Saturday, April 27, 2024

ग्राउंड रिपोर्टः चंदौली में करेमुआ ब्रांड का बैंगन लील गई नौकरशाही…!

उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले का सबसे खुशहाल गांव करेमुआ अब बेनूर हो गया है। बैंगन और परवल की खेती के दम पर समूचे पूर्वांचल में अपनी तरक्की की गाथा लिखने वाला यह गांव अब इसलिए बेजार हो गया क्योंकि यहां खेतों की मिट्टी बीमार हो गई है। करेमुआ ब्रांड के जिस बैंगन के दम पर इस गांव के तमाम नौजवान इंजीनियर और बड़े-बड़े अफसर बने, अब वो गायब है। जानते हैं क्यों? बड़े पैमाने पर कीटनाशकों और उर्वरकों के इस्तेमाल के चलते इस गांव के खेतों से ऑर्गेनिक कार्बन कंटेंट लगभग गायब हो चुका है। किसी भी खेत में एक फीसदी ऑर्गेनिक कार्बन कंटेंट बढ़ने में करीब सौ बरस का वक्त लगता है।

करेमुआ चंदौली का ऐसा रिकार्डधारी गांव रहा है जहां का बैंगन और परवल कोलकाता से कराची और काठमांडू तक जाता था। इस गांव के किसानों में पहले सब्जियों की खेती को लेकर गजब का जज्बा था। करेमुआ में ऐसा बैंगन होता रहा है, जिसे पूर्वांचल के लोगों ने अब तक न देखा है, न सुना है। दरअसल, इस गांव के किसानों ने बैंगन की प्रजाति खुद ही विकसित की थी। करेमुआ ब्रांड के बैंगन में न कीड़े लगते थे और न स्वाद कसैला होता था। किसान खेत से तोड़कर कच्चे बैंगन का नाश्ता कर लेते थे। अब यहां की बीमार माटी में किसान कुछ भी उगाते हैं तो कीट हमला बोल देते हैं। अगर कुछ उग पाता है तो सिर्फ धान-गेहूं और गन्ना। कोई किसान थोड़ी मेहनत करके सब्जियां उगा भी लेता है तो नीलगायों की पल्टन समूची फसल चट कर जाती है।

राजेंद्र मौर्य, किसान

धान के कटोरा के रूप में विख्यात चंदौली के करेमुआ, भैसही और उसके आसपास के इलाकों में क्या बदला है?  बैंगन और परवल की खेती में समूचे पूर्वांचल में रिकॉर्ड बनाने वाले किसान अब क्या कर रहे हैं? यह जानने के लिए हमने इस गांव का दौरा किया। चंदौली जिला मुख्यालय से दक्षिण चंद्रप्रभा नदी के तीरे बसा है करेमुआ गांव। बैंगन की खेती के लिए इस गांव के पूर्व प्रधान राजकुमार मौर्य से मुलाकात हुई तो उन्होंने अपने खेतों को दिखाया और कहा, “अब हमारे गांव में वो बात नहीं है। बैंगन की खेती से मिली शोहरत मिट्टी में मिल गई है। अब कोई यह नहीं जानता कि करेमुआ गांव का बैंगन कभी देश भर में सरनाम था। हमें याद है कि बनारस के रामेश्वर इलाके में लगने वाले लोटा-भंटा मेले में हमारे बैंगन की लूट मच जाया करती थी। उन दिनों यहां अफसरों और नेताओं का जमघट लगा करता था। अफसोस यह है कि अब करेमुआ और इससे सटे भैसही गांव में कोई नहीं आता है।”

