पहलगाम हमला : त्रासदी को और त्रासद बनाती सोशल मीडिया की टिप्पणियां

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उन नर पिशाचों का, जिन्होंने धर्म पूछकर गोली मारी, कोई बचाव तो कर नहीं रहा है, फिर अनावश्यक टिप्पणियां क्यों? अगर वे धर्म पूछकर नहीं भी मारते तो भी कौन सा वे आदर्श की श्रेणी में आ जाते। पहलगाम की त्रासदी ने पूरी मानवता को शर्मसार किया है। 

अगर मारने वाले जेहादी आतंकवादी थे, तो बचाने वाले भी तो वहां के मुसलमान ही थे। इस घटना के चश्मदीद गवाहों ने यह भी बताया कि लोग कह रहे थे कि इनको न मारो ये हमारे मेहमान हैं। कुछ बचाने में मारे भी गए। ये भी तो सोचिए कि सरकारी सहायता के अभाव में उन पर्यटकों को वहां से निकालने वाले कौन थे। वे भी तो मुसलमान ही थे न! अगर वह सच है तो यह भी तो सच है। घटना में हिंदू भी मरे हैं और मुसलमान भी। कम ज्यादा हो सकते हैं, लेकिन जिन लोगों ने अपनों को खोया है उनका दर्द तो एक जैसा ही है। ऐसे समय जब दिवंगत लोगों के परिवारीजन इस पहाड़ जैसे दुख से टूट गए हों, हमें उनका ख्याल करना चाहिए। उस पत्नी और मां-बाप क्या गुजर रही होगी, महसूस किया जा सकता है। हम इस तरफ ध्यान न देकर हल्की टिप्पणियों से बाज नहीं आ रहे हैं। 

ये जघन्य घटना पूरी मानवता के लिए त्रासदी है। जिन्हें हर बात में मुसलमान एक वजह लगते हैं, वे अपनी नफ़रत उस समय क्यों नहीं व्यक्त करते जब पार्टी के ही नेता सौगात-ए-मोदी बांटते हैं। अगर यही काम दूसरी पार्टी करे तो तुष्टिकरण और ये करें तो कल्याणार्थ। जाहिर है जैसे संकेत होंगे, वैसा ही करेंगे। वैसे मुगल वंश को गाली दो, लेकिन जब खुद प्रधानमंत्री अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की कब्र पर फूल चढ़ाएं तो ठीक है। 

शातिर लोग नरेटिव गढ़ देते हैं और अंधे लोग उसका जयकारा लगाते रहते हैं।

पूरे कश्मीर में इस घटना को लेकर प्रदर्शन हुए। पूरा कश्मीर बंद रहा। सभी पार्टियों के नेताओं ने इस जघन्य कांड की भर्त्सना की है। ऐसे संवेदनशील मौकों पर हमें सावधानी से टिप्पणियां करनी चाहिए। जब हमले की पूरी जिम्मेदारी लश्कर नाम के संगठन ने ली है, तो जाहिर है वे हर पैंतरा अपनाएंगे, जो भारत की एकता को खंडित करे। आतंकवादी संगठन और पाकिस्तान तो चाहेगा ही कि भारत में धार्मिक विभाजन बढ़े।

हमें सोचना यह है कि हम क्यों उनके बनाए जाल में फंसे। हम पूरी कश्मीर की आवाज को अनसुना करके सिर्फ जेहादियों की आवाज में क्यों उलझे हैं? क्या हम भूल गए कि अभी कुंभ में हुई भगदड़ के दौरान मुस्लिम भाइयों ने वहां मस्जिदों और मदरसों के द्वार पीड़ितों के लिए खोल दिए थे। सौहार्द के इन अध्यायों को भी याद करने की जरूरत है। 

पर इधर एक खास वर्ग हिंदू मुसलमान को ही मुख्य मुद्दा बनाए हुए है, जबकि सरकार से ये कोई नहीं पूछ रहा कि आखिर ये आतंकवादी कैसे इतनी बड़ी घटना को अंजाम दे गए? आखिर लापरवाही कहां रही? क्या उस जगह सुरक्षा के पुख़्ता इंतजाम थे? पुलवामा की घटना के बाद हमने क्या सीखा? 

