‘मिश्राजी प्रकरण’: बनारस की सियासत में घुला ज़हर, जब विरोध करना अपराध और लोकतंत्र चुपचाप सज़ा बन गया !

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वाराणसी। बनारस, एक ओर ज्ञान, शांति और सहिष्णुता की नगरी; दूसरी ओर आज की राजनीति में आरोप, प्रत्यारोप और हिंसा की रणभूमि बनती जा रही है। बीते रविवार को समाजवादी पार्टी के तेज़तर्रार नेता और सोशल मीडिया पर ‘बनारस वाले मिश्राजी’ के नाम से पहचाने जाने वाले नेता हरीश मिश्रा पर हुए हमले और फिर अस्पताल से सीधे जेल भेजे जाने की घटना ने न केवल स्थानीय राजनीति को झकझोर दिया, बल्कि एक गहरे सामाजिक और वैचारिक संकट को भी उजागर किया है। यह विवाद किसी एक टिप्पणी या विचार तक सीमित नहीं रहा, यह उस आक्रोश की परिणति है जो वर्षों से जातीय अस्मिता, धार्मिक प्रतीकों और राजनीतिक रणनीतियों के जाल में उलझा हुआ है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह सिर्फ दो संगठनों या दो विचारधाराओं की टकराहट नहीं, बल्कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उस पर होने वाले हमलों की एक भयावह तस्वीर है। जब एक राजनीतिक कार्यकर्ता के शब्द, जिनसे असहमति हो सकती है, जानलेवा हिंसा का कारण बनें और फिर उसी कार्यकर्ता को गंभीर आरोपों में जेल भेज दिया जाए, तो यह सवाल उठता है-क्या हम एक संवेदनशील लोकतंत्र में जी रहे हैं या भयभीत चुप्पी के युग में प्रवेश कर चुके हैं?

यह घटना सिर्फ मिश्रा और करणी सेना के बीच का संघर्ष नहीं, बल्कि उस राजनीतिक संरचना की परछाईं है जो विरोध को अपराध, और भावनात्मक उबाल को न्याय का आधार बना रही है। यह कहानी है उस बनारस की, जो कभी तुलसी और कबीर की नगरी था, अब सोशल मीडिया की काली स्याही से रंगा जा रहा है। और जब करणी सेना जैसे संगठन बिना किसी वैधानिक जवाबदेही के ‘आहत भावनाओं’ के नाम पर उग्रता का प्रदर्शन करते हैं, तो प्रशासन की चुप्पी और सत्ता की चुप्पा सहमति, दोनों ही लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक संकेत हैं।

वाराणसी में हरीश मिश्रा को रविवार को करणी सेना से विवाद के बाद अस्पताल से छुट्टी मिलते ही जेल भेज दिया गया। मामला तब तूल पकड़ गया जब सपा सांसद रामजी लाल सुमन की एक ऐतिहासिक टिप्पणी के समर्थन में मिश्रा ने करणी सेना को ‘कुकर्मी सेना’ कह दिया और मां करणी के प्रति कथित रूप से आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग किया। इस बयान के बाद करणी सेना के सदस्य मिश्रा के वाराणसी स्थित आवास पर पहुंच गए, जहां दोनों पक्षों में मारपीट हो गई। इसमें मिश्रा समेत दो अन्य लोग घायल हुए। पुलिस ने दोनों पक्षों की शिकायत पर मामला दर्ज कर लिया।

जिस समय हरीश मिश्रा अस्पताल में भर्ती थे, तभी से राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई थी। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश सरकार की कानून-व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए घटना की तीखी आलोचना की। सोमवार को जब मिश्रा को अस्पताल से छुट्टी मिली, तो उन्हें सीधे हिरासत में लेकर जेल भेज दिया गया।

हरीश मिश्रा की राजनीतिक यात्रा कई उतार-चढ़ावों से होकर गुज़री है। काशी विद्यापीठ से भगत सिंह युवा मोर्चा के ज़रिए राजनीति की शुरुआत करने के बाद वे कांग्रेस सेवा दल में शामिल हुए, लेकिन गुटबाज़ी के चलते पार्टी से निकाले गए। इसके बाद उन्होंने शिवपाल यादव की पार्टी, फिर ओवैसी की एआईएमआईएम, और अंततः समाजवादी पार्टी का दामन थामा। वर्ष 2022 में उन्होंने कैंट विधानसभा सीट से चुनाव भी लड़ा था।

