दीप जलाने के मौक़े पर।

भारत दुर्दशा देखि नहिं जाई!

अनजाने में ही सही लेकिन देश के करोड़ों लोगों से वह काम करवा दिया गया, जिसे वे शायद ही कभी करना चाहते। इसे शातिर दिमाग नहीं कहूँगा। ये डर का भयानक दोहन था।

लोगों ने इसे जमकर मनाया। इस 9 मिनट के दौरान मैं कमरे से नहीं निकला। क्योंकि मेरे देश की मूर्खता अब और नहीं देखी जाती। इससे अब गुस्सा या उनको भला बुरा कहने की अब कोई इच्छा नहीं रह गई। हमारे इतिहास में दो महान मूर्खों के महानतम कवि बनने की कहानी मैंने बचपन में पढ़ी थी, और उस पर विश्वास भी करता था। एक थे कालीदास और उनकी पत्नी विद्योत्मा की कहानी। कालिदास पेड़ की डाल में उलटी तरफ बैठकर उसे काट रहे थे। यह घटना उनकी मूर्खता की पराकाष्ठा थी।

बाद में जब कालीदास को समझ में आया तो उनकी बुद्धि के कपाट खुले, और उसके बाद उनकी जीवन लीला ही 180 डिग्री बदल गई। मेघदूत का अनुवाद कभी पढ़ने को मिले, तो पढ़िए। अधिकतर भक्त उसके भावार्थ को पढ़कर ही मानसिक जीवाणु अपने अंदर खत्म पायेंगे। दूसरे थे गोस्वामी तुलसीदास जी।

अपनी पत्नी हुलसी के लिए बौराए इंसान। वैसे थे भी कुछ मूर्ख पंडित जैसे ही। पत्नी के इतने बड़े आशिक कि उसके पीछे-पीछे ही लगे रहते थे। पत्नी भक्त तुलसीदास को पत्नी की वह फटकार इंसान बना गई। इंसान के अंदर कितनी अकूत क्षमता हो सकती है, कि वह काव्य नहीं महाकाव्य रच सकता है, यह बात तुलसीदास के ग्रन्थ रामचरितमानस से भला कौन नहीं समझ सकता।

लेकिन उनके शुरुआती लक्षण ऐसे ही थे, जैसे किसी भी बेहद भोले, गंवार के होते हैं।

अब इन बातों में कितनी सच्चाई है, नहीं जानता। लेकिन प्रचलित धारणा दोनों के बारे में यही है, और जो सच ही होगी। वरना कोई इन महाकवियों का अपमान करने के लिए थोड़े ही लिखता। हमने तो बचपन में अपनी टेक्स्टबुक में पढ़ी है। आपने भी पढ़ी होगी, लेकिन अगर याद नहीं तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं।

इसके अलावा ऋषि वशिष्ठ के बारे में भी कुछ ऐसा ही है। अंगुलिमाल जो लोगों की अंगुली काटकर गले में लटकाते फिरने वाला डाकू था। ये सभी लोगों के ह्रदय परिवर्तन हुए और ये सभी लोक कल्याण के लिए अमर हो गए।

लेकिन हमारे देशवासियों को मूर्खता से निजात दिलाने, उलाहना देने वालों को आज गद्दार कहने का रिवाज है। वामी कहा जाता है। और जो उनकी मूर्खता का टेस्ट लेने के लिए थर्मामीटर की तरह बीच-बीच में अलग-अलग गेम खिलाते हैं, वे उनके माई बाप मान लिए जाते हैं।

खैर, यह संसार दो दिन का खेला है। सबको अपना अपना रोल निभाना है और अमरता तो जब इंसान देह रूप लिए भगवान की ना रही, तो कुटिल खल कामियों को यह वरदान कैसे मिलेगा? जवानी में नारे सुनते थे, जो हिटलर की चाल चलेगा, वो हिटलर की मौत मरेगा।

खैर जाने दीजिये:

असल मुद्दे पर आते हैं:-

#Covid-19 किसी भी तरह से ताली, थाली, मोमबत्ती या दिए जलाने से नहीं जाने वाला। उसके लिए शारीरिक दूरी इन्सान से दूसरे इंसान की इस समय पहली जरूरत थी।

यह सरकार ने लॉक डाउन कराकर सुनिश्चित कर दिया। हालांकि इसके लिए एक महीने से योजना बनानी चाहिए थी, जब हम ट्रम्प के स्वागत में 70 लाख लोगों को सटासटाकर बाप जी को खुश करना चाहते थे। इसलिये जैसे ही लॉक डाउन लागू किया तो करोड़ों गरीब लोग, बिल से निकलने को मजबूर हो गए। अब ऐसा हम और आप मूढ़ की तरह सोचते होंगे, कि सरकार को इसका जरा भी आभास नहीं रहा होगा?

