आज ही के दिन 22 सितम्बर 2020 में भारत सरकार ने देश की संसद से तीन लेबर कोडों को पारित किया था। देशभर के ट्रेड यूनियन्स ने कल इसके विरोध में काला दिवस का आयोजन किया है। इन लेबर कोडों में एक व्यवसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा संहिता 2020 है।
इस संहिता में लंबे संघर्षों द्वारा बने फैक्ट्री एक्ट 1948, कॉन्ट्रैक्ट लेबर (रेगुलेशन एंड एबोलिशन) एक्ट 1970, बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर (रेगुलेशन ऑफ एंप्लॉयमेंट एंड कंडीशन ऑफ सर्विस) एक्ट 1996, सेल्स प्रमोशन इंप्लाइज (कंडीशन ऑफ सर्विस) एक्ट, इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कर (रेगुलेशन ऑफ एंप्लॉयमेंट) एक्ट, मोटर ट्रांसपोर्ट वर्कर्स एक्ट, कीन वर्कर्स एंड सिनेमा थिएटर वर्कर्स (रेगुलेशन ऑफ एंप्लॉयमेंट) एक्ट, प्लांटेशन लेबर एक्ट 1951, बीडी एंड सिगार वर्कर्स (कंडीशन ऑफ एंप्लॉयमेंट) एक्ट 1966, डॉक वर्कर सेफ्टी हेल्थ एंड वेलफेयर एक्ट जैसे 13 कानूनों को खत्म करके बनाया गया है।
इस संहिता का अगर आप अवलोकन करेंगे तो आप पाएंगे कि ‘एप्रोपरिएट गवर्नमेंट’ के नाम पर जगह-जगह इस संहिता में सरकार को मनमाने अधिकार दिए गए हैं।
असंगठित मजदूरों के जो विभिन्न क्षेत्र हैं, जैसे कंस्ट्रक्शन, माइग्रेंट वर्कर, कांटेक्ट वर्कर, बीड़ी और सिगार वर्कर, मोटर ट्रांसपोर्ट वर्कर, सेल्स वर्कर, वर्किंग जर्नलिस्ट, खान वर्कर, सिनेमा कर्मी आदि के लिए कार्य दशाएं और उनके अलग-अलग क्षेत्र में काम करने की विशेषता के अनुसार कानून बनाए गए थे।
जिन्हें ‘वन मॉडल फिट्स टू आल’ में डालकर खत्म कर दिया गया है। यह उसी तरह है जैसे जूते के हिसाब से पैर को ठीक करना है।
इस कोड की सबसे बड़ी बात जो है वह लंबे संघर्षों के बाद हासिल 8 घंटे काम के अधिकार को छीन लेना। हालांकि कोड की धारा 25 (1) (ब) में काम के घंटे 8 रखे गए हैं, लेकिन उसके बाद के सेक्शन में समुचित सरकार (एप्रुपरिएट गवर्नमेंट) के नाम से सरकार को काम के घंटे बढ़ाने की छूट दे दी गई है।
परिणामतः सरकार ने इस कोड़ के जो नियम बनाए हैं। उसमें नियम 28 में काम के घंटे 12 घंटे कर दिए हैं। यहां तक की बहुत सारी फैक्ट्रियों में 12 घंटे से ज्यादा भी काम करने की बात की गई है। गौरतलब है कि काम के घंटे 8 का अधिकार मजदूरों ने दो सौ सालों के अपने संघर्ष के जरिए हासिल किया है।
1810 में पहली बार दुनिया स्काटलैंड के राबर्ट ओवन ने इस मांग की शुरूआत की थी और 1817 में ‘8 काम के घंटे, 8 मनोरंजन, 8 घंटे आराम’ का नारा दिया। 1889 में शिकागो में यह लड़ाई लड़ी गई और 1919 में हुए इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन के प्रथम सम्मेलन में इसका प्रस्ताव पारित हुआ, जिसमें भारत भी हस्ताक्षर कर्ता है।
सभी जानते हैं कि देश के संसद भवन, राष्ट्रपति भवन से लेकर आज उद्योगों, विभागों में काम करने वाले मजदूर, कर्मचारियों में पिछले 30 सालों से बड़ी संख्या में ठेका/संविदा/आउटसोर्सिंग से मजदूरों की नियुक्ति की गई है। जिन्हें बेहद कम मजदूरी पर काम कराया जाता है और इनकी सामाजिक सुरक्षा का भी इंतजाम नहीं रहता है।
