रांची। झारखंड में लोक सभा चुनाव 2024 में आरक्षित पांच सीटों पर आदिवासियों द्वारा भाजपा को नकार दिए जाने के बाद विधानसभा चुनाव 2024 में भाजपा ने आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 सीटों पर अपनी पूरी ताकत झोंक देने के बाद भी मात्र एक ही सीट हासिल कर सकी, वह भी पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन की सीट जो चुनाव से पहले झामुमो का दामन छोड़ भाजपा में शामिल हो गए थे। वहीं 7 सीटों पर महागठबंधन से कांग्रेस के उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की, बाकी 20 सीटों पर जेएमएम का कब्जा रहा।
जिस तरह से भाजपा नेताओं द्वारा चुनाव के पहले से ही राज्य में धार्मिक ध्रुवीकरण का जाल बुनना शुरू किया गया था और बांग्लादेशी घुसपैठिए का राग अलापा जा रहा था कि, बांग्लादेशी झारखंड में अपनी घुसपैठ बनाकर आदिवासी महिलाओं से लव जिहाद कर शादी कर रहे हैं और लैंड जिहाद कर उनकी जमीनों पर कब्जा कर रहे हैं, जिससे आदिवासियों की आबादी कम हो रही है। राज्य का आदिवासी समुदाय भाजपा नेताओं के झांसे में नहीं आया।
बता दें कि विधानसभा की कुल 81 सीटों में जेएमएम को 34, कांग्रेस को 16, आरजेडी को 4 और माले को 2 मिलाकर महागठबंधन को कुल 56 सीटें हासिल हुई। जबकि एनडीए को भाजपा का 21, आजसू पार्टी, एलजेपी और जदयू के 1-1 सीटें मिलाकर कुल 24 सीटें ही हासिल हो सकी हैं। वहीं 1 सीट नया दल जेएलकेएम को मिली है।
कहना ना होगा कि झारखंड का उक्त विधानसभा चुनाव परिणाम भाजपा की साम्प्रदायिकता और विभाजनकारी राजनीति को झारखंडी जनता द्वारा करारा जवाब है। भाजपा की हार उनकी नफरती और सांप्रदायिक चुनावी अभियान को एक सीधा जवाब है। इसमें कहीं दो मत नहीं है कि इस बार भाजपा का मुख्य चुनावी एजेंडा बांग्लादेशी घुसपैठिये के नाम पर मुसलमानों के विरुद्ध साम्प्रदायिकता और नफ़रत फैलाकर आदिवासियों व अन्य समुदायों का धार्मिक ध्रुवीकरण करना था, जिसे झारखंडी मतदाताओं ने सिरे से नकार दिया।
भाजपा की इतनी जबरदस्त हार इस बात का संकेत है कि आदिवासियों ने आरएसएस के धार्मिक एजेंडा को भी नकारा है।
इतना ही नहीं झारखंड की जनता ने भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को नकारने के साथ-साथ कॉर्पोरेट राज के विरुद्ध एवं राज्य के जनमुद्दों व कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन से राज्य के विकास के पक्ष में निर्णय लिया है। अब देखना यह है कि महागठबंधन की सरकार जनता की आकांक्षाओं को अमली जामा कैसे पहनाती है। क्योंकि झारखंड अलग राज्य गठन के इस 24 वर्षों में यह पहली बार हुआ है जब किसी पार्टी को लगातार दोबारा जनाधार मिला है।
इस चुनाव में सबसे दुखद पहलू यह देखा गया कि चुनाव आयोग ने अपनी गरिमा को पूरी तरीके से भाजपा के हवाले कर दिया था। चुनाव आयोग ने कई सामाजिक संगठनों व राजनीतिक दलों द्वारा भाजपा नेताओं के विरुद्ध उनके सांप्रदायिक भाषण, धार्मिक ध्रुवीकरण करने और सोशल मीडिया पर लगातार सांप्रदायिक दुष्प्रचार करने को लेकर लगातार शिकायतों के बावजूद पूरे चुनावी अभियान में किसी प्रकार की करवाई नहीं की। बस चुनाव प्रचार के आखिरी दिनों में एक सांप्रदायिक विज्ञापन पर नाम मात्र की कार्रवाई हुई।
