड़ती हूँ। मुझे ना तो पेंशन मिलती है और ना किसी विशेष सरकारी योजना का लाभ मिलता है। बस मिलता है तो सिर्फ सरकारी राशन। इस स्थिति में अन्य काम करना पड़ता है गुजारे के लिए। बुढ़ापे में कोई किसी का साथ नहीं देता’। 

आगे तेंदूपत्ता के कुछ पेड़ों के पास कुछ तेंदूपत्ता श्रमिकों से हमारी मुलाकात होती है। यह श्रमिक भी उदयपुरा गाँव से तेंदूपत्ता तोड़ने आते हैं। जब हम श्रमिकों से सिलसिलेवार संवाद करते हैं, तब पहले भाव सिंह अपनी बात रखते हैं। वह कहते हैं कि, ‘गरीबी की विवशता ने हमें तेंदू पत्ता मजदूर बना दिया। आजीविका के लिए जो काम मिल जाता है। वही करने लगते हैं’। 

एक पेड़ के नीचे बैठे कुछ तेंदूपत्ता मजदूर

जब हम भावसिंह से पूछते हैं कि, तेंदूपत्ता का उपयोग आप किस तरह से करते हैं? तब वह चुप हो जाते हैं। मगर, इस सवाल का भावसिंह के पास खड़े तेंदूपत्ता श्रमिक तीरथ सिंह जवाब देते हैं। तीरथ कहते हैं कि, ‘कुछ लोग तेंदूपत्ता तोड़कर बेचते हैं। कुछ लोग तेंदूपत्ते की बीड़ी बनाकर बीड़ी बेचते हैं। एक दिन में तोड़ा गया तेंदू पत्ता करीब 200 रुपये में बिक जाता है। वहीं, इस तेंदूपत्ते की यदि एक हफ्ते में बीड़ी बनाई जाए, तो 500 रुपये मेहनताना मिल सकता है’। 

आगे तीरथ बयां करते हैं कि, ‘पहले तेंदूपत्ता का फड़ (तेंदूपत्ता की इकट्ठा करने के लिए) लगाया जाता था। तब तेंदूपत्ता बेचने में आसानी हो जाती थी। दैनिक आय 400-500 रुपये तक हो जाती थी। मगर, अब तेंदूपत्ता फड़ बंद हो गया है, जिससे अब हालत खराब है। वहीं जंगल की कटाई से भी तेंदूपत्ता के पेड़ कम हो रहे हैं। ऐसे में तेंदूपत्ता का मौसमी रोजगार अब सिमट रहा है’।     

तेंदूपत्ता तोड़कर आते मजदूर

फिर, राधेश्याम बोलते हैं कि, ‘मैं महाराष्ट्र जैसे राज्य में काम करने के लिए जाता हूँ। वहाँ मुझे 15 हजार रुपये का मासिक काम मिल जाता है। लेकिन, यहाँ तेंदूपत्ता में 150-200 रुपये ही दैनिक आय हो पा रही है। यहाँ ग्रामीण क्षेत्र में मजदूरी भी महीने में 8-10 दिन ही मिल पाती है। मगर, मजदूरी में पैसे की निश्चितता नहीं हैं’।

नारायणपुर गाँव के तेंदूपत्ता मजदूर टन्टू बताते हैं कि, ‘तेंदू पत्ता के काम में अब कोई मुनाफा नहीं है। अब तो तेंदूपत्ता मजदूर इसलिए तोड़ते हैं कि, तेंदूपत्ता से पेट ही भर जाए। तेंदूपत्ता सहित जितना भी मजदूर वर्ग है, उसे वास्तव में कभी सुख की अनुभूति नहीं हुई। मजदूर का दुख-सुख जो भी कहें काम ही है। आज जिस तरह से महंगाई मुंह खोले हुए है, उस हिसाब से तेंदूपत्ता मजदूर की दैनिक कमाई कम से कम 500 रुपये होना चाहिए। तब तेंदूपत्ता में आय से आहत श्रमिक को थोड़ी राहत मिल सकती है’। 

रानगिर का जंगल

दुर्गा प्रसाद किशनपुरा गाँव के हैं। उनका मानना है कि, ‘तेंदूपत्ता और बीड़ी के काम में आय कई सालों से बहुत सीमित है। जबकि, दैनिक मजदूरी में इजाफा होता जा रहा है। आज तेंदूपत्ता और बीड़ी मजदूर को संभालने के लिए सरकार से आर्थिक सहयोग और दैनिक कमाई में बढ़ोत्तरी की आवश्यकता है’। 

बिहारीखेड़ा गाँव (दूरी करीब 12 किलोमीटर) के युवा हेमराज दुखी मन से कहते हैं कि, ‘तेंदूपत्ता का काम शरीर को पसीने से ऊपर से लेकर नीचे तक भिगा देता है। शरीर पर तेंदूपत्ता की गठरी लाद कर पहाड़ पर ऊंची-ऊंची घाटियां चढ़ना बहुत दु;साध्य होता है। तेंदूपत्ता में तो 40-50 दिन का ही रोजगार है। इसके बाद तो काम मिलना भी कठिन हो जाता है। कुछ दिन पहले मनरेगा योजना के तहत काम मिला था, वह भी एक माह बाद मिलना बंद हो गया। हमारे जिले सागर में बेरोजगारी चरम पर है। वहीं, सागर में कोई काम की फैक्ट्री भी नहीं है’। 

