प्रतीकात्मक फोटो।

मीडिया सरकार पर मेहरबान या सरकार मीडिया पर मेहरबान !

गोरख पाण्डे की मशहूर कविता है,

राजा बोला रात है

रानी बोली रात है

मंत्री बोला रात है

संतरी बोला रात है

सब बोले रात है

यह सुबह सुबह की बात है…

इस कविता में अगर राजा के बाद रानी, मंत्री और संतरी आदि को एबीसीडी मीडिया मान लिया जाऐ तो यह कविता इस तरह बन जाएगी;

सरकार ने बोला रात है

ए मीडिया बोली रात है

बी अखबार बोला रात है

सी मीडिया हाउस बोला रात है

सभी पत्रकार मिलकर बोले रात है

लेकिन यह सुबह सुबह की बात है…

इस बात पर आश्चर्य होता है कि वर्तमान समय में मीडिया सरकार/सत्ता दल व उसके नियंत्रकों के पक्ष में इतना सफेद झूठ क्यों बोल रही है, इसमें पहली बात तो यही है कि वर्तमान सत्ता मनसा वाचा कर्मणा एक नहीं है। उसका जो संवैधानिक राजधर्म है उसकी नीयत से मेल नहीं खा रहा है, इसी स्थिति को मीडिया ने जान लिया है कि कामधाम की, जनता की भलाई की, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय हितों की छोड़ो, यह देखो सरकार के नियन्ता अन्तिम रूप से चाहते क्या हैं ? यही बिंदु ऐसा है जहां पर मीडिया अपने चारण धर्म का पूरा उपयोग कर रहा है। 

लेकिन इसके होने की बारीक कार्यप्रणाली बिल्कुल बनिया गिरी के सिद्धान्त पर टिकी है। जिस तरह गांव का एक मात्र दुकानदार गांव के दबंगों और लठैतों को उधार देकर पूरे गांव के लोगों को दबाकर रखता है, ठीक वैसा ही सरकार कर रही है। फर्क इतना है कि सरकार उधार नहीं दे रही है, विज्ञापन दे रही है। अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि विज्ञापनखोर मीडिया सरकार को खुश करने के हथकंडे न अपनाए, सरकार को क्या चाहिए कितना मसाला चाहिए इसी पर मीडिया की रोजी-रोटी चल रही है।

ठीक वैसे ही जैसे गांव के लोग बनिए की किसी सामान की क्वालिटी की आलोचना या कमी की बात नहीं कर सकते क्योंकि लठैतों को उधारी या मुरव्वत में सामान मिलता, इसलिए पूरा गांव वहीं लेता और खरीदता, मानता और खाता है जो बनिया लठैतों के बल पर उन्हें देता है। इसे आप मजबूरी कह सकते हैं, डर कह सकते हैं। स्वामिभक्ति तो खैर यह हुई ही।

बस यहां सरकार अपने लठैतों (मीडिया हाउसों) को विज्ञापन से जिस तरह नियंत्रित करती है यही सबसे बड़ी बनिया गिरी है। इसी के जरिये मीडिया को पैर के नीचे दबाने का खेल चल रहा है।

सुनते हैं सरकार की फाइलों में मीडिया के करोड़ों रुपये के विज्ञापन आर्डर और विज्ञापन के बिल हमेशा अटके रहते हैं, जैसे-जैसे न्यूज़ की गंगा बहती है वैसे-वैसे विज्ञापन के आर्डर और उनके बिल की फाइलों की वैतरणी पार करती जाती है। इसे आप पेड न्यूज का सुधरा हुआ रूप कह सकते हैं।

इसी का प्रभाव कार्पोरेट सेक्टर पर पड़ रहा है सरकार चूंकि विज्ञापन बाजी पर चल रही है तो कार्पोरेट पीछे क्यों रहे उसने भी अपने चारण पाल लिए हैं, जब सरकारी मृदंग बजता है तो नफीरी से लेकर पपीरी तक सब बज जाते हैं। कार्पोरेट की रिपोर्ट्स और वित्तीय परिणाम बदलवाना भी इसी मीडिया की विज्ञापनबाजी के कारण सम्भव हो पाया है।

ढहती हुई अर्थव्यवस्था में आए कोरोना संकट के साथ घोर गंभीर भंवर में फंस रही कार्पोरेटी नैय्या को डूबने से बचाना है। इसलिए सरकार का स्तुतिगान जरूरी हो गया है ऐसे में जब आय के और स्रोत सूख रहे हों तो मीडिया के सामने अस्तित्व बचाने का संकट है। उसकी शान शौकत और ऐंठ को बचाए रखना है, जिसके लिए जरूरी है कि सरकारी दुधारू गाय की खूब सेवा की जाए। लात तो खानी नहीं है, विज्ञापन की मोटी आमदनी चलती रहेगी।

यूपीए के शासन के दौरान दस बारह वर्ष पूर्व मेरे एक मित्र जो एक न्यूज टीवी के स्टेट हेड रहे थे। तब उन्होंने बातों-बातों में यह बताया था कि कोई भी न्यूज़ चैनल लाभ में नहीं चल रहा है। हर चैनल विज्ञापनों से इतनी आमदनी नहीं कर पा रहा था जिससे उसका औसत खर्चा निकल जाए। यहां तक कि लाइसेंस फीस भरने के भी लाले पड़ते थे।

