आदिवासियों की हत्याएं करने के बाद अर्धसैनिक बलों के जवान नाचते हैं: सोनी सोरी

Estimated read time 1 min read

(बस्तर में आजकल जनसंहार चल रहा है। वहां नक्सलियों के नाम पर अर्ध सैनिक बलों द्वारा बड़े पैमाने पर आदिवासियों की हत्याएं की जा रही हैं। और इसके पीछे मुख्य मकसद है आदिवासियों की जमीन पर कैसे कॉरपोरेट को कब्जा दिलाया जाए। यह कहना है आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी का। उनसे नारीवादी एक्टिविस्ट और कवियत्री-लेखिका कंडासामी ने बातचीत की। फ्रंटलाइन में प्रकाशित इस साक्षात्कार को साभार लेकर यहां दिया जा रहा है-संपादक)

मीना कंडासामी: मेरा पहला सवाल कार्यकर्ताओं की बढ़ती गिरफ्तारी को लेकर है। मूलवासी बचाओ मंच (एमबीएम) के पूर्व प्रमुख रघु मिडियामी को गिरफ्तार कर लिया गया है। पिछले साल, कार्यकर्ता नेता सुनीता पोत्तम को गिरफ्तार किया गया था। छत्तीसगढ़ सरकार ने नवंबर 2024 में एमबीएम पर प्रतिबंध लगा दिया। आप इस दमन को कैसे देखती हैं?

सोनी सोरी: हर दिन पांच से दस आदिवासियों को गिरफ्तार किया जाता है; फर्जी मुठभेड़ की जाती हैं। इसका मुख्य उद्देश्य आदिवासियों का अस्तित्व खत्म करना है। जो भी बस्तर में संघर्ष करता है, चाहे वह एमबीएम हो, सोनी सोरी हो या हिड़मे मरकाम-उन्हें नक्सली करार देकर कुचल दिया जाता है। यही सुनीता के साथ भी किया गया।

सुनीता का पैतृक स्थान, बीजापुर जिले का गंगालूर (वह पोसनार से हैं), खनन के लिए चिह्नित पहाड़ियों से भरा हुआ है। यदि केंद्र और राज्य सरकारों को खनन करना है, तो वे अपने लक्ष्यों को पाने के लिए किसे निशाना बनाएंगी? वहां रहने वाले-आदिवासियों को। अगर जमीन खाली करानी है, तो आदिवासियों को खत्म करना होगा। और अगर आदिवासियों को मिटाना है, तो उनके नेताओं को प्रतिबंधों और गिरफ्तारियों के जरिए निशाना बनाना होगा।

अर्धसैनिक बलों के जवान। 17 जनवरी, 25 को बीजापुर जिले में हुए नक्सली एनकाउंटर के बाद की फोटो।

यह सब सरकार की एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य आदिवासियों को जंगलों से हटाकर खनिज संपदा से भरपूर पहाड़ियों को बड़े पूंजीपतियों को सौंपना है। “नक्सली” का ठप्पा तो बस एक बहाना है। असली लड़ाई हम जंगलों में रहने वालों के खिलाफ है।

मीना कंडासामी: गृह मंत्री अमित शाह ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की है कि चल रहे ऑपरेशन कागर के तहत 31 मार्च 2026 तक माओवाद/नक्सलवाद का सफाया कर दिया जाएगा। इससे पहले समाधान-प्रहार नाम से अभियान चला था, और उससे पहले भी अलग-अलग नामों से यह ऑपरेशन जारी रहे हैं। आखिर इस तरह की समय-सीमा तय करने और सार्वजनिक घोषणा करने के पीछे क्या कारण है?

सोनी सोरी: गृह मंत्री जो कह रहे हैं, वह नया नहीं है। यही बातें पहले भी कही जा चुकी हैं। फर्क बस इतना है कि इस बार वे इसे और आक्रामक तरीके से कह रहे हैं-राज्य दर राज्य, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर, हर जगह।

इससे पहले सलवा जुडूम चला था। इस अभियान का सबसे बुरा असर किन पर पड़ा? आदिवासियों पर। फिर बस्तर बटालियन बनी, दंतेश्वरी फाइटर्स आए, कमांडो बटालियन फॉर रिजॉल्यूट एक्शन (CoBRA) बटालियन तैनात की गई, और कई अन्य बल लाए गए। पुलिस कैंप स्थापित किए गए, हर तरह की सैन्य ताकत झोंकी गई-आदिवासियों को खत्म करने के लिए।