कॉन्ट्रैक्ट लेबर रेगुलेशन एंड इवोल्यूशन एक्ट 1970 के अनुसार 20 से ज्यादा काम करने वाले ठेका मजदूरों के ठेकेदारों/ कार्यदायी एजेन्सियों को अपना पंजीकरण श्रम विभाग में अनिवार्य रूप से करना होता है। इस संहिता में यह संख्या 50 कर दी गई है, यानी 50 से कम मजदूर रखने वाले ठेकेदारों को अपना रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी नहीं है।
स्पष्ट तौर पर यह ठेकेदारों के मनमानापन करने की छूट है। होगा यह कि ठेकेदार 50 से कम मजदूर रखकर काम करायेंगे और उनके मजदूर इस कोड़ के दायरे से ही बाहर हो जायेंगे। कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट का सेक्शन 10 में स्थायी कामों में ठेका प्रथा को प्रतिबंधित करता है।
इस संहिता में इसको खत्म कर दिया गया है। कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट वेतन भुगतान से लेकर सामाजिक सुरक्षा व कार्यदशाओं की सुविधा प्रदान करने में प्रधान नियोक्ता के दायित्व को सुनिश्चित करता है। नई संहिता में इसको बेहद ही कमजोर कर दिया गया है।
कांटेक्ट लेबर एक्ट के नियमों के अनुसार समान काम के समान वेतन की बात कही गई है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी तमाम निर्णय दिए हैं। हाल ही में पंजाब और हरियाणा के बिजली क्षेत्र के संविदा मजदूरों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने समान काम के समान वेतन के सिद्धांत को माना है और उन मजदूरों को उसके अनुरूप वेतन देने का आदेश दिया गया है। नई संहिता में इसको भी खत्म कर दिया गया है।
इस कोड़ की जो सबसे खतरनाक बात है कि इसमें 20 से ज्यादा मजदूरों वाले बिजली से चलने वाले कारखाने और 40 से ज्यादा मजदूरों वाले बिजली से नहीं चलने वाले कारखाने ही आयेंगे।
अगर हम देखें तो ओईसीडी जनरल की इकोनामिक स्टडी के सर्वे के अनुसार भारत वर्ष में 87 प्रतिशत उत्पादन फर्म माइक्रो है, जिनमें 10 से कम श्रमिक काम करते हैं। यह देश के कुल उत्पादन का एक बटा तीन हिस्सा देती है।
छठे आर्थिक सेंसेक्स की गणना (जनवरी 2013 से लेकर 2014) के अनुसार एक करोड़ तीन लाख औद्योगिक प्रतिष्ठानों में 89.61 लाख औद्योगिक प्रतिष्ठान इसमें आते हैं। 3.04 करोड़ औद्योगिक मजदूरों में से 2.7 करोड़ मजदूर इस प्रक्रिया में इस ओएसडी कोड से बाहर हो जाएंगे।
कोरोना काल में प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा का पूरा देश गवाह बना था और सुप्रीम कोर्ट तक को संज्ञान में लेकर विभिन्न आदेश देने पड़े थे। इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स एक्ट 1979 में कार्यदाता एजेन्सी या नियोक्ता को मजदूरों का पंजीकरण, रजिस्टर और रिकार्ड रखना तथा आने जाने का किराया देना सुनिश्चित किया गया है।
अब नई संहिता में कहा गया है कि आने-जाने का किराया तभी मजदूरों को मिलेगा, जब वह 180 दिन अपने मालिक के अधीन काम करेंगे। प्रवासी मजदूरों को भी ठेका मजदूरों की श्रेणी में डालकर उनकी विशिष्ट स्थिति के कारण जो अधिकार मिले थे उन्हें छीन लिया गया है।
