पत्रकार और पत्रकारिता की हत्या

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वर्ष 2025 की शुरुआत ही कुछ बुरी खबरों से हुई, 3 तारीख को खबर मिली कि पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या कर दी गई है, एक दिन बाद मजदूर नेता बच्चा सिंह के गिरफ्तार होने की खबर पढ़ने को मिली, तीसरे दिन सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, लेखक मनीष आजाद की गिरफ्तारी की खबर छपी जो कि 9  जून को जेल से बाहर आ गए।  

मुकेश चंद्राकर की हत्या

मुकेश चंद्राकर के गुमशुदगी पर बहुत सारे कयास लगाए जा रहे थे खासकर उनकी रिपोर्टिंग जैसी थी, संदेह था कि पुलिस प्रशासन द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया होगा, क्योंकि जैसी रिपोर्टिंग मुकेश चंद्राकर करते थे, उनके साथ पूरे देश में सबसे ज्यादा यही हो रहा है, पर सच ज्यादा ही कड़वा निकला।

हत्या, वह भी ठेकेदार द्वारा जिसके सड़क निर्माण के भ्रष्टाचार को मुकेश चंद्राकर ने उजागर किया था। यदि इस निर्मम हत्या के पीछे बस यही सच है तो सवाल यह है कि आखिर क्यों एक ठेकेदार की हिम्मत इस हद तक बढ़ गई कि इतने संवेदनशील मुद्दे पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार पर हमले करने से वह बाज न आया? 

मुकेश चंद्राकर की पत्रकारिता

सबसे पहले बात पत्रकार मुकेश चंद्राकर की पत्रकारिता पर करेंगे। मुकेश चंद्राकर जो बस्तर के पत्रकार थे, जिनका ‘बस्तर जंक्शन’ नाम का यू-ट्यूब चैनल चलता है। जिन्होंने बस्तर जंक्शन नहीं देखा है वे ज़रूर देखें ताकि आपको भी पता चले कि आखिर किस तरह के पत्रकारों को अपनी पत्रकारिता की कीमत चुकानी पड़ती है।

‘बस्तर जंक्शन’ की खबरें बस्तर से जुड़ी सबसे बड़ी समस्या को कवर करती है। छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड ऐसे राज्य हैं जहां के जंगलों पहाड़ों पर एक ऐसी जिंदगी बसती है जिनका हर रोज का जीवन ही संघर्ष है, यह घोषणा करना बड़ा आसान है कि देश का सबसे बड़ा खतरा कौन है पर इसे समझ पाना या समझने देना बहुत मुश्किल है कि आखिर क्यों, कैसे, किस तरह कोई सबसे बड़ा खतरा है, और इस खतरे की परिधि में किन-किन लोगों को पिसना पड़ रहा है। 

यह चैनल बिना किसी पक्षपात के उस सच्चाई की बस सच्ची तस्वीर दिखाने की कोशिश करता है।

‘बस्तर जंक्शन’ और सच की तस्वीर

‘बस्तर जंक्शन’  किसी के पक्ष की कोई बात नहीं करता। अगर कुछ वीडियो में दिखता है, तो दिखता है पुलिस और नक्सलियों के हमले-प्रति हमले के बीच ग्रामीणों की समस्या और उसके समाधान के लिए प्रयास के शांतिपूर्ण मानवतावादी तरीके।

इसके दो उदाहरण भी हैं एक सीआरपीएफ जवान की रिहाई और दूसरी इंजीनियर की रिहाई। रिहाई जन अदालत से जिसका वीडियो भी शूट किया गया है, जिसमें इंजीनियर यह कहते हुए आपको दिख जाएंगे कि कैसे वह ठेकेदार के भ्रष्टाचार का शिकार हुआ।  

इसके अलावा कई वीडियो दिखेंगे जो माओवादी इलाके के हैं, किसी ब्लास्ट में मरे बच्चे की खबर के साथ माओवादियों की आलोचना करते हुए, तो किसी वीडियो में माओवादी कैंप के अंदर उनके रहन-सहन की तस्वीर के साथ। 

पत्रकार मुकेश चंद्राकर माओवादियों के कैंप में जाकर जब वह वीडियो शूट कर रहे हैं तो कुछ सवाल के जवाब भी वे माओवादी सदस्यों से ले रहे हैं, शूट करते हुए मुकेश चंद्राकर के चेहरे पर मुस्कान है और कुछ माओवादी सदस्य भी हंसते हुए दिख रहे हैं। मुझे लगता है इन वीडियो में उन्होंने सच की तस्वीर दिखाने के अलावा अपनी सोच का कोई भी पुट इसमें नहीं डाला है। 