जहां फर्जी मुठभेड़ होती हैं, वहां हमें जाने नहीं दिया जाता, सवाल पूछने नहीं दिया जाता। जब हम मीडिया से बात करने या अपनी आवाज उठाने की कोशिश करते हैं, तो हमें चुप करा दिया जाता है। राज्य पूरी दुनिया से बात करता है, लेकिन बस्तर के लोगों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की आवाज कुचल दी जाती है।

अब अमित शाह कह रहे हैं कि 2026 तक माओवादी खत्म हो जाएंगे। असली रणनीति क्या है? जब कोई व्यक्ति माओवादी बताकर मारा जाता है, तो दावा किया जाता है कि उसके सिर पर 2 लाख, 3 लाख, 4 लाख का इनाम था। असल में, जो लोग मारे जा रहे हैं, वे आदिवासी किसान होते हैं, लेकिन उन्हें माओवादी करार दे दिया जाता है।

हमने तो 60 लाख और 1.5 करोड़ तक के इनाम वाली “माओवादियों” की कहानियां सुनी हैं। आप एक आदमी को मारते हैं, और इनाम की राशि बांट दी जाती है। यही असली रणनीति है-आदिवासियों के खिलाफ एक संगठित अभियान।

लेकिन कानूनी रूप से क्या होना चाहिए? सबसे पहले, पोस्टमॉर्टम होना चाहिए। जिस गांव का माओवादी मारा गया है, उसकी ग्राम पंचायत को सूचित किया जाना चाहिए; परिवार को जानकारी दी जानी चाहिए; गांव के लोगों, विशेष रूप से शिक्षित लोगों को बताया जाना चाहिए।

लेकिन वे ऐसा कुछ भी नहीं करते। पोस्टमॉर्टम नहीं किया जाता। अख़बारों में कोई जानकारी प्रकाशित नहीं होती। मरने के बाद इनाम की घोषणा की जाती है। यही कारण है कि यहां हर दिन खून बह रहा है। किसी को मारो और पैसा लो। आत्मसमर्पण करो और पैसा लो। मेरा सवाल केंद्र और राज्य सरकारों से है:

यह पैसा आता कहां से है? क्या आपके पास इसका कोई हिसाब है? इतनी सैन्यीकरण के बावजूद गोलियां चलना बंद नहीं हुईं। अगर अमित शाह और केंद्र सरकार को वास्तव में माओवादियों से लड़ना है, तो वे निर्दोष आदिवासियों को मारे बिना यह करें। जंगलों और पहाड़ों को नष्ट किए बिना करें। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना करें।

आज पहाड़ जल रहे हैं, नदियां नष्ट हो रही हैं, आदिवासी बच्चे मारे जा रहे हैं।
वे दावा कर रहे हैं कि वे माओवादियों का सफाया कर रहे हैं, लेकिन असल में यह आदिवासियों का सफाया है, माओवादियों का नहीं। इनामी राशि क्या जनता का पैसा नहीं है? इसका हिसाब कहां है। इसे कौन आवंटित करता है? कौन इसका ऑडिट करता है? यह सब कहां दर्ज किया जाता है? मैं इस जानकारी को उजागर करने के लिए तैयार हूं। लेकिन अगर मैं इस पर सवाल उठाने के लिए आवेदन दायर करूं, तो मुझे नक्सली करार देकर मार दिया जाएगा या जेल में डाल दिया जाएगा।

लेकिन हमें मारे जाने या जेल जाने का डर नहीं है, क्योंकि हमारी लड़ाई हमारे जंगलों और मानवता के लिए है। 

बस्तर इलाके का सबसे प्रभावित गांव चिंतागुफा के आदिवासी।

मीना कंडासामी: मैंने पढ़ा कि बस्तर के खुले कैंपों के लिए 2500 जवानों की नई बटालियन ले आयी जा रही है। हवाई निगरानी रखने के लिए अंडर बैरेल ग्रेनेड लांचर, मानव रहित हवाई गाड़ियां और ड्रोन लाए जा रहे हैं। ये सारी गतिविधियां कैसे आम लोगों की जिंदगी को प्रभावित करती हैं?