इक्का दुक्का बड़े न्यूज चैनलों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर क्षेत्रीय चैनलों में सम्पादकों और एंकरों को जैसे तैसे तनख्वाह देकर रोक लिया जाता था। उस दौर में टीवी में काम करने वाला पत्रकार का मतलब खुद जुगाड़ करने वाला होता था।  सीसीडी कैमरा गाड़ी मोटर साइकिल या कार भी उसी की होती थी यहां तक कि सहायक भी उसी का होता था। वह अपना खर्चा करता था। जैसे-तैसे ऊपर नीचे करके चैनलों का जुगाड़ हो जाता था।

अब एनडीए सरकार आते ही न्यूज़ चैनलों की दुनिया बदल गई। इन चैनलों के बड़े बिजनेस हाउसों के खरीदे जाने के साथ ही सार्वजनिक धन का बड़ा हिस्सा लगभग दो हजार करोड़ रुपया मीडिया के पालने में खर्च होने लगा। सरकार ने समझ लिया था कि काम हो या नहीं उसका प्रचार शानदार होना चाहिए इसलिए चाहे बेटी बचाओ का नारा हो या उज्ज्वला का जलवा सब मीडिया में दिखता है धरातल पर दिखे या न दिखे। इस पर कोई शर्म भी नहीं है। 

इसका बड़ा प्रभाव यह हुआ कि अब मीडिया में फटीचर पत्रकार नहीं होते अब लाखों करोड़ों का पैकेज लेने वाले इक्जीक्यूटिव एडीटर होते हैं।……यहां तक कि मीडिया हाउस में लाभ लेने वाले हिस्सेदार या डायरेक्टर होते हैं।

ऐसे में सोनिया गांधी द्वारा कोरोना महामारी से लड़ने के लिए दिए गए सुझावों में सरकारी विज्ञापन खर्चा खत्म करने का पहला सुझाव मीडिया को कैसे पसंद आता। एक तो मीडिया वैसे भी कांग्रेस की विरोधी है फिर दूसरे सोनिया गांधी का यह सुझाव, उनके ब्रेड बटर पर सीधे लॉक डाउन। करेला और नीम चढ़ा की स्थिति हो गई। इसलिए सोनिया गांधी के और महत्वपूर्ण सुझाव भी दाखिल दफ्तर हो गए।

इसमें वह महत्पूर्ण सुझाव भी सम्मलित है जिसमें सेन्ट्रल विस्टा की परियोजना को रद्द करने का भी है। जिसमें नयी संसद और सचिवालय आदि बनाकर बीजेपी को स्मृति अमर करने की महत्वाकांक्षा भी सम्मलित है। जो कि ऐसे संकट काल में अनावश्यक अनुत्पादक और फालतू का खर्चा ही कहा जाएगा, चूंकि उस परियोजना से भी कहीं न कहीं बड़े कार्पोरेट और मीडिया का हित जुड़ा है तो उसे भी कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया ने पसंद नहीं किया।

इसी तरह प्रसिद्ध अर्थ शास्त्री ज्यां द्रेज ने कोरोना से लड़ने के लिए खाद्यान्न बड़े स्तर पर बंटवाने का सुझाव दिया, भले ही वित्तीय घाटा बढ़ जाए। यह सुझाव भी कार्पोरेट क्षेत्र के लिए नापसंद है। उसका तर्क है इससे भारत की “क्रेडिट रैंक” गिर जाएगी और भविष्य मे निवेश पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। यह मीडिया और सरकार के सबसे बड़े हितों के विरुद्ध है इसलिए इस पर भी चर्चा नहीं की। भले ही गरीब सड़कों पर निकलें या फिर भूखे मरें।

इसीलिए कोरोना को एक विपत्ति की तरह नहीं लिया गया है, उसे एक इवेन्ट, और फेस्टिवल की तरह डील किया जा रहा है जिसमें सरकारी प्रयास प्रचार का हिस्सा बन गए हैं। आने वाले समय में विज्ञापनों की मात्रा सरकार की प्रचार की महत्वाकांक्षा के सापेक्ष बढ़ती जाएगी और यही मीडिया कार्पोरेट्स को पसंद है।

अब यह कोई रहस्यपूर्ण पहेली नहीं रही कि नारी बिच सारी है कि सारी बिच नारी है की तरह मीडिया सरकार पर मेहरबान है या सरकार मेहरबान है मीडिया पर, यह सीधे सीधे एक हाथ दे और दूसरे हाथ ले वाला सिद्धान्त है। लेकिन इसमें चूंकि सरकार उभय पक्ष है, नियन्ता है, मालिक है, तो मीडिया एकदम चारण है, इसलिए सरकार की दुंदुभि बज रही है। ऐसे में यहां लोकतंत्र की बात न करें……..यहां यही नियति बनी हुई है।

(इस्लाम हुसैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और नैनीताल के काठगोदाम में रहते हैं।)

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