संवेदनशील इलाके की रिपोर्ट

सरकारी अभियान के अनुसार देश का सबसे बड़ा घोषित खतरा नक्सली संगठन भाकपा (माओवादी) है और जो छत्तीसगढ़ के बस्तर, अबूझमाड़, जैसे और झारखंड के पारसनाथ, बूढ़ा पहाड़, गिरिडीह, सिंहभूम, चाईबासा जैसी जगहों में छिपकर रहते हैं और हमले करते हैं।

जिन्हें खत्म करने के लिए सरकार नक्सल मुक्त अभियान चला रही है और आए दिन  इनकी सफलता के तौर पर हम कहीं मुठभेड़ और एनकाउंटर की खबर सुनते हैं या कहीं गिरफ्तारी की खबर देखते हैं।

पर जब मुकेश सरीखे जमीनी पत्रकारों की खबरों को पढ़ते हैं या देखते हैं तब मालूम चलता है कि इस युद्ध में वहां की आम जनता की जिंदगी कैसे तंग और तबाह है, और माफ कीजिए यह मेरी अपनी राय नहीं बल्कि खबरों से निकला सच है कि नक्सली होने, उनका समर्थक होने, के नाम पर ऐसे इलाकों की जनता पुलिस बलों द्वारा तंग और परेशान की जाती है।

नक्सली के नाम पर गिरफ्तार होने वाले कितने लोग हथियार बंद नक्सली होते हैं और कितनी आम जनता, इसका खुलासा कई बार ऐसे पत्रकारों की रिपोर्ट से हो जाता है। इनमें कई ऐसे लोग शामिल होते हैं, जिन्हें सरकार नक्सली कहती है और हकीकत में साधारण ग्रामीण होते हैं। 

एक सुंदर समाज के निर्माण के लिए जरूरी है कि सभी का विकास हो, गांव, कस्बे, शहर लेकिन विकास का मतलब सिर्फ इंफ्रास्ट्रक्चर खड़े करना नहीं होता। यहां के सड़क निर्माण में ठेकेदार के भ्रष्टाचार का सच यह बता देता है कि विकास की वास्तविक तस्वीर कैसी है? 

भारत के इन इलाकों में आए दिन हथियार लैस जवान घुसते हैं, गश्ती करते हैं, पर ऐसी कोई टीम गश्ती नहीं करती जो विकास के नाम पर भ्रष्टाचार करने वाले को पकड़ सके, पर यह काम पत्रकार करते हैं।

इतना ही नहीं पत्रकार जो माइक, कैमरा और कलम लेकर इन इलाकों में जाते हैं, और सरकारी अभियान और नक्सली इलाके की खबर को कवर करते हैं, कई बार उस भ्रष्टाचार को भी उजागर करते हैं जैसा मुकेश चंद्राकर ने किया और उसकी कीमत भी चुकाई। 

पर इस काम के लिए इन्हें सरकार नियुक्त नहीं करती न ही कोई सहयोग देती है बल्कि इस खतरनाक काम के लिए वे अपनी हिम्मत और मानवीय संवेदना के बल पर काम करते हैं, शायद इसलिए सरकार ऐसे पत्रकारों के काम से खुश होने की बजाय नाराज ही रहती है, शायद इससे सरकार द्वारा विकास के नाम पर दिए जाने वाले करोड़ों रुपये के ठेके की पोल खुलती है, जिसमें सरकारी अधिकारी भी संलिप्त रहते हैं और अपना-अपना हिस्सा चुपचाप डकारते हैं।  

यही वजह है कि जब कोई ऐसे संवेदनशील इलाके की रिपोर्टिंग करने वाला पत्रकार रिपोर्टिंग करता है तो वह खतरे से खेलकर करता है, और गुमशुदा हो जाए, तो लोगों के जेहन में सबसे पहला संदेह झूठे केस के साथ पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाने की बनती है। 

और यह महज भ्रम नहीं है क्योंकि पूरे देश में ऐसी गिरफ्तारी हो चुकी है और वर्तमान में झारखंड के पत्रकार रूपेश कुमार सिंह जो ऐसे ही संवेदनशील इलाके की जनता की स्थिति की रिपोर्टिंग करते आए हैं, चाहे वह जमीन की कारपोरेट लूट की खबर हो, मजदूरों की हालत से जुड़ी खबर हो चाहे नक्सली नाम पर मारे गए ग्रामीण की हो, दो सालों से जेल में बंद हैं।

पत्रकार की स्थिति

जो सामने है वह सच है मुकेश चंद्राकर की हत्या एक ठेकेदार ने की, जिसे सजा दिलाने की बात पुलिस कर रही है, मगर इसे अंजाम देने की शह आखिर उस ठेकेदार को कहां से मिली? कैसे वह एक ऐसे गंभीर मामले पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार की हत्या को अंजाम देने की हिम्मत कर सका।