देहार नदी‌

आगे पहाड़ में हमें एक इमली के पेड़ के नीचे कुछ महिलायें अपनी तेंदूपत्ता की गठरी के साथ सुस्ताती दिखाई देती हैं। महिलाओं के पास पहुँचते हैं, तब वे बताती हैं कि, ‘हम मोकलपुर गाँव से तेंदूपत्ता तोड़ने आते हैं। गाँव की दूरी 10 किलोमीटर से अधिक है’।   

60 वर्षीय अर्चना फरमातीं हैं कि, ‘तेंदूपत्ता और बीड़ी के काम में एक समय लोगों ने जमीन खरीद ली और अच्छे घर बनवा लिए। मगर, अब यह काम केवल खाना दे पा रहा है। तेंदूपत्ता तोड़ने के लिए 10 किलोमीटर की दूरी को हम अपने पैरों से नाप देते हैं। तेंदूपत्ता के लिए आधी रात में घर से पहाड़ की ओर निकले हमारे कदम घर पहुँचते-पहुँचते सूजन से फूल जाते हैं। शरीर की थकावट से हमारी आंखें बंद होने लगती हैं। मगर, जबरन आंखें खोलकर परिवार के लिए खाना भी बनाना पड़ता है। खाना बनाने के बाद तेंदू पत्ता का काम रुक नहीं जाता। इसके बाद हमें एक-एक तेंदूपत्ता को जमाकर 50-100 तेंदूपत्ते की गड्डियाँ बाँधनी पड़ती हैं। जब सब तेंदूपत्ता बंध जाता है। तब तेंदूपत्ता की गड्डियाँ धूप में सूखने के लिए डालनी पड़ती हैं’।

पहाड़ में मिले तेदूपत्ता मजदूर टंटू।

आगे मोकलपुर गाँव निवासी कल्लों (उम्र अंदाजे से 55 वर्ष) कहती हैं कि, ‘तेंदू पत्ता के काम में शारीरिक स्थिति बहुत खराब हो जाती है। 10 दिन तेंदूपत्ता तोड़ने में 3 जोड़ी कपड़े झाड़ियों में फँसकर फट जाते हैं। शरीर में जख्म हो जाता है। अक्सर पैरों में कांटे चुभ जाते हैं। हाथ-पैर और कमर दर्द तो आम बात है। तेंदूपत्ते की दौड़-धूप में शरीर का रंग उड़ जाता है’। 

इसके बाद हम पहाड़ को चीरते हुए बीचों-बीच जाते हैं, तब आ जाती है देहार नदी। रानगिर के जंगल की यह प्रसिद्ध नदी है। नदी में कहीं सूखापन तो कहीं पानी दिखता है। मगर, नदी की स्थित इतनी खराब नहीं है कि, कोई प्यासा पशु-पक्षी और इंसान पानी की उम्मीद छोड़ दे। 

जब हम देहार नदी को पार करते हैं तब साइकिल से तेंदूपत्ता ले जाते हरिराम, फूल सिंह और गणेश मिलते हैं। यह तेंदूपत्ता मजदूर सुरखी विधानसभा के हैं। चर्चा करने पर तीनों तेंदूपत्ता मजदूर बताते हैं कि, ‘तेंदूपत्ता और बीड़ी मजदूरों को बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और शादी समारोह में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। हम तेंदूपत्ता और बीड़ी मजदूरों की कम आय हमारे असुरक्षित भविष्य की चिंता में डुबो देती है। सरकार ने हमें आवास व शौचालय का लाभ तो दिया है। सरकार हमें राशन भी दे रही है। अब बस हम यही चाहते हैं कि, सरकार हमें कोई और रोजगार से जोड़े। अगर सरकार दूसरा रोजगार नहीं देती तो फिर तेंदूपत्ता और बीड़ी के काम में हमारी एक ठीक आय निश्चित करे’। 

तेंदूपत्ता तोड़ते सरस्वती और उनके पति

बातों ही बातों में हमारी आंखें देखती हैं कि, हरीराम के पैर से खून बह रहा है। तब हम पूछते हैं पैर को क्या हुआ? इसके जवाब में हरीराम कहते हैं कि, 

‘पैर में कांटा चुभ गया है। तब खून निकल आया। जब हमने कहा कि, आप ध्यानपूर्वक तेंदूपत्ता का काम करिए। तब हरीराम कहते हैं कि, कहाँ तक ध्यान दें हमें तो रोज तेंदूपत्ता के लिए काँटों, झाड़ियों, नुकीले और पथरीले पत्थरों से गुजरना पड़ता है। हमें तेंदूपत्ता का एक-एक पेड़ देखना पड़ता है। जिस पेड़ का तेंदूपत्ता पक्का हो गया उसे तोड़ते हैं। जिस तेंदूपत्ता का पेड़ कच्चा होता है उसे छोड़ देते हैं। तेंदूपत्ता की तलाश में हमें यह होश नहीं रहता कि, हम किस हाल में हैं। बस सोच यह होती है कि, तेंदूपत्ता मिल गया तो हमारी रोटी मिल गई’।  