सोनी सोरी: गांववालों की ज़िंदगी पर क्या असर पड़ता है? गांव के लोग सो नहीं पाते। जब ये कैंप स्थापित कर लेते हैं, तो सेना के जवान गांवों पर बमबारी करते हैं। आदिवासी किसान अपने खेतों में नहीं जा सकते, पानी नहीं भर सकते, लकड़ी नहीं काट सकते, तेंदू पत्ता नहीं इकट्ठा कर सकते। यही हाल आज बीजापुर में देखने को मिल रहा है।

मैं एक रात सिलगेर से आगे एक गांव में ठहरी थी। रात 1 बजे बम गिरने की आवाज़ से मेरी नींद खुली। मेरे साथ एक गर्भवती महिला थी। उसने कहा कि यह रोज़ होता है और उसके गर्भ में पल रहे बच्चे तक को इस शोर से तकलीफ़ होती है। उसने मुझसे कहा, “मेरे पेट पर हाथ रखकर देखो, बच्चा बेचैन है।”

मेरे पास तस्वीरें और वीडियो हैं, जो दिखाते हैं कि बमबारी का पर्यावरण और ज़मीन पर क्या असर पड़ता है। आप सिर्फ़ इंसानों को नहीं मार रहे, बल्कि पूरी प्रकृति को नष्ट कर रहे हैं। यह केवल हमारा मुद्दा नहीं है, यह पूरे देश का मामला है।

सरकार संवाद क्यों नहीं करना चाहती? अर्धसैनिक बल हर जगह क्यों हैं? क्या उनकी इतनी बड़ी संख्या में तैनाती की कोई ज़रूरत भी है? सरकार माओवादियों से बात करने से पहले बस्तर के लोगों से बात क्यों नहीं करती? लेकिन सरकार खुले तौर पर संवाद नहीं करना चाहती। पैसे की राजनीति और जश्न मनाने की क्रूरता जिस दिन राज्य पैसे बांटना बंद कर देगा, उसी दिन आदिवासियों पर अत्याचार भी बंद हो जाएंगे।

आप यक़ीन नहीं करेंगी-मारे गए लोगों की लाशें पड़ी होती हैं, ऐतु-4 लाख का इनाम, हिडमा-3 लाख का इनाम, जोगा-2 लाख का इनाम

मीना कंडासामी: यह पूरा आश्चर्यजनक है। भारत में यह आम धारणा है कि सैना जमीन की रक्षक है। यह सेना हमारे देशवासियों को मार रही है और जश्न मना रही है। लेकिन यह खबर बस्तर के बाहर लोगों तक नहीं पहुंच रही है। महिलाएं और बच्चों पर भी हमले हो रहे हैं, ऐसा है न?

सोनी सोरी: बच्चे गोलियों का सामना कर रहे हैं। इंद्रावती नदी के इलाके में चार बच्चों को गोलियां लगीं। हमारे पास उनके रिकॉर्ड हैं। एक बच्चा, जो अभी सिर्फ़ एक साल का था, अपनी मां का दूध पी रहा था। जब अर्धसैनिक बल गांव में पहुंचे, तो बच्चे का पिता उसे लेकर जंगल की तरफ़ भाग गया। उसे लगा कि अगर बच्चा रोया तो वे उसे पकड़ लेंगे। वह जंगल में छिप गया, लेकिन उन्होंने उसे पकड़कर मार डाला।

इसके बाद वे बच्चे को एक दूसरे गांव ले गए और वहां के लोगों को सौंप दिया। हमें फ़ोन आया कि “बच्चा मां को ढूंढ रहा है, उसे दूध चाहिए।” घायल बच्चों की दर्दनाक स्थिति थी। जब हमने उन बच्चों से मुलाकात की जो इस अर्धसैनिक ऑपरेशन में घायल हुआ था, तो उसके ज़ख़्मों में कीड़े पड़ चुके थे। फर्ज़ी मुठभेड़ करने के बाद, अर्धसैनिक बल लाशों को अपने कैंप ले जाते हैं, क्योंकि उन्हें इनाम की रकम तभी मिलती है।

लेकिन अगर गोली किसी बच्चे को लग जाए, तो वे उसे कैंप नहीं ले जाते, क्योंकि बच्चे की लाश पर उन्हें कोई इनाम नहीं मिलता। गलती से गोली किसी बच्चे, औरत या बुज़ुर्ग को लग जाए, तो कोई जांच क्यों नहीं होती? वे बच्चों को मरने के लिए छोड़ देते हैं और सारा मामला दबा दिया जाता है।

अगर कोई इनसे सवाल करे, तो ये कह देते हैं कि बच्चे “क्रॉसफ़ायर” में मारे गए। लेकिन अगर आपके अपने बच्चे होते, तो क्या उनकी जान की कीमत नहीं होती? फर्क़ बस इतना है कि ये आदिवासी बच्चे हैं-इनकी मौत मायने नहीं रखती।