क्यों इतनी निर्मम हत्या करते हुए कोई कानून का डर उसे नहीं डरा सका? इसका कारण ऐसे गंभीर मामलों में पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों की स्थिति है। और सरकारी अधिकारियों के साठ-गांठ के साथ भ्रष्टाचार को अंजाम देने की उनकी प्रवृत्ति है। उन्हें मालूम है कि वे सुरक्षित हैं। 

वास्तव में नक्सल प्रभावित इलाके की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की क्या स्थिति है। अगर देखा जाए तो झारखंड, बिहार या छत्तीसगढ़, उड़ीसा के पत्रकार सबसे अच्छे माध्यम हैं।

इस समस्या के समाधान के लिए जो संवाद कर सकते हैं, पुल बन सकते हैं नक्सलियों और सरकार के बीच, वे पत्रकार ही असुरक्षित हैं।

गोदी मीडिया जहां अपने घरों में सुरक्षित बैठकर चीख-चीख कर अनाप-शनाप बातें उगलती रहती है, सच की तह पर जाने वाले ये पत्रकार हर रोज़ असुरक्षित रहते हैं।

ये भी स्पष्ट है कि नक्सलियों के कैंप या उस इलाके के ग्रामीण क्षेत्रों में जाने-आने से उन्हें खतरा नहीं है, खतरा है तो भ्रष्टाचार में लिप्त ठेकेदारों से, उन सरकारी अधिकारियों से, जो उस भ्रष्टाचार के पार्टनर हैं और खुद उस सरकारी महकमे से जो इस भ्रष्टाचार पर चुप्पी साधे होता है और किसी भी समय पुलिस प्रशासन द्वारा उसे गिरफ्तार करा सकता है। 

आपको याद दिला दें पत्रकार रूपेश कुमार सिंह ने गिरफ्तारी के चार दिनों पहले गिरीडीह जिले के औद्योगिक प्रदूषण और उससे होने वाली बीमारियों से जूझ रहे ग्रामीणों के सच को उजागर किया था, जहां उद्योग जगत पर बड़ा सवाल उठा था, जो काफी प्रकाश में आया था।

साथ ही 12 वर्ष की बच्ची का चेहरा उस प्रदूषण के प्रभाव से किस प्रकार विरूप हो गया था उसे भी पूरी दुनिया ने देखा था, उस बच्ची के इलाज के लिए भी पत्रकार रूपेश कुमार सिंह प्रयास में जुटे थे, और उन्हें अच्छा सपोर्ट भी मिल रहा था, पर वे अलग बहाने से गिरफ्तार कर लिये गये।

मुकेश चंद्राकर पक्ष-विपक्ष को दरकिनार कर सच को दिखा रहे थे, जो खुद ही सही और गलत की गवाह बन जाता है, और ऐसे सच सत्ता को कभी रास नहीं आते।

नक्सली विकास विरोधी हैं। मुकेश चंद्राकर नक्सली एरिया की रिपोर्टिंग करते थे। सरकार विकास चाहती है। सड़क विकास का प्रतीक है। बस्तर में विकास की गंगा बही।

ठेकेदार ने सड़क का टेंडर लिया। काम होने से पहले…घटिया काम पर उसका पेमेंट सरकारी अधिकारियों द्वारा उसे कर दिया गया क्यों? जो सड़कें बनीं, वह इतनी घटिया क्वालिटी की थीं जो खुद भ्रष्टाचार को बयां करती हैं।

पर इस सच्चाई को सरकारी अधिकारी ने नहीं बल्कि पत्रकार ने उजागर किया। चूंकि ठेकेदार भी जानता है कि ऐसे पत्रकार को कितनी सुरक्षा प्रदान है, इसलिए हत्या जैसी प्लानिंग में उसे किसी का डर न था।  

अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगी कि जो हो चुका उसे हम बदल नहीं सकते, पत्रकार मुकेश चंद्राकर को खोकर हमने एक बहुत संवेदनशील इंसान को खोया है।

मुकेश चंद्राकर के न रहने से हम कई वीडियो और खबरें भी खो चुके हैं जो ‘बस्तर जंक्शन’ या अन्य माध्यम से हमें देखने को मिलते, जिसमें बस्तर की कोई गहरी सच्चाई छुपी होती, पर हमें इस शहादत को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए।

यह अच्छी बात है, कि शहीद हो चुके मुकेश चंद्राकर के लिए दिल्ली में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में पत्रकारों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस किया है। संवेदनशील इलाके के ऐसे जुझारू पर असुरक्षित पत्रकारों की सुरक्षा की गारंटी के लिए ज़रूर लड़ना चाहिए और तब तक लड़ना होगा जब तक वह हासिल न हो जाए। 

(इलिका प्रिय स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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