इस तरह 50 से कम मजदूर ले जाने वाले ठेकेदारों या मालिकों को भी अब लेबर लाइसेंस लेने से छूट मिल जायेंगी और वह मजदूरों का रिकार्ड रखने से भी मुक्त हो जायेंगे।
इस कानून की धारा 26 ए के अनुसार किसी भी मजदूर को एक सप्ताह में 6 दिन से ज्यादा काम न करने की बात कही गई है। लेकिन इसके बाद के सेक्शन में सरकार को यह अधिकार दे दिए गए हैं कि वह इसमें छूट भी प्रदान कर सकती है। जो अभी तक लेबर डिपार्टमेंट का सबसे बड़ा काम था लेबर कानून को लागू कराना।
अब इस कोड के अनुसार जो इंस्पेक्शन का काम था, उसे बंद करके लेबर डिपार्टमेंट को फैसिलिटेटर बना दिया गया है। साफ हैं कि फैसिलिटेटर मालिकों के पक्ष में काम करेगा इसके अलावा उसकी कोई भूमिका नहीं रह जायेगी।
बंगाल की महिला डॉक्टर की हत्या और बलात्कार के खिलाफ पूरा देश आंदोलनरत रहा है। इसमें सबने देखा कि वह डॉक्टर रात दिन अस्पताल में काम कर रही थी और उसके ऊपर कार्यस्थल पर ही हमला हुआ। इसके बाद देशभर में महिलाओं के रात्रिपाली में काम न कराने की मांग भी उठी है।
लेकिन आप नए कोड में महिला मजदूरों को उनकी सहमति से रात्रि पाली में भी काम करने की छूट प्रदान की गई है। जो उनके ऊपर आने वाले समय में और हिंसक हमलों को बढ़ायेगा।
नेशनल ऑक्यूपेशनल सेफ्टी एंड हेल्थ एडवाइजरी बोर्ड में ‘एमिनेंट पर्सन’ के नाम पर सरकार के कई एजेंट को रखा जायेगा। 500 से ज्यादा मजदूर जहां होंगे वहीं पर सेफ्टी कमेटी बनाई जाएगी।
90 प्रतिशत फैक्ट्री ऐसी है जहां 500 से कम मजदूर काम करते हैं। इसी तरह से ढाई सौ मजदूर से ज्यादा जहां काम करते हैं वहां वेलफेयर अफसर होंगे। जहां 100 से ज्यादा मजदूर काम करते हैं वहां कैंटीन होगी। जहां 50 से ज्यादा मजदूर काम करते हैं, बच्चों की देखभाल के लिए पालना गृह, लंच रूम और रेस्ट रूम बनाया जाएगा।
इस तरह से बहुत सारी सुविधाएं जो मजदूरों को अभी हासिल हैं, उनको भी छीन लेने का प्रयास इस कोड में किया गया है। इन कोडों में नए पैदा हुए प्लेटफार्म और गिग वर्कर्स की सामाजिक सुरक्षा, कार्य दशांए निश्चित करने के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। इसी तरह स्कीम वर्कर्स आंगनबाड़ी, आशा, मिड-डे-मील रसोइया आदि के सम्बंध में भी यह कोड मौन है।
कुल मिलाकर कहा जाए तो ‘इज ऑफ डूइंग बिजनेस’ के नाम पर यह आधुनिक गुलामी की जो नीतियां लेबर कोडों के जरिए सरकार लाई है, उसे रोकने के लिए मजदूर वर्ग को आगे आना होगा। दुनिया भर में श्रम की लूट के इस रास्ते का पुरजोर विरोध हो रहा है।
रोजगार व सामाजिक सुरक्षा पर चले आंदोलनों ने तमाम देशों में सत्ता परिवर्तन तक कर दिया है। भारतवर्ष में भी असमानता बड़े पैमाने पर बढ़ रही है। देश की सम्पत्ति और आय कुछ एक घरानों के हाथों में केन्द्रित होती जा रही है। आम मेहनतकश किसी तरह अपनी जीविका चलाने के लिए मजबूर होता जा रहा है।
ऐसे में आने वाले समय में अपने अधिकारों की रक्षा के साथ-साथ संसाधनों पर अधिकार के लिए देश में बड़ी जागृति आयेगी।
(दिनकर कपूर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट उत्तर प्रदेश के महामंत्री हैं।)
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