उन्हें खूब अहसास होता है। जब वे बजट बनाते हैं, गैस बाँटते हैं, टॉयलेट बनवाते हैं, गली गली में जाकर वोटों की भीख माँगते हैं, 500 रूपये में वोट के नाम पर जमीर बेचते देखते हैं, तो वे हमसे 100 गुना अच्छी तरह से जानते थे कि इस लॉक डाउन का क्या होने जा रहा है?

खैर इससे एक काम हो गया। शहर पहले से कम आबादी वाले अपने आप हो गये।

जो धार्मिक आयोजन में आये थे, उनमें से कुछ को तो चुपके से इंतजाम कराकर पिछली गली से निकलवा दिया गया। कई विदेशी भी फँसे थे, वे दृश्य करोड़ों लोगों को नहीं दिखाए गए, क्योंकि उससे उनके दिमाग की बत्ती क्यों जलानी भला?

सिर्फ एक जमात की दिखानी थी, जिसे भी न जाने की आज्ञा दी गई और बाद में वो सरकार के बड़े मुफीद की रही। लेकिन सोचिये जो चले गए, वे कितने खतरनाक अंजाम को पहुंचा गए?

लेकिन कालिदासों को तो इस बेसिक सवाल में से आज भी धूर्तता नहीं समझ आ रही होगी कि : 1. प्रधानमंत्री ने कहा 12 बजे रात से लॉक डाउन शुरू। ट्रेन पहले से ही बंद हो गई थी, बस का सफर भी नहीं। सब बंद में कोई जाये तो कैसे जाये?

2. जो फिर भी उन करोड़ों गरीब भारतीयों की तरह किसी तरह निकल भी गए, तो वो क्यों गए? क्या वे वायरस फैलाने गए?

वहीं दूसरी तरफ 28 तारीख को गुजरात के श्रद्धालुओं को हरिद्वार से निकालने के लिए कई लक्ज़री बसों का निर्देश गृह मंत्रालय वाया गुजरात मुख्यमंत्री से होता हुआ सीधे उत्तराखण्ड मुख्यमंत्री तक पहुँचता है और रातों रात 1800 श्रद्धालुओं के लिए व्यवस्था हो जाती है।

सिख समुदाय के भी 200 से अधिक लोग दिल्ली के मजनू के टीले में फँसे थे। जिन्हें बाकायदा शारीरिक दूरी बनाकर रखा गया बताया जा रहा है। उन्हें किसी स्कूल में क्वारंटाइन के लिए रखा गया है, और सिख समुदाय आहत है। जबकि वे लाखों लोगों की सेवा कर रहे हैं। लेकिन उन्हें इस बात का धन्यवाद देना चाहिए कि उन्हें वायरस फैलाने का अपराधी नहीं कहा जा रहा।

जो गरीब लाखों लोग गाँवों-देहातों में पहुँचे, उन गाँव में प्रधानों और सरपंचों मुखिया को सरकारों ने पहले से ही लठ के साथ गाँव की चौकीदारी और तुम जानो तुम्हारा काम जाने की तर्ज पर इन असहाय गाँव वासियों के आने पर क्वारंटाइन के नाम पर अछूत और सामाजिक बहिष्कार के लिए प्रेरित किया।

मेरे उत्तराखण्ड से खबरे हैं कि जो लोग बाहर से आये हैं, उनके बारे में ग्रामीण काफी भड़के हुए हैं। एक तो उनको इस बात से नफरत है कि ये लोग अपने लिए गाँव छोड़ शहर क्या गु… खाने गए थे? और जब इन्हें तकलीफ होती है तो पहाड़ आ जाते है। इस बार तो ये अपने साथ महामारी लेकर आ रहे हैं।

कितना प्यार और भाईचारा बाँटा गया न इस बीच?