तेंदूपत्ता तोड़ती शंकर और उनकी बेटी।

वहीं, जब हमने तेदूपत्ता रोजगार और तेदूपत्ता मजदूरों को लेकर मध्यप्रदेश में जल, जंगल, जमीन के अधिकारों पर कार्य कर रहे समाजिक कार्यकर्ता राजकुमार सिन्हा से बात की। तब वह बताते हैं कि, ‘तेंदूपत्ता मजदूर अभी खुद मजदूर हैं। वह तेदूपत्ता के काम की पूरी प्रक्रिया का हिस्सा हैं, तब भी उसे कुछ नहीं मिल रहा। राज्य में लघु वनोपज निगम ही तेंदूपत्ता की खरीदी-बिक्री करता है। यदि तेदूपत्ता मजदूरों की कई गांव को जोड़कर एक फेडरेशन बनाई जाए। तब तेंदूपत्ता मजदूर मालिक बन सकता है। वहीं, तेदूपत्ता के काम में बिचौलियों का हस्तक्षेप भी बहुत होता है, जो खत्म हो जायेगा। तेदूपत्ता मजदूर मालिक बनकर तेदूपत्ता का एक अच्छा रेट बढ़ा सकते हैं। साथ में लोकल‌ युवाओं को रोजगार भी दे सकते हैं’।  

राजकुमार सिन्हा आगे कहते हैं कि, ‘आज ज्यादातर जंगलों में पेड़ काटे जाने से तेंदूपत्ता की उपलब्धता कम हो रही है। ऐसे में यदि तेंदूपत्ता का मेनेजमेंट तेदूपत्ता श्रमिकों के हाथों में रहेगा, तब जंगल भी सुरक्षित रहेगा और तेदूपत्ता का संरक्षण भी होगा’। 

जब हम तेंदूपत्ता रोजगार से संबंधित आंकड़े देखते हैं। तब ज्ञात होता है कि, मध्य प्रदेश में तेंदूपत्ता का औसत वार्षिक उत्पादन लगभग 25 लाख मानक बोरा है। जो देश के कुल तेंदूपत्ता उत्पादन का लगभग 25% है।

राज्य में वर्ष 2012 तक 12.17 लाख तेंदपत्ता मजदूर थे। इन मजदूरों को 234.74 करोड़ रुपये प्रोत्साहन मजदूरी राशि भुगतान की गयी थी। यह राशि वर्ष 2012 में ही प्रदान की गयी। 

पहाड़ में रखी तेदूपत्ता मजदूरों की मोटर साइकिल

वहीं, वर्ष 2020 में तेंदूपत्ता मजदूरों के लिए 70.16 करोड़ की प्रोत्साहन मजदूरी राशि भुगतान की गयी। 

वर्ष 1991 में तेंदू पत्ता तोड़ने वाले मजदूरों के लिए एक समूह बीमा योजना भी शुरू की गई। 

इस योजना के अंतर्गत 18 से 60 वर्ष की आयु (लगभग 24 लाख) के सभी तेंदूपत्ता तोड़ने वाले किसानों का निःशुल्क बीमा किया जाता है। 

यह योजना भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा संचालित की जाती है। इस योजना के अंतर्गत आने वाले पात्र व्यक्ति की मृत्यु पर 35000 रुपये भुगतान का प्रावधान है। 

वहीं, दुर्घटना के कारण, विकलांगता की स्थिति में व्यक्ति को 12500 रुपये की राशि के भुगतान का प्रावधान है। 

यदि दुर्घटना के कारण योजना का पात्र व्यक्ति मृत्यु या स्थायी विकलांगता होती है, तो बीमा की राशि 25000 रुपये दिये जाने का प्रावधान है‌।          

गौरतलब है कि, कम कमाई, महंगाई और बेरोजगारी के बीच पिसते तेंदूपत्ता मजदूरों के लिए सरकार की ऐसी कोई ठोस योजना नहीं है, जिससे इन मजदूरों की जिंदगी को ढंग से संवारा जा सके। सरकार की तरफ से यदि कोई योजना नहीं बनती, तब तेंदूपत्ता मजदूरों की एक ठीक-ठाक आय निर्धारित की जानी चाहिए। अगर यह रास्ता भी सरकार नहीं अपनाती, तब सरकार को तेंदूपत्ता मजदूरों के लिए नए रोजगार स्थापित करने का मजबूत कदम उठाना चाहिए। अगर सरकार तेंदूपत्ता मजदूरों को लेकर विशेष निर्णय नहीं लेती, तब तेंदूपत्ता मजदूरों की हालत बिगड़ती जाएगी और उनका रोजगार खत्म होता जाएगा।

(सागर, एमपी से सतीश भारतीय की रिपोर्ट।)

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