सवालों से डरने वाली सरकार ने बंद की ‘संसद की जुबान’

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सिर्फ प्रश्नकाल ही क्यों हो क्वारंटीन? शून्यकाल को क्यों बख्श दिया जाए? दोनों पीठिया हैं। पीठिया मतलब संसद की दो संतानें जो एक के बाद एक हों। प्रश्नकाल के तुरंत बाद शून्यकाल आता है। प्रश्न काल के साथ बेटी जैसा सुलूक! शून्यकाल के साथ बेटे जैसा! यह भेदभाव है।

प्रश्नकाल सत्ता के लिए संसद के तीखे सवालों का जायका होता है, जो लोकतंत्र के लिए जरूरी है। सांसदों के पास सवाल करने का हक होता है प्रश्नकाल। इस हक को खत्म करने से लोकतंत्र की विधायी प्रक्रिया ही कमजोर पड़ जाती है। सरकार काम करे और विपक्ष सवाल न करे! फिर संसद की आवश्यकता क्यों है? क्या कोरोना काल में संसद की आवश्यकता खत्म हो गई है? अगर ऐसा है तो मॉनसून सत्र की भी आवश्कता नहीं दिखती, क्योंकि काम तो अध्यादेश से भी चल जाता है।

फैसला स्पीकर ने लिया है। मानना ही पड़ेगा। कोई विकल्प नहीं है। मगर, संवैधानिक व्यवस्था के तहत भी सरकार की सहमति से ही सत्र आगे बढ़ता है। मॉनसून सत्र अपने नाम के अनुरूप संसद की मौसमी परंपरा रही है। सो, मॉनसून सत्र होना ही था और उसमें सरकार को कई एक कामकाज भी निपटाने हैं।

1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान विशेष सत्र में यह फैसला लिया गया था कि प्रश्नकाल न हों। अगर उस परिस्थिति से भी वर्तमान हालात की तुलना की जाए तो वह फैसला सर्वदलीय बैठक में लिया गया था। नयी सदी में ऐसे फैसलों के लिए सर्वदलीय बैठक की परंपरा भी छोड़ दी गई है।

संसद सत्र की शुरुआत ही प्रश्न से होती रही है। प्रश्न पूछने की तैयारी की जाती है। पूर्वानुमति ली जाती है। 10 दिन पहले प्रश्न भेज दिए जाते हैं। उनमें भी छंटनी होती है। फिर सत्ताधारी दल उन प्रश्नों के जवाब तैयार करते हैं। ये प्रश्न दो तरह के होते हैं- एक तारांकित, दूसरा अतारांकित। तारांकित प्रश्न के उत्तर मौखिक दिए जाते हैं। जवाब के बाद भी दो प्रश्न पूछने की अनुमति रहती है। अतारांकित प्रश्न के जवाब लिखित दिए जाते हैं, मगर पूरक प्रश्न नहीं पूछे जाते।

आप समझ सकते हैं कि संसद का श्रृंगार होता है, तो विपक्ष का हथियार होता है प्रश्नकाल। संसद 11 बजे शुरू होती है और प्रश्नकाल भी ठीक उसी समय से शुरू हो जाता है। कोविड काल में प्रश्नकाल का श्रृंगार छोड़ने का फैसला संसद ने लिया है? गलत। संसद ने यह फैसला लिया होता, तो उतनी हायतौबा नहीं मचती। यह फैसला सत्ताधारी दल की सरकार ने लिया है। जबकि, ऐसे फैसलों का आधार ही आम सहमति होनी चाहिए।

प्रश्नकाल के बाद आता है शून्यकाल। यह मध्यान्ह 12 बजे से एक बजे तक होता है। इसमें मौखिक सवाल-जवाब होते हैं। लिखित में न प्रश्न होते हैं, न उत्तर। कह सकते हैं कि शून्यकाल थोड़ा कम जिम्मेदार होता है। ठीक वैसे ही जैसे दो संतानों के स्वभाव अक्सर अलग-अलग होते हैं।

प्रश्नकाल को उसके गंभीर होने की सज़ा मिली है। उछल-उछलकर सरकार के सामने सवाल बनकर पेश होने के लिए उसे ‘दंडित’ किया गया है। पूरे सत्र के दौरान प्रश्नकाल क्वारंटीन रहेगा। ऐसा क्यों? जब सत्र खत्म हो जाएगा तो क्वारंटीन खत्म होने का क्या मतलब रह जाएगा?

शून्यकाल को क्या कोरोना फैलाने की छूट दे दी गई है? सत्ता पक्ष जो चाहे जवाब दे, विपक्ष जो चाहे पूछती रहे! विपक्ष पूछ सकती है कि महबूबा मुफ्ती अब तक नजरबंद क्यों हैं? जवाब मिल सकता है प्रश्न के रूप में कि क्या महबूबा नज़रबंद हैं? गृहमंत्री कह सकते हैं कि फारूख अब्दुल्ला स्वतंत्र हैं संसद में आने के लिए, मगर उन्हें वे पिस्तौल की नोक पर तो सदन में नहीं ला सकते। अब आप संसद के बाहर समझते रहें कि सच क्या है।

आखिर यह फैसला लिया ही क्यों गया? प्रश्नकाल खत्म कर देने से कोरोना का ख़तरा कम हो जाता है? सुबह नौ से दो बजे तक लोकसभा चलेगी और तीन बजे से सात बजे तक राज्यसभा। इस दौरान कोरोना का खतरा नहीं होगा और प्रश्नकाल होने से कोरोना का खतरा बढ़ जाएगा?

कोरोना को लेकर यही चिंता उन 26 लाख स्टूडेंट्स के लिए क्यों नहीं दिखती, जिन्हें घर से सैकड़ों मील दूर प्रतियोगिता परीक्षा देने के लिए विवश कर दिया गया है। बहरहाल, ऐसे सवाल तो भरे पड़े हैं मगर पूछने का माहौल कहां है। कोरोना जो है!

(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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