इसमें जो बात बड़े महीन तरीके से छिपा दी गई, उस पर तो हजार में से किसी इक्के दुक्के का ही ध्यान शुरू से गया हो, तो कह नहीं सकता। वो मेरी नजर में पहले दिन से ही ये था।

1. लॉक डाउन से सबसे पहला लक्ष्य यह हासिल कर सका जा सकता है कि कनिका कपूर जैसी सोशल इवेंट क्वीन की ऐसी पार्टियों में देश की नामचीन हस्तियाँ जिसमें राजनीतिक से लेकर औद्योगिक घरानों से ताल्लुक रखने वाले लोग शामिल रहते हैं, के करोना संक्रमित होने का खतरा अचानक से संसद, पीएमओ और राष्ट्रपति भवन तक पहुँच गया था।

सबसे बड़ी बात तो ये है कि ये तो एक मैडम से हुआ। न जाने ऐसी कितनी पार्टियों, डिस्कोथेक और पब में इन लोगों के साहब जादे और जादियाँ इस बीच जा रही थीं।

ये सब 21 दिन के लिए क्वारंटाइन रहते हैं, तो ये सब बच जायेंगे। और यह सबसे बड़ा लक्ष्य था। क्योंकि ये बच गए तो समझो देश बच गया। इनके लिए यह सेल्फ क्वारंटाइन और कोरोना महामारी से बचने का रामबाण इलाज हुआ।

2. इनके अलावा बाकी के देश के लिए ही असल में लॉक डाउन लगा दिया गया। अब इनमें भी मोटा-मोटी दो केटेगरी है।

ए) भारत में रहने वाले 25-30 करोड़ शहरी, कस्बाई, और गाँव के वे खाते-पीते लोग जिनके पास दो-तीन महीने तक खाने पीने के लिए पर्याप्त जुगाड़ और बैंक बैलेंस है।

ये अगर सेल्फ क्वारंटाइन रहता है, तो काफी हद तक ये तबका भी सुरक्षित रह सकता है। अगर इसमें से भी कुछ हताहत हुए तो भी बड़ा हिस्सा बच जाएगा। क्योंकि यही वह तबका है जो सीधे मेहनत मजूरी तो नहीं करता, लेकिन सारे व्यवसाय जायदाद कल-कारखाने वित्त की देख-रेख जरूर करता है। और यह भी बेहद जरुरी वर्ग है। बिना बात भौंकता भी यही है। इसे हमेशा पहले वाले वर्ग का पालतू कुत्ता बना रहना भी पसंद है, और उसकी मज़बूरी भी। लेकिन इसे साधे रखना सबसे बड़ी जरूरत है। क्योंकि खतरा भांप जाये, तो सबकी नींद हराम करने की क्षमता भी इसी में है।

बी) अब आते हैं आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े, निम्न मध्य वर्ग से लेकर गरीब, अति गरीब, से लेकर बेसहारा, फुटपाथ से लेकर आदिवासी लोगों पर।

ये देश में 90-100 करोड़ होने चाहिए। इनके बारे में क्या सोचा गया? इसके बारे में मैं कुछ भी नहीं लिखने की हालत में हूँ। क्या लिखूं?

आज देश में मेडिकल कर्मियों के लिए करोड़ों की संख्या में आम मास्क और लाखों की संख्या में N95 मास्क चाहिए। जिसका सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता चीन है। जिसे अब अमेरिका पटा रहा है, लेकिन हम संयुक्त राष्ट्र की अदालत में चीनी वायरस फैलाने के आरोप में मुकदमेबाजी करने की तैयारी करने वाले भक्त वकीलों की फ़ौज देख रहे हैं।

आज भी कालिदास हर पेड़ की डाल पर बैठे हैं। उसी डाल को काट रहे हैं, जिसपर वे बैठे हैं। लेकिन कोई उन्हें कुछ कहता है, समझाता है, भली राह दिखाए तो वे ही उसके दुश्मन नंबर वन हैं।

2014 से पहले इस देश में ऐसा नहीं था। मनमोहन सिंह ने ऐसे अपराध नहीं किये, लेकिन उनके खिलाफ सारे देश ने सबसे अधिक प्रदर्शन किये, और बन्दा गूं गूं की आवाज भी नहीं निकाल सकता था।

हमें चाहिए था ऐसा इंसान जो खुद तो न निकाले, लेकिन उसके आदमी हर मोहल्ले में, साइबर दुनिया में आपको चुन-चुन कर ऐसी-ऐसी प्यारी प्यारी गालियाँ सुना दें, आपको और आपके उन पूर्वजों को जो अब इस दुनिया में नहीं रहे, कि आप तौबा कर लें। हमने यही शायद चाहा था।

अंत में इस ऊपर दी गई तस्वीर को ध्यान से देखिये। भारत को दीपों से confine किया हुआ है। स्वागत में दो शब्द लिखे हैं। हम वास्तव में बेहद उदार देश के निवासी हैं।

(रविंद्र सिंह पटवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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