‘मेरी आवाज़ में है तू शामिल’: बेबाक ग़ज़ल, सच्ची नज़्में

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मेरे हाथ में जब ‘गुलमोहर किताब’ प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित कवि/शाइर/पत्रकार और जनवादी लेखक मुकुल सरल की ग़ज़लों और नज़्मों की किताब ‘मेरी आवाज़ में है तू शामिल’ आई तो किताब के उन्वान ने मुझे कुरेदा। भूमिका में मुकुल सरल ने जिस बेबाकी और सच्चाई से अपने आप को पेश किया है, ये उनके ईमानदार शाइर/लेखक होने का सबूत कहा जा सकता है।

भूमिका में जिन अपनों और अपने साथियों का ज़िक्र किया है, सभी बहुमुखी प्रतिभा के मालिक हैं, साथ ही मेरे हमनाम, हमख़्याल उस्ताद शाइर ओमप्रकाश ‘नदीम’ साहब का भी ज़िक्र किया है, जो वैचारिक स्तर पर मुकुल सरल के साथ खड़े नज़र आते हैं।

किसी की किताब की समीक्षा करना वैसे ही है जैसे तलवार की धार पर चलना। किसी ख़ास किताब पर कुछ कहना तब और ज़रूरी हो जाता है, जब उस किताब का शाइर/लेखक हमख़्याल हो। मुकुल सरल की किताब की पहली ग़ज़ल को पढ़ते ही उनके मिज़ाज और सोच की ऊंचाइयों का सहज पता चलता है। इसी ग़ज़ल का ये शेर उनकी संवेदनशीलता को उजागर करता है देखिए…

हर्गिज़ मैं न बाड़ लगाऊँ कांटों की

गौरैया के पर कटने का ख़तरा है

आज के दौर की हक़ीक़त बयान करता ये मतला भी देखिए…

ये कौन-सा निज़ाम है, ये कौन-सा नया नगर

कि रोज़ एक हादसा, कि रोज़ इक बुरी ख़बर

यूं तो मुकुल सरल की शाइरी ख़ूबसूरत अश्आर से भरी पड़ी है। सभी को कोट करना यहां संभव नहीं है। कुछ अश्आर मगर ऐसे भी हैं, जिनको कोट किए बिना मैं अपनी बात अधूरी समझूंगा।

मसलन-

आ गये हैं झोल कितने पैरहन में

सब उधेड़ो आपने जो भी बुना है

ये न सोचो तुम सहाफ़ी हो ‘सरल’

सच बताने पर यहां मिलती सज़ा है

तोड़ता रहता हूं नफ़रत की दीवारें हरदम

क्या बुरा है जो मेरा वक़्त चिनाई में गया

लफ़्ज़ ज़ख्मी हैं, परेशां हैं, बहुत हैरां हैं

ऐसे लफ़्ज़ों में बता प्यार जताऊं कैसे

ये हिन्दू है, ये मुस्लिम, सिख, ईसाई

ये क्यों फिर से बताया जा रहा है

अच्छे दिन का भरोसा तो महंगा पड़ा

अच्छे दिन में तो रोटी के लाले हुए

कोई भी इत्र, ख़ुशबू हो बदन महका नहीं सकते

मोहब्बत का ये जादू है कि पत्थर भी महकता है

अपनी मां और पिता से गहरे तक जुड़े होने पर हमें भी अपने साथ जोड़ लेते हैं देखिए……..

कौन कहता है खो गई है मां

थक के चुपचाप सो गई है मां

मैं जो हंसता हुआ यूं दिखता हूं

मेरे हिस्से का रो गई है मां

बहुत धुंधली-सी यादें हैं पिता की

वो उनका प्यार और बातें सज़ा की

उन्हीं के ज़ौक़ से हासिल हुई है

समझ कुछ शाइरी की कुछ कला की

मुकुल सरल ने ग़ज़लों के अलावा बेहतरीन नज़्मों के हवाले से भी आप सभी की पारखी नज़रों और नई सोच को जज़्ब करने की ख़ूबसूरत कोशिश की है। आज के इस मुश्किल दौर में, दौड़ती भागती ज़िन्दगी, अपने वजूद को तलाशता आज का नौजवान, मुहब्बत को नई दुनिया में नये सिरे से खोजता हुआ इन्सान, समाजी और सियासी दुनिया की कड़वी उधेड़ बुन, मज़हबी पाखंडों को ढोती आज की जनरेशन और आज के इस दौर के शाइर को आप इन नज़्मों के तेवर से बख़ूबी जान सकते हैं।

मुकुल सरल ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अहमद फ़राज़, साहिर लुधियानवी और जिगर मुरादाबादी की नज़्मों से प्रभावित होकर, जो नज़्में किताब में शामिल की हैं, वो बदलते दुनिया की पैरवी करती हुई नज़र आती हैं। ये नज़्में सरल के क्रान्तिकारी शाइर के क़द को और ऊंचा मक़ाम हासिल कराती हैं। मुकुल सरल की नज़्मों में नज़्म का तसलसुल बख़ूबी पूरे कहन में है, जो ग़ज़ल के साथ उनकी पूरी शाइरी में नये अंदाज़ के शाइराना करतब से हमें सोचने को मजबूर करता है।

आज की शाइरी इसी अंदाज़ की शाइरी हो तो शाइरी मालूम होती है, वरना शाइरी फिर काग़ज़ काले करने का सामान होकर रह जाती है। मुकुल सरल हमेशा लाजवाब शाइरी करने के लिए हम सभी के दिलों पर राज करते रहेंगे। अभी सरल से बहुत उम्मीदें हैं और उम्मीद करते हैं कि उनका ये शेरी सफ़र इसी रफ़्तार से आगे बढ़ता रहे।

(समीक्षा: ओमप्रकाश ‘नूर’; ओमप्रकाश ‘नूर’ राजस्व विभाग से सेवानिवृत्त और प्रतिष्ठित शाइर हैं, रुड़की में रहते हैं)

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