सोशल मीडिया पर उनका अंदाज़ आक्रामक और विवादों से भरा रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, संत रामभद्राचार्य और बाबा रामदेव जैसे सार्वजनिक व्यक्तित्वों पर विवादित टिप्पणियां करने के लिए वे पूर्व में भी चर्चा में रहे हैं। हाल ही में सोशल मीडिया पर उनकी बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए अखिलेश यादव ने उन्हें औपचारिक रूप से सपा में शामिल किया था।

‘बनारस वाले मिश्राजी’ की बढ़ीं मुश्किलें

वाराणसी की राजनीति में ‘बनारस वाले मिश्राजी’ के नाम से चर्चित समाजवादी पार्टी के नेता हरीश मिश्रा सोमवार को पुलिस निगरानी में मंडलीय अस्पताल से अदालत ले जाए गए, जहां से उन्हें न्यायिक अभिरक्षा में जेल भेजने का आदेश दिया गया। उन पर पहले हलकी धाराएं लगाई गईं और बाद में भारतीय दंड संहिता की गंभीर धारा हत्या के प्रयास की जोड़ दी गई। दूसरी ओर, हमलावरों के खिलाफ दर्ज की गई यही धारा रातो-रात हटा ली गई। इसी आधार पर राजनीतिक हलके में माना जा रहा है कि करणी सेना के लोगों को सत्ता की ओर से शह दिया जा रहा है।

यह घटनाक्रम शनिवार दोपहर उस समय आरंभ हुआ जब काशी विद्यापीठ रोड पर हरीश मिश्रा और उनके समर्थकों का सामना ‘मां करणी सेना’ से जुड़े कुछ लोगों से हो गया। कुछ ही देर में कहासुनी मारपीट में तब्दील हो गई और बनारस की सड़कों पर राजनीतिक संघर्ष की आहट सुनाई देने लगी। हरीश मिश्रा का आरोप है कि करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने उन पर चाकू से जानलेवा हमला किया, जबकि करणी सेना की ओर से दावा किया गया कि हमला पहले सपा समर्थकों की ओर से हुआ। दोनों पक्षों ने सिगरा थाने में एक-दूसरे के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराई है।

घटना के तुरंत बाद पुलिस ने अविनाश मिश्रा (निवासी पांडेयपुर) और स्वास्तिक उपाध्याय (निवासी चितईपुर) को हिरासत में लिया और तीनों को अस्पताल में भर्ती कराया गया। सोमवार को डॉक्टरों ने मिश्रा और स्वास्तिक को चिकित्सकीय रूप से फिट घोषित कर दिया, जिसके बाद सिगरा थानाध्यक्ष संजय कुमार मिश्र, काशी विद्यापीठ चौकी प्रभारी विकल शांडिल्य और उनकी टीम ने मिश्रा को अदालत में पेश किया।

मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर अब इस विवाद को केवल राजनीतिक झड़प न मानकर एक गंभीर आपराधिक घटना के रूप में देखा जा रहा है। मां करणी के उपासकों द्वारा प्रस्तुत चिकित्सकीय रिपोर्टों के आधार पर पुलिस ने हरीश मिश्रा पर हत्या के प्रयास की नई धारा जोड़ी गई, जिसे अदालत ने संज्ञान में लेते हुए उन्हें न्यायिक अभिरक्षा में जेल भेज दिया।

विवादित बयान बना हमले का कारण

समाजवादी पार्टी के नेता हरीश मिश्रा पर कथित हमले की जड़ में उनका एक विवादास्पद बयान बताया जा रहा है, जो उन्होंने कुछ दिन पूर्व करणी सेना को लेकर दिया था। आरोप है कि इसी बयान के बाद आक्रोशित हमलावरों ने प्रतिक्रिया स्वरूप हमला किया। हमलावर अविनाश मिश्रा और उनके साथी पांडेयपुर क्षेत्र के निवासी हैं, जो कथित रूप से मिश्रा से इस बयान पर चर्चा करने उनके आवास पहुंचे थे।

इस पूरे मामले पर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तीव्र प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने सोशल मीडिया मंच X पर लिखा, “समाजवादी पार्टी के जुझारू और प्रखर वक्ता ‘बनारस वाले मिश्राजी’ पर चाकू से किया गया क़ातिलाना हमला बेहद निंदनीय है। उनके रक्तरंजित वस्त्र उत्तर प्रदेश की ध्वस्त क़ानून-व्यवस्था का प्रतीक हैं। समाजवादी पार्टी का हर कार्यकर्ता ऐसे हमलों का सामना करने की क्षमता रखता है। अब देखना यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार अपनी निष्क्रियता से बाहर आती है या नहीं।”