दूसरी तरफ यह चुनाव यह भी दर्शाता है कि कई समुदायों के बीच वर्षों से चला आ रहा राजनैतिक विभाजन अभी भी बरक़रार है। जो झारखंडी एकता और समरसता के लिए चिंताजनक है। अब महागठबंधन दलों व इनकी सरकार को इस विभाजन को पाटने की ओर कार्यवाई करने की ज़रूरत है। साथ ही, भाजपा व आरएसएस के संविधान विरोधी सांप्रदायिक राजनीति के विरुद्ध लगातार ज़मीनी संघर्ष की भी ज़रूरत है।
सामाजिक कार्यकर्ता रजनी मुर्मू भाजपा नेताओं के द्वारा बांग्लादेशी घुसपैठिए की कहानी गढ़ने और आदिवासी महिलाओं से लव जिहाद कर लैंड जिहाद करके उनकी जमीन हड़पने के आरोप पर कहती हैं-“वास्तव में भाजपा नेताओं को आदिवासी महिलाओं की फिक्र होती तो हमें खुशी ही होती। पर उनको फिक्र नहीं जलन थी.. उन संथाल महिलाओं से जो मुखिया बन गयीं थीं.. जिला परिषद अध्यक्ष बन गयीं थीं.. उनको ये बात पच ही नहीं रही थी कि संथाल औरतें इतना अच्छा जीवन कैसे जी सकतीं हैं..! उन्होंने संथाल महिलाओं की कल्पना केवल घरेलू नौकरानियां / ठेकेदारों द्वारा प्रताड़ित शोषित मजदूरों / रोड किनारे हड़िया बेचते हुए हर किसी से जलील होती हुई औरत ही देखने की आदत थी… इससे बेहतर स्थित में ये लोग आदिवासी औरतों को देखना भी पसंद नहीं करते।”
उन्होंने कहा कि अगर बीजेपी को आदिवासी औरतों की चिंता होती तो केंद्र सरकार में रहते उन आदिवासी महिलाओं के लिए योजना लेकर आती जो सड़क किनारे अपमानजनक तरीके से हड़िया बेच रही है… उन लाखों आदिवासी महिलाओं के लिए कार्यक्रम बनाती जो असुरक्षित, असंगठितघरेलू नौकरानी बनकर अमीरों के घर में काम करते हुए प्रताड़ित हो रही है… केंद्र की सत्ता में रहते हुए बीजेपी आदिवासी महिलाओं की हर समस्या पर काम करने में सक्षम थी।
चुनाव परिणाम पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेरेंज कहते हैं कि “निश्चय ही यह अप्रत्याशित जीत के लिए यह समय जश्न मनाने का है। लेकिन राजनीतिक दलों को यह बिल्कुल भी नहीं भूलना चाहिए कि राज्य की आदिवासी, मूलवासी जनता इस जीत की पहली हकदार है। हां, वो सभी राजनीतिक दल खासकर झारखंड मुक्ति मोर्चा के नायक – नायिका सहित स्थानीय प्रत्याशियों ने जिस शिद्दत से गठबंधन के मुद्दों मतदाताओं तक पहुंचाने में दिन रात एक कर दी थी। जिसका जनता ने उन्हें जीत का सेहरा देकर पुरस्कृत किया।”
जेम्स कहते हैं कि “हेमंत सोरेन के लिए बम्पर जीत का यह रास्ता बिल्कुल भी आसान नहीं रहा। उनको आदिवासियों के बीच खलनायक साबित करने के लिए केंद्र सरकार और केन्द्रीय जांच एजेन्सियों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। इस साल के जनवरी मासांत में उनको जमीन घोटाले के फर्जी मुकदमे में 5 माह तक जेल भेजा गया।”
आदिवासी समन्वय समिति के संयोजक, लक्ष्मीनारायण मुंडा कहते हैं – “झारखंड में भाजपा गठबंधन को पिछड़ने और झामुमो-कांग्रेस गठबंधन की हेमंत सोरेन सरकार की अप्रत्याशित जीत का कारण राज्य सरकार का कामकाज नहीं रहा है, बल्कि इसका मुख्य कारण आदिवासी, मुस्लिम, ईसाई, दलित, पिछड़े का बड़ा हिस्सा झारखंड में भाजपा और संघ विरोधी है। इन समुदाय के लोगों को अच्छी तरह मालूम है कि भाजपा किसी भी तरह से हम लोगों की हितैषी पार्टी नहीं है। यह चुनाव भाजपा बनाम झारखंडी अस्मिता, पहचान की लड़ाई बन गई। यह सीधे-सीधे आमने-सामने की लड़ाई बन गई। जिस कारण भाजपा गठबंधन को इस विधानसभा चुनाव में झारखंड में हार का सामना करना पड़ा है। जबकि इंडिया गठबंधन की ओर से बड़े-बड़े दावे किए जा रहे थे।”
(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट)