गाज़ा पर अरुंधति रॉय: फिर कभी नहीं

पश्चिमी संसार के अमीरतम, शक्तिशाली देश, जो खुद को लोकतंत्र और मानवाधिकारों के प्रति आधुनिक दुनिया की कटिबद्धता की मशाल जलाए रखने वाले मानते हैं, खुलेआम गाज़ा में इजरायल के नरसंहार को वित्तपोषण कर रहे हैं और तालियां पीट रहे हैं। गाज़ा पट्टी एक यातना शिविर में बदल चुकी है। जो अब तक मारे नहीं जा चुके हैं, वह भूख से मर रहे हैं। उनके घर, अस्पताल, विश्वविद्यालय, संग्रहालय, सभी तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर मलबे में बदल चुके हैं। उनका अतीत खत्म हो चुका है। उनका भविष्य दिख नहीं रहा।

हालांकि दुनिया की सबसे बड़ी अदालत मानती है कि लगभग हर संकेत नरसंहार की कानूनी परिभाषा की कसौटी पर खरा उतरता दिख रहा है, लेकिन आईडीएफ जवान अपने चिढ़ाने वाले “जीत के जश्न के वीडियो” निकालना जारी रखे हुए हैं, जो पैशाचिक लगते हैं। उन्हें लगता है कि दुनिया में ऐसी कोई ताकत नहीं है जो उन्हें जवाबदेह ठहराए। लेकिन वह गलत हैं। वह जो कर रहे हैं वह पर उन्हें और उनके बच्चों को परेशान करता रहेगा। उन्हें दुनिया की घृणा के साथ जीना पड़ेगा। और उम्मीद की जानी चाहिए कि एक दिन – इस संघर्ष के हर सिरे पर – जिन्होंने युद्ध अपराध किए हैं, उन पर मुकदमे चलेंगे और सजा मिलेगी, यह ध्यान में रखते हुए कि नस्लभेद और कब्जे को लागू करते किए अपराधों और इसका प्रतिरोध करते हुए किए अपराधों में कोई समानता नहीं है।

नरसंहार के किसी भी कृत्य के केंद्र में नस्लवाद होता है। इजरायल के अस्तित्व में आने के बाद से ही इस्राइली राज्य के बड़े अधिकारियों के शब्दाडंबर ने फिलिस्तीनियों का अमानवीकरण किया है, और उनकी तुलना दरिंदों, कीड़ों-मकोड़ों से की है, ठीक उस तरह जिस तरह नाज़ियों ने यहूदियों का अमानवीकरण किया था। ऐसा लगता है जैसे बुरा सीरम कहीं नहीं गया और अब फिर से प्रवाहित हो रहा है। शक्तिशाली नारे “फिर कभी नहीं” से “कभी नहीं” काट दिया गया है। और हम केवल “फिर” के साथ रह गए हैं।

फिर कभी नहीं

दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति जो बाइडेन इजरायल के आगे लाचार हैं, जबकि अमरीकी फन्डिंग के बिना इजरायल अस्तित्व में ही नहीं होता था। ऐसा लगता है जैसे आश्रित लाभ देने वाले पर हावी हो गया हो। दिखता तो यही है। जो बाइडेन एक बूढ़े बच्चे की तरह कैमरा पर आइसक्रीम कोन चाटते नजर आते हैं और सीज़फायर के बारे में कुछ बोल रहे हैं, जबकि इजरायली सरकार और सैन्य अधिकारी खुलेआम उनके खिलाफ जाकर संकल्प लेते नजर आते हैं कि जो शुरू किया है, उसे खत्म करके रहेंगे। अपने नाम पर इस नरसंहार के खिलाफ लाखों युवा अमेरिकियों के वोट फिसलने से बचाने के लिए उप राष्ट्रपति कमाल हैरिस को सीज़फायर का आह्वान करने का काम दिया गया है जबकि अमरीकी डॉलर नरसंहार जारी रखने में झोंका जाना जारी है।

और हमारे देश का क्या?