करेमुआ के पूर्व प्रधान राजकुमार मौर्य

करेमुआ गांव के एक प्रगतिशील किसान हैं होरीलाल। इनकी कई पीढ़ियां बैंगन की खेती करती आ रही हैं। वह कहते हैं, “हमारे गांव में अब कोई बैंगन नहीं उगाना चाहता, क्योंकि इसकी खेती अब मुनाफे का सौदा नहीं है। एक वक्त वह भी था जब करेमुआ का बैंगन जैसे ही बनारस की सब्जी मंडी में पहुंचता था, लूट मच जाती थी। पूर्वांचल भर के लोग आज भी करेमुआ का बैंगन ढूंढते हैं। साथ ही उस बैगन के स्वाद का गुणगान करते नहीं थकते। इस बैंगन का चोखा बेहद लजीज बनाता, जिसके चलते उसका हर कोई दीवाना था। उद्यान महकमे के अफसर और तमाम नेता हमारे गांव में आते-जाते रहे। बैंगन का स्वाद भी चखते रहे, लेकिन किसी ने यहां की बीमार होती माटी पर ध्यान नहीं दिया। जागरूकता के अभाव में हमारे गांव की माटी में न जाने कैसी बीमारी घुस गई कि नई पीढ़ी ने बैंगन की खेती से तौबा कर लिया।”

करेमुआ गांव के प्रगतिशील किसान होरीलाल

बैंगन से भंग हो गया मोह

करेमुआ गांव के संतोष मौर्य कहते हैं, “हमारे गांव से सटी चंद्रप्रभा नदी पहले किसानों के लिए वरदान हुआ करती थी। इस नदी के पानी से हम अपने खेत सींच लिया करते थे। करेमुआ और उससे सटे भैसही गांव के किसानों के बच्चे नदी पार कर पढ़ाई करने बबुरी जाया करते थे। इसके लिए चंद्रप्रभा नदी कभी तैरकर पार करनी पड़ती थी तो कभी कड़ाहे पर बैठकर। कभी मोटे पेड़ों की बल्लियों पर सवार होकर। पुरनिया बताते हैं कि चंद्रप्रभा नदी पहले करेम से अटी-पड़ी रहती थी। भूख और गरीबी से बेहाल लोग जिंदगी बचाने के लिए करेमुआ आते थे और नदी से करेम निकालकर उसका साग और सब्जियां बनाते थे। जो नदी हमारे लिए वरदान थी, वो अब मुसीबत का सबब बन गई है। यह नदी गर्मियों में सूख जाती है। नीलगायों का जखेड़ा नदी में जहां-तहां छिपे रहते हैं। शाम ढलते ही करेमुआ गांव में धावा बोल देते हैं। जिन किसानों ने नीलगायों से बचाव का इंतजाम नहीं कर रखा होता है, उनकी समूची फसल ही चौपट हो जाया करती है।”

किसान संतोष मौर्य

करेमुआ के जयराम पांडेय की कई पीढ़ियां बैंगन और परवल की खेती किया करती थी, लेकिन अब इनके कुनबे का मोह भंग हो गया है। अब न कोई बैंगन उगाता है और न ही परवल। वह कहते हैं, “करेमुआ ब्रांड के जिस बैंगन ने हमारे गांव के जिन किसानों को आर्थिक संबल देकर उनके बेटे-बेटियों को शिखर तक पहुंचाया, आज उसे अपनाने के लिए कोई तैयार नहीं है। नतीजा, संरक्षण के अभाव में करेमुआ ब्रांड के बैंगन की सालों पुरानी प्रजाति विलुप्त हो गई। एक वक्त वह भी था जब करेमुआ के खेतों में उगाया जाने वाले बैंगन का वजन एक से दो किग्रा तक हुआ करता था। इस गांव की मिट्टी में न जाने कौन सी बीमारी लगी कि बैंगन की खेती रसातल में मिल गई। बैंगन की करेमुआ ब्रांड प्रजाति का अब कहीं नहीं बची है।”

करेमुआ के लोग बताते हैं कि तत्कालीन सांसद आनंदरत्न मौर्य ने इस गांव के किसानों की पीड़ा समझा तो पुल बनवा दिया। यह बात करीब तीन दशक पुरानी है। करेमुआ और भैसही में तरक्की तो आई, लेकिन वो अपने साथ करेम, करैला, बैगन और परवल की खेती ले गई। सिर्फ सब्जियों की खेती ही नहीं, बाकी फसलों दायरा भी सिमटता चला गया। अब यहां धान-गेहूं के अलावा कुछ नहीं होता। चंदौली की युवा पीढ़ी अब न करेम के स्वाद को पहचानती है और न ही करेमुआ को जानती है।”