क्या सरकार से कुछ भी पूछना गुनाह है? जबकि पूर्व में आज के ही सत्ताधारी सरकार से खुलकर सवाल पूछते थे। आखिर यह क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि वहां सिक्योरिटी का इंतजाम क्यों नहीं था? क्या मैन पॉवर में कमी तो नहीं आई? आखिर अग्निवीर व्यवस्था की जरूरत क्या थी, जबकि कई सैन्य विशेषज्ञों ने इस व्यवस्था को उचित नहीं बताया। 

क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि इस त्रासदी के बाद असमय वापसी कर रहे पर्यटकों के लिए विमान कंपनियों द्वारा हवाई किराया क्यों बढ़ा दिया गया? क्या इन कंपनियों पर कोई कार्यवाही नहीं बनती थी? क्या इस मामले में सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती थी? क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि आपदा को अवसर बना देने वालों पर सरकार ने क्या कार्यवाही की?

क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि ऐसी त्रासदी में भी ऐसी कौन सी विवशता आन पड़ी कि सर्वदलीय बैठक की जगह आपने चुनावी सभा को संबोधित करना चुना? क्या यह असंवेदनशीलता नहीं है? पुलवामा की घटना को आधार बनाकर मांगे गए वोट भी इसी तरह की घोर असंवेदनशीलता और बेशर्मी को दर्शाते हैं? किसी ने इतनी बड़ी घटना के बाद इस्तीफ़े की पेशकश की क्या?

चलो इतना ही ठीक है कि सरकार ने कम से कम अपनी चूक तो मानी। पूरा देश सरकार के साथ खड़ा है। पर यह तो ठीक नहीं कि आप ऐसे मौकों पर सर्वदलीय बैठक में न रहकर चुनावी सभा करते घूमे। 

खैर बात उन जुमलों की जो सोशल मीडिया पर तैर रहे हैं और अपने पक्ष में घटिया दलीलों को दे रहे हैं। एक जुमला यह कि हम दुकानदार का नाम पूछ लें तो सांप्रदायिक और वे धर्म पूछकर गोली मार दें तो भी ठीक। भाई कौन उन आतताइयों का समर्थन कर रहा है। क्या आप एक जिम्मेदार सरकार को आतंकवादियों की घटिया सोच के स्तर पर लाना चाहते हो।

 क्या दोनों को एक धरातल पर रखकर आप सरकार की गरिमा को कम नहीं कर रहे हैं? 

सरकार की सोच और आतंकवादियों की सोच एक जैसी कतई नहीं हो सकती। धर्म के आधार पर बुलडोजर की कार्यवाही क्या उचित थी? मॉबलिंचिंग क्या है? कहने का मतलब सिर्फ इतना कि धर्म और जाति के आधार पर हत्याएं जुगुप्सादायक हैं, फिर चाहे जो उनसे प्रभावित हो।

आतंकवादी तो आतंकवादी हैं, वे तो मानवता के ही हत्यारे हैं। क्या हत्यारों से भी नैतिकता की अपेक्षा की जाती है। उनका बढ़िया इलाज तो हमारी सेना करती है? लेकिन इसका ये तो मतलब नहीं कि हम पाकिस्तान या बांग्लादेश जैसे बन जाएं। अगर बांग्लादेश में हिन्दुओं के साथ गलत हुआ तो हमारी सरकार ने उनसे बातचीत करके उनका क्या हल निकाला? अगर हम छोटे मुल्कों में भी अपनी सही बात नहीं मनवा पाते तो काहे का विश्व में डंका!  

हमारे यहां ऐसी घटना न हो इसके लिए हम अपनी कमियों पर मंथन करें और अपनी सेना को मजबूत बनाएं ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। हम इतने मजबूत बने कि धर्म के नाम पर की जाने वाली हत्याओं का मुंहतोड़ जवाब दे सके। आतंकवादियों को सिर्फ मौत मिले।

(संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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