महिलाओं पर हो रहे हमले और बलात्कार कानून में साफ़ लिखा है कि पुलिस अगर किसी घर में घुसे तो महिला को छूने के लिए एक निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना होगा। लेकिन यहां कुछ नहीं माना जाता। अर्धसैनिक बल सुबह-सुबह घरों में घुस जाते हैं। जब महिलाएं अनाज कूट रही होती हैं, कपड़े धो रही होती हैं, चूल्हा जला रही होती हैं-तभी ये अंदर आते हैं। वे औरतों के कपड़े फाड़ देते हैं, उनकी साड़ियां उतार देते हैं, उन्हें पीटते हैं, रेप करने की कोशिश करते हैं।

नरायणपुर में 5 अक्तूबर, 2024 को मारे गए 38 में से 31 नक्सलियों के शव।

ऐसे अनगिनत मामले हैं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती। यह केवल बस्तर का नहीं, पूरे देश का सवाल है। सुधा का ही मामला लीजिए, उसे उसके घर से अर्धसैनिक बलों द्वारा जबरन ले जाया गया था। गांव की दूसरी महिलाओं ने गिड़गिड़ाकर कहा, “अगर तुम केस करना चाहते हो, तो करो, लेकिन उसे मत ले जाओ!”

लेकिन उन्होंने जबरदस्ती उसे जंगल में घसीट लिया-जो उसके घर से ज़्यादा दूर नहीं था। फिर उन्होंने उसके साथ बार-बार बलात्कार किया, जब तक कि उसकी मौत नहीं हो गई। कोई गोली नहीं चली। जब उसने आखिरी सांस ली, तो उन्होंने घोषणा कर दी कि “एक नक्सली का एनकाउंटर हो गया।”

उसका शव दंतेवाड़ा अस्पताल लाया गया। मुझे बताया गया कि उसे गोली मारकर मारा गया है। मैंने ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर से कहा, “मुझे शव दिखाओ।” एक भी गोली का निशान नहीं था। मैंने पूछा, “अगर यह मुठभेड़ है, तो शरीर पर गोली के निशान क्यों नहीं हैं?” कोई जवाब नहीं।

बस्तर की महिलाएं हमें बताती हैं- “सोनी दीदी, हमें मरने से डर नहीं लगता। हम पर गोलियां चला दो, लेकिन हमसे बलात्कार मत करो!” “हम मरने को तैयार हैं, लेकिन इस यातना को सहने को नहीं!” यहां बलात्कार सबसे बड़ा आतंक बन चुका है।

बलात्कार, हत्या और वहशी अत्याचार महिलाओं को ज़िंदा यातनाएं दी जाती हैं। उन्हें नोचा जाता है, पीटा जाता है, बलात्कार किया जाता है और फिर गोलियों से मार दिया जाता है। मैंने कितनी ही महिलाओं के घायल और सूजे हुए प्राइवेट पार्ट देखे हैं! कितनी ही फटी हुई जांघें और ज़ख़्म देखे हैं!

ये घटनाएं बस्तर में हर दिन होती हैं। अगर आप इस बारे में बोलें, तो आपको “माओवादी” करार दिया जाता है। लोगों को बेहद बर्बरता से मारा जाता है। एक महिला ने मुझे बताया कि वे जिंदा रहते उनके बेटे, भाई और पिता के निजी अंग काट देते हैं। यहां महिलाओं, बच्चों, भाइयों, पिताओं, जंगल, जानवर और पक्षी-कोई भी सुरक्षित नहीं है।

यहां गोली चलाई जाती है और बलात्कार किए जाते हैं ताकि लोग भाग जाएं। सलवा-जुडूम के समय लाखों लोग वारंगल भाग गए थे। यह सब कुछ इसलिए किया जा रहा है जिससे ज़मीन को लोगों से खाली करवा लिया जाए और इसे अपने पसंदीदा बड़े पूंजीपतियों को दिया जा सके।

परचनपाल गांव की एक बच्ची पानी लेने के लिए जाती हुई।

मीना कंडासामी: जब मैं दो साल पहले बस्तर आयी थी, तो मैंने देखा लोगों के पास पीने के पानी की सुविधा नहीं थी। बिजली नहीं थी। स्कूल और अस्पताल बहुत दूर थे। लेकिन 8-लेन हाइवे जैसी चौड़ी सड़कें बनाई जा रही थीं! अर्धसैनिक बल ऑनलाइन प्रचार कर रहे थे कि वे “इंटीग्रेटेड डेवेलपमेंट सेंटर्स” बना रहे हैं। इनमें बैंक पीडीएस (राशन दुकान) आंगनवाड़ी स्कूल अस्पताल लेकिन ये सभी सुविधाएं देना तो सरकार का काम है! फिर अर्धसैनिक बल ये काम क्यों कर रहे हैं? आप इसे कैसे देखती हैं; इन कैंपों को बनाने के पीछे क्या उद्देश्य है?