हमलावर अविनाश मिश्रा ने पुलिस पूछताछ में सफाई देते हुए कहा कि वह किसी राजनीतिक दल या संगठन से जुड़े नहीं हैं। उन्होंने कहा, “हरीश मिश्रा ने मां करणी के बारे में विवादित बयान दिया था, जिन्हें मैं श्रद्धापूर्वक पूजता हूं। मैं अपने भाई के मामले में बातचीत करने उनके पास गया था, लेकिन पहले हमला दूसरी ओर से हुआ। इसके बाद हमने भी जवाब दिया।”

इस बीच काशी ज़ोन के एडीसीपी सरवणन टी ने बताया कि अब तक की जांच में करणी सेना की इस घटना में कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं दिखाई दे रही है।

पूर्ववर्ती बयान से उपजा आक्रोश

2 अप्रैल 2025 को राणा सांगा को लेकर दिए गए एक विवादित बयान के विरोध में करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने आगरा में उग्र प्रदर्शन किया था। उनका आक्रोश सपा सांसद रामजी लाल सुमन की उस टिप्पणी पर था जिसमें उन्होंने राणा सांगा को लेकर आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग किया। इसी पृष्ठभूमि में वाराणसी से एक बड़ी खबर सामने आई, जहां सपा नेता हरीश मिश्रा पर जानलेवा हमला हुआ। स्थानीय लोगों और मिश्रा की सतर्कता से हमलावर को मौके पर ही पकड़ लिया गया। पूछताछ में उसने बताया कि वह करणी माता पर दिए गए बयान से आहत था।

सिगरा थाना क्षेत्र के विद्यापीठ इलाके में हरीश मिश्रा के घर के बाहर ही यह हमला हुआ। स्थानीय लोगों ने हमलावर को पकड़कर पहले उसकी जमकर पिटाई की और फिर पुलिस को सौंप दिया। वायरल वीडियो में वह करणी माता को लेकर बयान पर नाराज़गी जताते देखा गया। वहीं, घायल सपा नेता का कहना है कि हमलावर करणी सेना से जुड़े थे और उनकी हत्या की मंशा से आए थे।

इस घटना ने वाराणसी की राजनीति में एक नई बहस को जन्म दिया है-क्या यह केवल एक व्यक्तिगत रंजिश थी या इसके पीछे कोई गहरी सियासी पृष्ठभूमि छिपी है? फिलहाल, ‘बनारस वाले मिश्राजी’ की छवि को गहरा आघात पहुंचा है और आने वाले दिनों में यह घटना समाजवादी पार्टी की स्थानीय राजनीति को प्रभावित कर सकती है।

समाजवादी पार्टी ने इस मुद्दे पर योगी सरकार पर एकतरफा कार्रवाई का आरोप लगाया है। पार्टी प्रवक्ता फखरूल हसन चांद ने कहा, “बीजेपी की राजनीति केवल हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण पर आधारित है। सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की भी अवहेलना कर रही है। समाजवादी पार्टी जल्द ही इस मुद्दे पर कोई ठोस कदम उठाने जा रही है। संभवतः हम अदालत का रुख करें, क्योंकि बीजेपी को संविधान में विश्वास नहीं है।”

एक संकेत है करणी सेना का उदय

2017 से पहले तक ‘करणी सेना’ नाम महज़ एक अनसुनी-सी पहचान था, जो शायद ही किसी राजनीतिक या सामाजिक विमर्श में स्थान रखता। लेकिन जब ‘पद्मावत’ फ़िल्म के विरोध में जयपुर की सड़कों पर मशालें जलीं, नारों की गर्जना हुई और दीपिका पादुकोण की नाक काटने जैसी घोषणाएं होने लगीं-तब भारत ने जाना कि करणी सेना कोई सामान्य संगठन नहीं, बल्कि इतिहास, अस्मिता और असंतोष का एक विस्फोटक संगम है।

इस संगठन का स्वरूप अब किसी राज्य की सीमा तक सीमित नहीं रहा। राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र से लेकर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश तक, यह उस जातीय शून्यता को भरने का प्रयास है जो बेरोज़गारी, राजनीतिक हाशियाकरण और ऐतिहासिक गौरव की छाया में पल रही है। राजपूत युवाओं के लिए यह संगठन ‘स्वाभिमान’ का झंडा है, भले ही उसके स्वर कभी-कभी अराजक प्रतीत हों।

करणी सेना की संरचना भी वैसी ही बिखरी हुई है, जैसी अस्मिता की राजनीति-तीन गुट, तीन दावे, तीन नेतृत्व। लोकेन्द्र सिंह कालवी, अजीत सिंह मामडोली और सुखदेव सिंह गोगामेड़ी की अगुआई में यह संगठन अब न्यायालयों के गलियारों में भी अपनी असली पहचान को लेकर लड़ रहा है। दिलचस्प यह है कि ये सभी नेता राजनीति और व्यवसाय के बीच कहीं टिके हुए हैं-कुछ माइनिंग में, कुछ रियल एस्टेट में, और कुछ पर आपराधिक मुकदमे भी दर्ज हैं।

