कर्नाटक चुनाव नतीजों के बाद राष्ट्रीय राजनीति तेजी के दौर में प्रवेश कर गई है। जाहिर है अब सब कुछ आम चुनाव के नाम है। अचानक यह चर्चा भी चल पड़ी है कि आगामी विधानसभा चुनावों में अपनी सम्भावित पराजय और उसके लोकसभा चुनाव पर असर की आशंका से घबराए मोदी-शाह लोकसभा चुनाव नवम्बर में ही मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि के साथ करवा सकते हैं। नीतीश कुमार ने भी इस आशय का बयान दिया है। जाहिर है सारे stake holders इससे चौकन्ने और सक्रिय हो गए हैं।
यह ताकतवर वित्तीय पूंजी की भारत में गहरी घुसपैठ और प्रभावशाली भारतीय प्रवासी तथा वैश्विक विचार के महत्व की ही अभिव्यक्ति है कि भारत के चुनावों में अमेरिका और यूरोप भी प्रचार का एक मोर्चा बन गया है। मोदी के लिए तो विश्वगुरू का तमगा देश में उनके बनावटी करिश्मे और लोकप्रियता का बड़ा स्रोत है, जिसके लिए उनका आईटी सेल और गोदी मीडिया हास्यास्पद दिखने की हद तक जाकर रात दिन तरह-तरह की कहानियां गढ़ता रहता है। आने वाले महीनों में ‘ग्लोबल मेगा इवेंट्स’ की एक पूरी श्रृंखला की चकाचौंध की तैयारी है, G-20, SCO और क्वाड समिट से लेकर आते-आते अब मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता भी भारत में आयोजित कर ली गई है।
इनसे दोनों उद्देश्य साधने की कवायद है, एक ओर विश्वनेता के रूप में मोदी का प्रभामंडल गढ़कर मतदाताओं को प्रभावित किया जाएगा, दूसरी ओर चुनाव के अंतिम चरण में सरकार की विराट असफलताओं से जनता का ध्यान भटकाने और विपक्ष के हमलों की धार कुंद करने की कोशिश होगी।
भाजपा की इस रणनीति की काट करने के लिए विपक्ष के नेता राहुल गांधी भी मोदी की राजकीय यात्रा से ठीक पहले अमेरिका-यूरोप का दौरा करके वैश्विक शक्तियों तथा ओपिनियन बनाने वालों को साधने और मोदी राज की असलियत समझाने की कोशिश कर रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि विदेशी मोर्चे पर घमासान से दोनों नेताओं के निपटने के बाद असली रणक्षेत्र में- देश के अंदर-आम चुनाव के महाभारत का बिगुल बज जाएगा। यहां पक्ष-विपक्ष दोनों के लिए गम्भीर चुनौतियां इंतज़ार कर रही हैं।
भाजपा के लिए संकट कई स्तरों पर है। एनडीए बिखर चुका है। आज भाजपा के पास कोई भी उल्लेखनीय राजनीतिक सहयोगी नहीं बचा है। व्यवहारतः भाजपा को एकताबद्ध विपक्ष के खिलाफ अकेले मैदान में उतरना है। शायद इसी बात की निराशा मोदी की लोकसभा की उस चीत्कार में दिखा था “एक अकेला सब पर भारी!” बहरहाल इस नारे की रणभूमि में परीक्षा का समय आ गया है।
हालत लेकिन यह है कि “जो अकेला सब पर भारी” होने का दावा था, कर्नाटक चुनाव नतीजों के बाद स्वयं आरएसएस ने यह मान लिया है कि वह ‘मोदी मैजिक’ खत्म हो चुका है। ऑर्गनाइजर के संपादक प्रफुल्ल केतकर ने जब लिखा कि, “आगामी चुनावों में क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत नेतृत्व और प्रभावी डिलीवरी के बिना, प्रधान मंत्री मोदी का करिश्मा और हिंदुत्व ही पर्याप्त नहीं होगा।”, तो इसी कटु सत्य की वह नरम ढंग से घोषणा कर रहे थे। संघ की आत्मस्वीकृति से बड़ी ब्रांड मोदी के फेल होने की दूसरी पुष्टि नहीं हो सकती। संघ ने न सिर्फ मोदी मैजिक खत्म होने का ऐलान कर दिया बल्कि उसी सांस में हिंदुत्व की चुनाव जिताऊ क्षमता की सीमाबद्धता भी रेखांकित कर दी।
केतकर ने भले मोदी और हिंदुत्व को ‘एसेट’ बताते हुए, जीत के लिए इसे राज्यस्तर पर मजबूत नेतृत्व और डिलीवरी से सांत्वना देने की बात कही है। पर सच्चाई यही है कि उनका यह सूत्रीकरण यूपी के जिस योगी मॉडल से प्रेरित है, वह कोई सुशासन और डिलीवरी का मॉडल नहीं है। उसकी कथित मजबूती का स्रोत भी हिंदुत्व का उग्र आक्रामक मॉडल ही है।
यूपी चुनाव में भी भाजपा की चुनावी जीत किसी सुशासन और डिलीवरी सुनिश्चित करने वाले मजबूत नेतृत्व पर आधारित नहीं थी। वह मूलतः विपक्ष की कमजोरी और बिखराव तथा तब तक एक हद तक कायम मोदी मैजिक, लाभार्थी कार्ड और योगी के उग्र हिंदुत्व मॉडल से हुए ध्रुवीकरण का ही मिलाजुला परिणाम थी। यही दूसरे कथित मजबूत नेता हिमंता विश्वशर्मा की भी सच्चाई है।
दरअसल, केतकर ने हिंदुत्व की जिस सीमाबद्धता का जिक्र किया है, वह आज कर्नाटक की सच्चाई है तो कल यूपी की भी सच्चाई बनेगी। यह सब अब उल्टी दिशा में काम करना शुरू कर चुका है।
समाज के कमजोर, वंचित, हाशिये के तबकों के लिये जीवन के सवाल इतने भारी पड़ रहे हैं कि अब उन्हें और अधिक हिन्दू गौरव के नाम पर भुलावे में नहीं रखा जा सकता। वे अब सवाल पूछ रहे हैं कि आखिरकार हिन्दूराज के 9 साल में आखिर हमें मिला क्या ? इसीलिए, विपक्ष के आर्थिक राहत और सामाजिक न्याय के वायदे अब उन्हें आकर्षित करने लगे हैं।
भाजपा के लिए सबसे बड़ी गले की हड्डी सामाजिक न्याय का प्रश्न बन कर उभर रहा है। कभी अपने ओबोसी होने का सार्वजनिक प्रचार करते हुए और तरह-तरह की शातिर चालों से पहचान की राजनीति करने वाले पिछड़े-अतिपिछड़े-दलित-आदिवासी समुदाय के तमाम नेताओं/दलों को साधते हुए मोदी-भाजपा ने अपना राजनीतिक वर्चस्व कायम किया था। लेकिन कर्नाटक चुनाव नतीजों के बाद अब उन्हें इससे डर लगने लगा है। केतकर कहते हैं, “कर्नाटक जैसे सूचना प्रौद्योगिकी केंद्र और विकसित क्षेत्र माने जाने वाले राज्य में जिस तरह से जाति आधारित लामबंदी का खुलेआम इस्तेमाल और चर्चा की जाती है, वह डराने वाला है।”
दरअसल जाति जनगणना और आरक्षण को बढ़ाते जाने का मुद्दा, जिसे मंडल पार्ट 2 कहा जा रहा है, वह 2024 में विपक्ष की ओर से एक बड़े सवाल के रूप में उठने जा रहा है। कर्नाटक चुनाव में राहुल गांधी ने इसे उठाया और नतीजों से साफ है कि हाशिये के समुदायों में इसे सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली।
संघ विचारक और शीर्ष भाजपा नेतृत्व 2024 में सामाजिक न्याय के नए ढंग से राष्ट्रीय मुद्दा बनने की संभावना, साथ ही भाषायी-आंचलिक अस्मिताओं के सवाल उठते जाने से घबड़ाया हुआ है। इससे उसका ‘संपूर्ण हिंदू एकता’ पर आधारित पूरा हवा-महल के ध्वस्त हो जाने का खतरा है!
ठीक इसी तरह मोदी के लाभार्थी कार्ड का ब्रह्मास्त्र भी गहरे संकट में फंस गया है। दरअसल विपक्ष द्वारा इसके इस्तेमाल के खतरे को भांपते हुए उन्होंने गुजरात चुनाव के पहले से ही विपक्ष के राहत के वायदों को लक्षित करना और कथित रेवड़ी कल्चर के नाम पर उसका मजाक बनाना शुरू कर दिया था। अब कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की 5 प्रतिज्ञा/वायदों से बुरी तरह मात खाने के बाद मोदी ने इस पर हमला तेज कर दिया है।
विपक्ष पर ग़रीबों को गुमराह करने का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा कि विपक्ष अपनी नाकामियां छिपाने के लिए अब झूठी गारंटी का नया फॉर्मूला लेकर आया है, जैसे कभी उसने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। उन्होंने कहा कि विपक्ष के चुनावी वायदों से देश दिवालिया हो जाएगा।
दरअसल यह कारपोरेट घरानों, धनिकों, खाये अघाये मध्यवर्ग, समाज के ताकतवर तबकों को सन्देश है कि विपक्ष सत्ता में आ गया तो वह मोदी-भाजपा के विपरीत, देश का खजाना आम जनता और गरीबों को फायदा पहुंचाने के लिए लगा देगा ! यह विपक्ष को सत्ता में आने से रोकने के लिए उनका आह्वान है।
इस पूरे मामले में मोदी का पाखंड और वर्गीय पक्षधरता स्वतः स्पष्ट है। कारपोरेट घरानों के लिए तरह तरह से टैक्स छूट, कर्जमाफी, इंसेंटिव पैकेज, एनपीए आदि के माध्यम से देश का खजाना लुटा देने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है, लेकिन आम जनता को थोड़ी राहत मिलने से, जिससे मांग बढ़ने से अंततः देश की अवरुद्ध अर्थव्यवस्था को गति ही मिलेगी, उस पर वे देश के दिवालिया होने का हौवा खड़ा कर रहे हैं। जब स्वयं लोगों को गरीबी में धकेल कर 80 करोड़ को 5 किलो अनाज बांटें, तो वह लोककल्याण था, लेकिन जब विपक्ष किसानों को कर्जमाफी, बेरोजगारों को भत्ता, महिलाओं को पेंशन आदि द्वारा महंगाई से कुछ राहत दे तो वह रेवड़ी है और उससे देश के दिवालिया होने का खतरा है !
दरअसल, मोदी डरे हुए हैं कि विपक्ष ने कर्नाटक की तर्ज पर आगामी विधानसभा चुनावों और सबसे बढ़कर लोकसभा चुनाव के लिए कुछ बड़े वायदे मसलन किसानों की कर्ज़ माफी, किसान पेंशन, एमएसपी गारंटी कानून, नौकरियों-रोजगार सृजन, बेरोजगारों, महिलाओं के लिए बड़े पैकेज, गैस और पेट्रोल डीजल बिजली आदि को लेकर कुछ बड़े ऐलान कर दिए तो महंगाई-बेकारी से बदहाल जनता का रुख बदलते देर नहीं लगेगी और चुनाव की पूरी बाजी पलट जाएगी।
जो बड़े तबके (social blocks) मोदी को सत्ता तक पहुंचाने और 9 साल टिकाए रखने के प्रमुख आधार रहे हैं, उनकी नाराजगी भी भाजपा के लिये मुसीबत का सबब बन रही है। उनमें सबसे प्रमुख हैं बदहाल किसान और युवा जो आज न सिर्फ बुरी तरह हताश-निराश हैं बल्कि मोदी सरकार की वायदाखिलाफी से गहरे आक्रोश में हैं और लगातार आंदोलनरत हैं।
महिला पहलवानों के सवाल पर अपनी यह छवि बनाकर कि मोदी-शाह ने बेटियों की मर्यादा से खिलवाड़ करने वाले आरोपी सांसद बृजभूषण सिंह को बचाया है, सरकार ने हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी यूपी, राजस्थान पट्टी में किसान आन्दोलन और अग्निवीर के बाद आग जो थोड़ी ठंडी पड़ी थी, उसे फिर धधका दिया है। बृजभूषण के कारण गोंडा अंचल में उसे कोई लाभ होगा या नहीं और होगा तो कितना, (अगर वह भाजपा में बने रहते हैं तो, क्योंकि उनके भाजपा से इतर जाने की चर्चा भी चल रही है), यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है। पर मोदी ने अपना जो एक प्रमुख plank था, “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ ” का, जिसकी बदौलत उन्हें महिलाओं में लगातार भारी समर्थन मिल रहा था, उसे खुद ही खत्म कर दिया है। पूरे देश में, विशेषकर पश्चिमोत्तर भारत में यह आने वाले दिनों में ज्वलंत मुद्दा बना रहेगा और उस पट्टी की लगभग 40 संसदीय सीटों पर इसका सीधा असर पड़ेगा।
महिला पहलवानों के साथ हुए घोर अन्याय-अपमान-दमन, मणिपुर में बेकाबू गृह-युद्ध के हालात और बालासोर के भयानक ट्रेन हादसे ने एक ताकतवर, सक्षम नेता के बतौर मोदी की छवि को रसातल में पहुंचा दिया है और शासन के उनके नैतिक प्राधिकार तथा देश को संभाल पाने की क्षमता पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है।
पिछले 9 साल में मोदी-शाह इतने आभाहीन कभी नहीं दिखे, जितने आज हैं। मोदी शासन की साख तलहटी छू रही है। मुद्दों और रणनीति के स्तर पर भाजपा गहरे संकट और दुविधा में है। पहली बार नैरेटिव गढ़ने और उसे समाज में स्थापित करने में वह नाकाम दिख रही है।
यही वह मोड़ है जब एकताबद्ध विपक्ष, जनान्दोलन की ताकतें तथा नागरिक समाज राष्ट्रनिर्माण तथा लोककल्याण के वैकल्पिक कार्यक्रम के साथ सशक्त प्रत्याक्रमण छेड़कर फासीवादी अधिनायकवाद की ताकतों को पीछे धकेल सकते हैं। क्या 23 जून को विपक्ष की पटना बैठक से इस दिशा में निर्णायक पहल होगी ?
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)