तनाव में मौत को गले लगा रहे हैं मेडिकल छात्र, रिसर्च में हुआ खुलासा

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देश भर में मेडिकल छात्र बेहद टेंशन में जी रहे हैं। इसी टेंशन में वे मौत को गले लगा रहे हैं। छात्रों को अपनी हत्या के लिए उकसाने वाले ये टेंशन कई तरीके के हैं। टेंशन में छात्र अपनी पढ़ाई से भी भाग रहे हैं। ये हम नहीं कह रहे हैं। यह जवाब एक आरटीआई में दिया गया है। हाल ही में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) ने एक आरटीआई के जवाब में कहा है कि पिछले पांच वर्षों में 64 एमबीबीएस और 55 पीजी मेडिकल छात्रों ने आत्महत्या कर ली। इसके अलावा,1,166 छात्रों ने मेडिकल कॉलेज छोड़ दिया। इनमें से 160 एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे थे और 1,006 पीजी की पढ़ाई  कर रहे थे।

मेडिकल छात्रों में आत्महत्या की घटनाओं से शीर्ष चिकित्सा नियामक प्राधिकरण एनएमसी चिंतित है। एनएमसी ने वर्ष 2022 के अंत में देश के सभी मेडिकल कॉलेजों को आत्महत्या और एमबीबीएस और पीजी छात्रों के ड्रॉप-आउट से संबंधित पिछले पांच साल का डेटा इकट्ठा करने के लिए कहा। 

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि आयोग इस बात को लेकर चिंतित है कि रैगिंग और ज्यादा काम के बोझ की वजह से मेडिकल छात्र तनाव में जी रहे हैं और आत्महत्या जैसे घातक कदम उठा रहे हैं। आयोग ने आरटीआई कार्यकर्ता विवेक पांडे की तरफ से किए गए प्रश्नों का जवाब देते हुए ऐसा कहा।

ऐसे कई अभिभावक हैं जिन्होंने अपने बच्चों को खो दिया है, जो मेडिकल के छात्र थे। दक्षिण मध्य रेलवे में रेलवे सुरक्षा बल के एक सहायक उप-निरीक्षक डी. नरेंद्र  जिन्होंने एक महीने पहले अपनी 26 वर्षीय बेटी प्रीति धारावत को खो दिया, ने कहा कि ‘अपना जीवन समाप्त करने वाला बच्चा माता-पिता के लिए मौत की सजा है।’ 

तेलंगाना के वारंगल में काकतीय मेडिकल कॉलेज (केएमसी) के प्रथम वर्ष के पीजी छात्र का आरोप है कि एक सीनियर छात्र की ओर से काम पर परेशान किए जाने के बाद डॉ. धारावत ने अपनी जान ले ली। मामले की जांच की जा रही है। इस हादसे के बारे में बोलते हुए, श्री नरेंद्र ने कहा, ‘काश उसे पीजी की सीट कभी नहीं मिली होती। तो शायद आज वह जिंदा होती।’ 

दुर्भाग्य से, डॉ. धारावत के माता-पिता अकेले नहीं हैं जो अपने बच्चे को इतने दुखद तरीके से खोने के सदमे से जूझ रहे हैं। एक शोध के मुताबिक, वर्ष 2010 और 2019 के बीच मेडिकल छात्रों (125), रेजिडेंट्स डाक्टरों (105) और डॉक्टरों (128) को मिलाकर 358 आत्महत्यायें हुईं हैं। 

एनेस्थिसियोलॉजी (22.4%) के बाद प्रसूति-स्त्रीरोग विज्ञान (16.0%) में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं हुईं। मेडिकल छात्रों (45.2%) और रेसिडेंट्स (23.1%) के बीच शैक्षणिक तनाव, और डॉक्टरों के बीच वैवाहिक कलह (26.7%) आत्महत्या के सबसे मुख्य कारण बने। 

मेडिकल छात्रों (24%) और डॉक्टरों (20%) में मानसिक अस्वस्थता सबसे आम कारण थी। जबकि (20.5%) रेसिडेंट्स के लिए हैरेसमेंट एक कारण था। 26% तक ने आत्महत्या की चेतावनी के संकेत दिए थे और केवल 13% ने आत्महत्या से पहले सॉइकोलॉजिस्ट की सहायता मांगी थी।

पोस्टग्रेजुएट स्टडीज, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन-जूनियर डॉक्टर्स नेटवर्क के कमेटी हेड रिमी डे ने कहा कि, ‘आत्महत्या एक जटिल, बहुआयामी मुद्दा है। दिन और रात की शिफ्ट, परिवार से दूरी, काम का विरोधी माहौल और असहयोगी प्रशासन, नींद की कमी, पैसे से जुड़ी समस्याएं, परीक्षा तनाव, कभी-कभी अमानवीय रैगिंग, जाति-आधारित भेदभाव और क्षेत्रवाद से जुड़ी कुछ ऐसी कठिनाइयां हैं जिसका सामना मेडिकल छात्रों और डॉक्टरों को करना पड़ता है।’ 

उन्होंने कहा कि डॉक्टरों के बीच आत्महत्या जैसे घातक कदम उठाना सामान्य लोगों की तुलना में लगभग 2.5 गुना अधिक है। उन्होंने ये भी कहा कि ‘दुख की बात है कि इस मामले का हल निकालने को लेकर बहुत कुछ नहीं किया गया है या इसके बारे में बात भी नहीं की गई है।‘

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के एक वरिष्ठ रेसिडेंट्स ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा कि ‘लगभग सभी मेडिकल कॉलेजों में नियम, सुरक्षा उपाय और सहायता प्रणाली दी जाती है, लेकिन उसे सख्ती से फॉलो नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिए, एनएमसी में एक एंटी-रैगिंग कमेटी है जो शिकायतों की निगरानी करती है।’ 

द लैंसेट साइकियाट्री ने 2019 के एक लेख जिसका शीर्षक है ‘मेंटल हेल्थकेयर फॉर यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स : ए वे फॉरवर्ड?’ में कहा है कि आत्महत्या और खुद को नुकसान पहुंचाना दुनिया भर में एक प्रमुख स्वास्थ्य और सामाजिक मुद्दा है।

( कुमुद प्रसाद जनचौक में सब एडिटर हैं।)

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