यह सब जानते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के गहरे दोस्त हैं और उनकी सहानुभूति किसके साथ है इसमें कोई संदेह नहीं है। भारत फ़िलिस्तीन का दोस्त नहीं रह गया। जब बमबारी शुरू हुई, मोदी के हजारों समर्थकों ने अपने सोशल मीडिया पर डिस्प्ले पिक्चर के रूप में इजरायली झंडे की तस्वीर लगाई। उन्होंने इजरायल और आईडीएफ की तरफ से भ्रामक, गलत जानकारी फैलाने में मदद की। हालांकि भारत सरकार अब पीछे हटकर अधिक तटस्थ भूमिका में आ गई है – हमारी विदेश नीति की यह जीत है कि हम एक वक्त में सभी तरफ होते हैं, नरसंहार के खिलाफ भी और इसके पक्ष में भी – लेकिन सरकार ने स्पष्ट संकेत दिया है कि वह फ़िलिस्तीन समर्थक विरोध प्रदर्शनों के खिलाफ कार्रवाई करेगी।

और अब, इजरायली नरसंहार की मदद के लिए जहां अमेरिका हथियार और पैसा, जो उसके पास बहुतायत में है, भेज रहा है, भारत भी बेरोजगार गरीब, जो उसके पास बहुतायत में हैं, भेज रहा है फ़िलिस्तीनी श्रमिकों का स्थान लेने के लिए, जिन्हें इजरायल में प्रवेश के लिए वर्क परमिट नहीं दिए जाएंगे। (मैं अनुमान लगा सकती हूं कि नई भर्तियों में मुस्लिम नहीं होंगे)। लोग, जो इतने निराश हैं कि एक युद्ध क्षेत्र में अपनी जान का दांव लगाने तक को तैयार हैं। इतने हताश हैं कि भारतीयों के खिलाफ इस्राइली नस्लभेद सहने के लिए भी तैयार हैं। आप यह सोशल मीडिया में देख सकते हैं, यदि देखना चाहें तो। अमरीकी पैसा और भारतीय गरीबी इजरायल के नरसंहार-युद्ध का ईंधन बन रही है, कैसी भयावह, अकल्पनीय शर्म की बात है।

फ़िलिस्तीनी, जिनके सामने दुनिया के शक्तिशाली देश हैं, जिन्हें उनके सहयोगियों ने भी अकेला छोड़ दिया है, ने अगणनीय तकलीफ सही है। लेकिन उन्होंने यह युद्ध जीता है। वह, उनके पत्रकार, उनके डॉक्टर, उनके कवि, शिक्षाविद, प्रवक्ताओं और यहां तक कि बच्चों ने भी जिस साहस और गरिमा का प्रदर्शन किया है, उसने बाकी दुनिया को प्रेरित किया है। पश्चिमी दुनिया की युवा पीढ़ी, खासकर अमेरिका में युवा यहूदी लोगों ने ब्रेनवाशिंग और दुष्प्रचार को समझ लिया है और वह जानते हैं कि नस्लभेद और नरसंहार क्या है। एक बार फिर पश्चिमी दुनिया के सर्वाधिक शक्तिशाली देशों की सरकारों ने अपनी गरिमा, सम्मान खो दिया है। लेकिन यूरोप और अमेरिका की सड़कों पर करोड़ों प्रदर्शनकारी दुनिया के भविष्य की उम्मीद बन कर उभरे हैं।

फ़िलिस्तीन आजाद होकर रहेगा।

(7 मार्च को नई दिल्ली के प्रेस क्लब में वर्किंग पीपल अगेन्स्ट अपार्टाईड एण्ड जेनोसाइड इन गाज़ा की बैठक में अरुंधति रॉय का बयान। स्क्रॉल से साभार।)

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