मंडलोई की आत्मकथा सतपुड़ा और भूख का जीवंत अनुभव कराती है : विश्वनाथ त्रिपाठी

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नई दिल्ली। लीलाधर मंडलोई की आत्मकथा ‘जब से आँख खुली हैं’ न सिर्फ़ एक व्यक्ति के जीवन की कथा है, बल्कि यह हिन्दी साहित्य में एक ऐसा विरल दस्तावेज बनकर सामने आई है जो वर्ग, श्रम, प्रकृति और विस्थापन जैसे विषयों को आत्मानुभूति के स्तर पर गहराई से छूती है। यह आत्मकथा महज स्मृतियों का संकलन नहीं, बल्कि वह संवेदनात्मक यात्रा है जो एक श्रमिक दलित परिवार की कहानी के माध्यम से पूरे समाज के अनुभवों को अपने भीतर समेटती है।

राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित वरिष्ठ साहित्यकार लीलाधर मंडलोई की आत्मकथा ‘जब से आँख खुली हैं’ पर गुरुवार शाम सिविल सेवा अधिकारी संस्थान (CSOI) में बातचीत का आयोजन किया गया। इस चर्चा-सत्र में साहित्य, संस्कृति और समाज से जुड़े कई महत्वपूर्ण पहलुओं को आत्मकथा के सन्दर्भ में विचार-विमर्श के केंद्र में रखा गया।

इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने की, वहीं मुख्य अतिथि के रूप में सुपरिचित लेखक मृदुला गर्ग उपस्थित रहीं। लेखक-आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल, आलोचक जानकी प्रसाद शर्मा और लेखक विष्णु नागर ने वक्ताओं के रूप में आत्मकथा पर अपने विचार व्यक्त किए। चर्चा का संचालन प्रांजल धर ने किया।

कार्यक्रम की शुरुआत में लीलाधर मंडलोई ने आत्मकथा की लेखन-प्रक्रिया पर अपने विचार साझा करते हुए कहा, देखना और सुनना, मेरे बचपन के पहले आश्चर्य थे। उनमें साहित्य जैसा कुछ भी नहीं था-वे बस जीवन के अनुभव थे, अनगढ़ और मौलिक। माँ के शब्दों में कहूँ तो वे ‘गोदना’ थे। धीरे-धीरे वे अनुभव मेरी कलम की लिखाई में उतरते गए, और माँ भी-उनकी स्मृति, उनका स्वर, उनका श्रम-मेरे भीतर समाता गया। लेखन मेरे लिए माँ के पास लौटने का रास्ता बना। माँ न होतीं, तो शायद मैं भी न होता।

पुरुषोत्तम अग्रवाल ने आत्मकथा की गहराई और उसके सामाजिक संदर्भों पर प्रकाश डालते हुए कहा, आत्मकथा अक्सर लेखक के लिए बीते समय को फिर से जीने का जरिया होती है, लेकिन ‘जब से आँख खुली हैं’ महज़ नॉस्टेल्जिया नहीं, यह आत्मकथा अपने समय का इतिहास है। इसमें न केवल एक व्यक्ति की कथा है, बल्कि वर्ग-संवेदनाओं, सांस्कृतिक विसंगतियों और सामाजिक संघर्षों की व्यापक उपस्थिति है। यह आत्मकथा हिन्दी साहित्य में वर्ग विमर्श को पुनः स्थापित करने का एक विनम्र, किंतु पुरजोर प्रयास है।

विष्णु नागर ने आत्मकथा के बहुआयामी स्वरूप पर टिप्पणी करते हुए कहा, इस आत्मकथा ने आत्मकथा और संस्मरण के बीच की सीमाओं को तोड़ा है। इसमें इतनी विविधता और संवेदना है जो हिन्दी की किसी और आत्मकथा में दुर्लभ है। मंडलोई एक ऐसे परिवार से आते हैं, जहाँ पूरा परिवार श्रमिक है-यह शायद हिन्दी में एक मेहनतकश मजदूर परिवार की पहली आत्मकथा है। उन्होंने विशेष रूप से माँ के चित्रण को रेखांकित करते हुए कहा कि आत्मकथा में माँ के प्रति अत्यंत गहरा सम्मान प्रकट किया गया है। यह आत्मकथा अनेक मार्मिक प्रसंगों और प्रकृति के रूपों से भरी हुई है।