सोनी सोरी: ग्राम सभा में एक सरपंच और सचिव होते हैं, और कानून के मुताबिक वे सर्वोच्च होते हैं। तो फिर सड़कें बनाने का काम अर्धसैनिक बल क्यों कर रहे हैं? अगर सरकार को सड़कें बनानी हैं, तो ऐसी सड़कें बनाएं-जो बच्चों के स्कूलों तक जाएं और वापस लाएं। जो लोगों को बाज़ार तक ले जाएं और वापस लाएं।

लेकिन ये बड़ी-बड़ी सड़कें जंगल में रहने वाले आदिवासियों के लिए नहीं बनाई जा रही हैं। ये सड़कें खनिज-समृद्ध पहाड़ों तक पहुंचने के लिए बनाई जा रही हैं। खनिज निकालने के बाद उन्हें इन चौड़ी सड़कों से बाहर ले जाया जाएगा।

क्या केंद्र सरकार या फिर अमित शाह लिखित में यह भरोसा दे सकते हैं कि आदिवासियों की एक इंच ज़मीन भी नहीं छीनी जाएगी, कोई खनन (माइनिंग) नहीं होगी, ज़मीन का शोषण नहीं होगा, पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा?

मैं खुद पूरे बस्तर के आदिवासियों को इकट्ठा करने के लिए तैयार हूं। मैं खुद माओवादियों से भी बात करने के लिए तैयार हूं। लेकिन पहले सरकार को हमसे बात करनी होगी। और मुझे यह भरोसा दिलाना होगा कि आदिवासी जमीन का एक टुकड़ा उनसे नहीं छीना जाएगा।

मीना कंडासामी: सभी तरह के उत्पीड़न विकास के नाम पर किए जा रहे हैं। आप इस पूरे विकास के विमर्श को किस रूप में देखती हैं?

सोनी सोरी: हम कंपनियों का विरोध करते हैं। उदाहरण के लिए, NMDC (नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन) पिछले 75 सालों से यहां खनन कर रही है। हमने सोचा था कि इससे आने वाली पीढ़ियों के लिए रोजगार मिलेगा। अस्पताल और स्कूल बनेंगे। हमारा भविष्य सुरक्षित रहेगा।

लेकिन आज सच्चाई यह है: पहाड़ खोखले हो गए हैं। लोग ज़हरीला लाल पानी पीने के लिए मजबूर हैं। बच्चे बच नहीं पाते। खेती की ज़मीन बर्बाद हो गई। लोग सिर्फ़ जंगल के छोटे-मोटे उत्पाद बेचकर गुज़ारा कर रहे हैं।

अगर यही खनन का परिणाम है, तो लोग विरोध क्यों नहीं करेंगे? माओवादियों पर झूठा आरोप क्यों?  पिडिया गांव में स्कूल नहीं है। अस्पताल नहीं है। लोगों के पास ज़मीन के काग़ज़ नहीं हैं। आंगनवाड़ी नहीं हैं। बिजली नहीं है। और सरकार कहती है कि माओवादी इन्हें बनाने नहीं दे रहे!

असल विकास कहां से शुरू होना चाहिए? पहले गांवों में सड़कें बननी चाहिए। बिजली आनी चाहिए। अस्पताल, पानी, और बच्चों के लिए सुविधाएं मिलनी चाहिए। इसके बाद ही बड़ी सड़कों की बात होनी चाहिए।

लेकिन ये लोग सिर्फ़ बड़ी सड़कों की बात करते हैं। जो सच बोलते हैं, उन्हें मार दिया जाता है। पत्रकार मुकेश चंद्राकर ने गांव की सड़कों का मुद्दा उठाया। उन्हें मार दिया गया। क्या वे “एंटी-डेवलपमेंट” थे? जो लोग सच बोलते हैं, उन्हें कुचल दिया जाता है।

हम विकास के खिलाफ़ नहीं हैं। लेकिन उस तरह का विकास नहीं जिसकी वे बात करते हैं। पहले हमें हमारे बुनियादी अधिकार दो!  इसके बाद विकास करो! लेकिन इन सब की बजाय वे कंपनियों की सेवा करना चाहती हैं।

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author