लेकिन असल सवाल संगठन की ‘वैधता’ नहीं, बल्कि उसकी ‘वास्तविकता’ है। जब युवा सिनेमा हॉल फूंकने को गौरव का प्रतीक मानने लगें, तो यह चेतावनी है कि अस्मिता की राजनीति कैसे लोकतंत्र को भावनाओं के ज्वार में बहा सकती है। क्या करणी सेना युवाओं को सशक्त कर रही है या उन्हें एक ऐसे इतिहास से बांध रही है, जो भविष्य की आंखों पर पर्दा डाल देता है? करणी सेना एक प्रश्नचिह्न है-एक बेचैन समाज के उस हिस्से का, जिसे राजनीति ने कई बार ‘गौरव’ के नाम पर इस्तेमाल किया है। यह संगठन आज उस चौराहे पर खड़ा है जहां से दो रास्ते जाते हैं-एक ओर सामाजिक चेतना की दिशा, और दूसरी ओर राजनीतिक औजार बनने की नियति।

संघर्षों के साए में सत्ता का सच

जाने-माने पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस जब उत्तर प्रदेश की वर्तमान परिस्थितियों पर दृष्टि डालते हैं, तो उनका स्वर मात्र आलोचना का नहीं, एक गहरी चिंता का है-वह चिंता, जो लोकतंत्र की आत्मा पर मंडराते संकट को पहचानती है।

वे कहते हैं, “उत्तर प्रदेश में करणी सेना का जो अघोषित उभार हो रहा है, वह महज़ संयोग नहीं है। यह अपरोक्ष रूप से सरकार की उस रणनीति का हिस्सा प्रतीत होता है, जिसमें जातीय उभार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। विडंबना यह है कि जब कोई छोटा सामाजिक संगठन शांति की अपील करता है, तो तत्काल उस पर तमाम प्रशासनिक पहरे बिठा दिए जाते हैं। परंतु करणी सेना जैसे संगठन, जो उग्रता की भाषा में संवाद करते हैं, वे प्रदेश की सड़कों पर बिना रोक-टोक आंदोलन करते देखे जा सकते हैं। यह असमानता किसी संयोग की नहीं, सत्तात्मक संरक्षण की गवाही देती है।”

कलहंस आगे कहते हैं, “यदि इनका समर्थन सत्ता की छाया से नहीं होता, तो क्या यह संभव था कि ऐसे संगठन उन स्थानों पर भी उग्र प्रदर्शन कर पाते, जो ऐतिहासिक रूप से संवेदनशील रहे हैं? विशेष रूप से यह प्रश्न तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब प्रदेश की बागडोर एक राजपूत मुख्यमंत्री के हाथों में है। यह केवल एक जाति विशेष का गौरव नहीं, बल्कि सत्ता के भीतर पल रहे अंतर्विरोधों की झलक है-एक ऐसा संघर्ष, जिसमें भाजपा और संघ के भीतर भी विचारधारात्मक वर्चस्व की चुपचाप लड़ाई चल रही है।”

उनकी दृष्टि में यह सिर्फ उत्तर प्रदेश की बात नहीं है-बल्कि यह केंद्र और राज्यों के बीच के सत्ता-संघर्ष, और 2024 के बाद भाजपा के भविष्य को लेकर पनप रही आशंकाओं का प्रतिबिंब भी है। सिद्धार्थ कलहंस इस दृश्य को केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि लोकतंत्र की मूल भावना के विखंडन के रूप में देखते हैं।

वे चेतावनी देते हैं, “सरकार अब हर मोर्चे पर विफल साबित हो रही है। उसकी चिंता सिर्फ शासन की नहीं, बल्कि अपने ही भीतर के विश्वासघात और खींचतान की है। करणी सेना का यह अचानक उभार दरअसल सत्ता के भीतर की असुरक्षा और असंतुलन का परिणाम है। जब राजनीति अपनी जड़ों से कटने लगती है, तो वह जातीय समीकरणों की बैसाखियों पर खड़ी होकर चलने लगती है। लेकिन ऐसी यात्रा का अंत अक्सर गड्ढों में होता है। यूपी में सब कुछ ठीक नहीं है और जो दिख रहा है, वह केवल ऊपरी आवरण है। उसके नीचे सत्ता, जाति और विचारधाराओं की जटिल जंग जारी है, जिसकी आंच में लोकतंत्र की लौ मंद पड़ती जा रही है।”

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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