उन्होंने कहा, यह रचना केवल उनके निजी जीवन का वृत्तांत नहीं, बल्कि उस पूरे सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश की प्रस्तुति है जिसमें उन्होंने जीवन जिया। यह एक मेहनतकश, दलित, श्रमिक परिवार की आत्मसजग कथा है, जिसमें स्मृति, अनुभव और आत्म-संवेदनशीलता की गहरी परतें जुड़ी हुई हैं।

जानकी प्रसाद शर्मा ने आत्मकथा की प्रकृति-चेतना को अद्वितीय बताते हुए कहा, आज के साहित्य में जहाँ प्रकृति लगातार अनुपस्थित होती जा रही है, वहाँ मंडलोई की आत्मकथा पक्षियों की आवाज़, पेड़ों की छाया और धरती की सोंधी गंध को फिर से साहित्य में फिर से लौटाने का काम करती है। यह आत्मकथा हमें प्रकृति और मनुष्य के बीच टूटते रिश्तों की चेतावनी भी देती है। उन्होंने कहा कि इस कृति में दुख केवल लेखक के नहीं हैं, इसमें हमें अपने दुख भी दिखाई देते हैं और वह हमें और अधिक मनुष्य बनाते हैं।

मुख्य अतिथि मृदुला गर्ग ने आत्मकथा के सौंदर्यबोध और रचनात्मक विस्तार पर प्रकाश डालते हुए कहा, इस कृति में लेखक के जीवन के पल-पल का गहन, संवेदनशील और कलात्मक चित्रण है। लीलाधर मंडलोई ने एक बाल श्रमिक के रूप में जो अनुभव किया, वह उनकी आत्मकथा में केवल पीड़ा नहीं, बल्कि खेल, स्वप्न और संघर्ष का एक समवेत रूप बनकर दिखायी पड़ता है।

अध्यक्षीय वक्तव्य में विश्वनाथ त्रिपाठी ने आत्मकथा को एक सांस्कृतिक दस्तावेज बताते हुए कहा, यह आत्मकथा सतपुड़ा के जंगल और भूख का जीवंत अनुभव कराती है। मंडलोई की जड़ें सतपुड़ा में हैं और वह पूरी तरह उनके व्यक्तित्व में घुल-मिल गई हैं। जिस आत्मीयता और पहचान के साथ उन्होंने सतपुड़ा की वनस्पतियों, जीवन शैली और भूख के अनुभवों को प्रस्तुत किया है, वह हिन्दी साहित्य में विरल है।

उन्होंने कहा, जो लोकल होता है, वही ग्लोबल हो सकता है; मंडलोई की आत्मकथा इसका प्रमाण है। इस आत्मकथा के बहुस्तरीय स्वरूप, वर्गीय और सांस्कृतिक सन्दर्भ, विस्थापन की पीड़ा, प्रकृति से जुड़ाव और मानवीय संघर्षों को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया है, वह इसे हिन्दी साहित्य की एक ऐतिहासिक कृति के रूप में स्थापित करता है।

इस कृति पर चर्चा करते हुए वक्ताओं ने इसे एक सामाजिक इतिहास, सांस्कृतिक चेतना, वर्गीय विमर्श और प्रकृति के साथ टूटते रिश्तों का ऐसा संगम बताया, जो आज के साहित्य में अत्यंत दुर्लभ है। कहीं इसमें भूख की मार्मिकता है, कहीं सतपुड़ा की मिट्टी की महक; कहीं माँ के न थकने वाले हाथ हैं, तो कहीं विस्थापन की मौन पीड़ा। यह आत्मकथा केवल लेखक के जीवन की कथा नहीं कहती, बल्कि एक पूरे समय, समाज और संवेदना की परतों को खोलती है। हर पाठक इसमें कहीं न कहीं अपना अक्स देख सकता है।

(जनचौक की रिपोर्ट)

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