भारत का एक ऐसा कलाकार जिसकी चर्चा मरने के बाद भी खत्म होने का नाम नहीं ले रही। 2024 के दिसंबर के मध्य में वे उस समय चर्चा में आ गए जब दिल्ली आर्ट गैलरी में उनकी लगी पेंटिंग को लेकर पार्लियामेंट स्ट्रीट स्थित पुलिस स्टेशन में एक आपत्ति दर्ज कराई गई। मकबूल फिदा हुसैन की उस पेंटिंग को देवताओं का अपमान करने वाला बताया गया। जब पुलिस आर्ट गैलरी में खोजबीन के लिए गई, तब तक वहां से आपत्तिजनक पेंटिंग को हटा दिया गया था। यह 10 दिसंबर की बात थी।मीडिया में इसे लेकर उस समय कई खबरें आईं और एक बार फिर फिदा हुसैन चर्चा में आ गए थे।
उनकी यह चर्चा आने वाले समय में कम होती-होती उस समय एक बार फिर से मीडिया की मुख्य खबरों में बदल गई जब उनकी ‘ग्राम यात्रा’ पेंटिंग का मूल्य 118.7 करोड़ रुपये आंका गया। भारतीय मॉडर्न आर्ट गैलरी की ओर से यह नीलामी न्यूयॉर्क में की गई थी। इसने अमृता शेरगिल की ‘द स्टोरी टेलर’ पेंटिंग को भी पीछे छोड़ दिया। इस पेंटिंग की खरीदार में जिस नाम की चर्चा रही, वह किरण नादर थीं। वे शिव नादर फाउंडेशन की ट्रस्टी हैं।
‘ग्राम यात्रा’ एक वर्कशॉप के दौरान बनाई गई थी। 14 फीट लंबी-चौड़ी इस पेंटिंग में भारतीय ग्रामीण जीवन के कुल 13 अलग-अलग दृश्य हैं। इस पेंटिंग को बनाने और इसके वर्कशॉप के फिल्मांकन को यूट्यूब पर देखा जा सकता है।
इन दो उपरोक्त चर्चाओं के बाद 5 अप्रैल, 2025 को एक छोटी-सी खबर इंडियन एक्सप्रेस के तीसरे पेज पर छपी। दिल्ली आर्ट गैलरी में प्रदर्शनी के दौरान लगी मकबूल फिदा हुसैन की पेंटिंग को लेकर दर्ज की गई आपत्ति को एफआईआर में बदलने के संबंध में मेट्रोपॉलिटन कोर्ट में सुनवाई के दौरान दिल्ली आर्ट गैलरी की ओर से जो बयान दिया गया, वह गौरतलब था : “जो स्केच थे, वे वहां प्रदर्शनी के लिए 30 दिनों तक थे। हजारों लोगों ने पेंटिंग्स को देखा। आपत्तिकर्ता (सचदेवा) को छोड़कर किसी ने आपत्ति नहीं की। उनकी इस आपत्ति को पूरे समुदाय की आपत्ति की तरह न देखा जाए।” साथ ही उनके वकील ने यह भी जोड़ा : “कला की समझदारी के लिए आपको अपना दिमाग बढ़ाने की जरूरत है।”
यह बहस अभी जारी है और इस संदर्भ में 21 अप्रैल को इस पर सुनवाई तय हुई है। कोर्ट का निर्णय क्या लेकर आएगा, यह अभी देखना बाकी है। लेकिन, कला के बाजार में मकबूल फिदा हुसैन का नाम सबसे ऊपर पहुंच गया है। और इसके खरीदार कहीं और से नहीं, यहीं दिल्ली से ही हैं।
कला एक ऐसा सृजनात्मक पक्ष है जिसका चुनाव जितना आत्मगत है, उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही सामाजिक है। यह अपने भीतर ऐतिहासिक विकास यात्रा को समेटे हुए आती है और वर्तमान से अक्सर उलझ जाती है। इन सबमें कलाकार का अपना जीवन बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। लेकिन, इन सबमें सबसे बड़ी भूमिका उस समय की राजनीति निभाती है जिसके केंद्र में राज्य और विचार दोनों ही होते हैं। जो विचार राज्य को अपने नियंत्रण में लेता है, राज्य उस विचार के वाहकों, वर्गों, समुदायों के हित-साधक में बदलता जाता है। इसमें कला और कलाकार का अस्तित्व इनके साथ ही जुड़ा होता है।
कला और कलाकार में मुख्य पक्ष निश्चित ही कलाकार होता है। इसीलिए, सबसे अधिक मार कलाकार पर ही पड़ती है। इस सदी के शुरुआती सालों में फिदा हुसैन की चर्चा और उन पर हमलों की शुरुआत हो चुकी थी। अंततः उन्होंने 2006 में देश छोड़ दिया। 2011 में उनका निधन हुआ। उन्हें यह देश नसीब नहीं हुआ। लेकिन, उनकी कला को यह नसीब हासिल है कि वे इस देश में बने रहें। हालांकि अब भी उनकी कलाकृतियों को लेकर विवाद जारी है।
आज भी मकबूल फिदा हुसैन की कृतियों को दिल्ली की कई सरकारी इमारतों पर देखा जा सकता है। इनमें से अधिकांश 1970 के दशक में बनी थीं। पुरानी होती इमारतों के टूटने का सिलसिला भी जारी है। उनके साथ ही वे कृतियां खत्म हो जानी हैं। लेकिन, उनकी चंद भड़कदार रेखाओं की लोच से जो आकृतियां उभरकर आती हैं, वे आधुनिक भारतीय कला का हिस्सा बन चुकी हैं। वे भारतीय कला से बाहर जाने वाली नहीं हैं।
जिस बाजारवाद ने फिदा हुसैन को भारत से निर्वासित कर दिया, उसी बाजार ने उनकी कला को एक निजी संग्रहालय में वापस लाने का रास्ता दे दिया। इन वाक्यों को पढ़ते समय यह जोड़कर जरूर पढ़ें : कलाकार की वापसी कतई नहीं हुई है। कलाकार अब भी निर्वासित है। बाजार हमेशा ही सर्जक को हाशिए पर ठेलता है और राज्य के बल पर उसे मौत की ओर ले जाता है। बाजार कभी भी कलाकार की वापसी नहीं करता, उसकी कला का मूल्य जरूर लगाता है। बाजार में सबसे ऊंचे मूल्य पर बिकने के बाद भी मकबूल फिदा हुसैन इसके अपवाद नहीं हैं।
(अंजनी कुमार पत्रकार हैं)
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