करेमुआ गांव में खेत में काम करता एक किसान

करेमुआ के प्रगतिशील किसान कमलेश मौर्य को इस बात का अफसोस है कि रासायनिक उर्वरकों के अलावा बैंगन की हाईब्रिड प्रजातियों ने करेमुआ ब्रांड के बैंगन का सफाया कर दिया। वह कहते है, “ज्यादा मुनाफे के लालच में अधिक उत्पादन देने वाली बेस्वाद वाले बैंगन के प्रति किसानों का रुझान बढ़ा है। इस गांव के किसान बैंगन के बजाए कद्दूवर्गीय सब्जियों की खेती को अहिमयत दे रहे हैं। उद्यान विभाग ने करेमुआ-भैसही में बैंगन की सामूहिक खेती को बढ़ावा देने और सब्जियों की सुदृढ़ विपणन व्यवस्था कराने की जरूरत आज तक नहीं समझी।”

रिकार्डधारी गांव था करेमुआ

सब्जियों की खेती में रिकॉर्ड बनाने के बाद करेमुआ और भैसही कई बदलावों का गवाह बन रहा है। प्रगतिशील किसान संतोष मौर्य कहते हैं, “बैंगन की खेती करने वाले किसान इसलिए तबाह हो गए, क्योंकि प्राकृतिक तकनीक से खेती नहीं की। अधिक मुनाफा कमाने के लिए उन्होंने अपने खेतों में अंधाधुंध कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल किया। नतीजा करेमुआ के खेतों से ऑर्गेनिक कार्बन कंटेंट गायब हो गए। अब इस गांव के कुछ किसान खेतों का माइक्रोन्यूट्रेंट बढ़ाने के लिए नीम, धतूरा, अदरक, हल्दी, घास-फूस के अलावा गोबर, गोमूत्र, गुड़ और सूखे पत्तों का इस्तेमाल कर रहे हैं। साथ ही मित्र कीट भी पैदा कर रहे हैं। करेमुआ की मिट्टी इस कदर बीमार हो गई है कि वहां धान-गेहूं के अलावा कोई दूसरी फसल उगती ही नहीं है।”

करेमुआ गांव में गन्ने का खेत

करेमुआ के समीपवर्ती गांव जरखोर के प्रगतिशील किसान आनंद सिंह पेशे से पत्रकार हैं। ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन की कमान भी इन्हीं के पास है। वह कहते हैं, “चंदौली के बैंगन रामनगर जाइंट के साथ करेमुआ ब्रांड को अब कोई जानता भी नहीं। पिछले साल रामनगर जाइंट बैंगन को जीआई टैग मिल गया, लेकिन करेमुआ ब्रांड के बैंगन का कहीं अता-पता ही नहीं है। पुरनिया बताते हैं कि इन दोनों प्रजातियों का बीज जापान और अमेरिका के वैज्ञानिक अपने यहां ले गए थे। करेमुआ ब्रांड के बैंगन के जीन से विदेशियों ने अपने यहां स्थानीय मौसम के अनुकूल पैदा होने वाली बैंगन की तमाम प्रजातियां विकसित कर लीं। उद्यान विभाग के अफसरों ने बैंगन की दोनों प्रजातियों को संरक्षित कर इसकी खेती को बढ़ावा देने जरूरत नहीं समझी। बैंगन की दोनों प्रजातियों के खेती का ब्योरा चंदौली स्थित उद्यान विभाग की फाइलों से गायब है।”

आनंद कहते हैं, “ऑर्गेनिक कार्बन कंटेंट किसी खेत की मिट्टी को उपजाऊ बनाने में सबसे अहम भूमिका अदा करता है। जिस खेत में इसकी पर्याप्त मात्रा होती है उसमें पैदावार और उत्पाद की गुणवत्ता दोनों ही अच्छी होती हैं। किसी भी खेत खेत में एक फीसदी ऑर्गेनिक कार्बन कंटेंट बढ़ने में 100 साल से अधिक का समय लगता है। आमतौर पर जिस खेती की मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन कंटेट अधिक रहेगा उस खेत में पैदावार भी अच्छी होगी औऱ उपज की गुणवत्ता भी अच्छी रहेगी। रासायनिक खाद और कीटनाशक का इस्तेमाल करने पर मिट्टी में जैविक कार्बन कंटेंट की मात्रा घट जाती है, जिसके चलते पैदावार में कमी आ जाती है।”

करेमुआ ब्रांड का वो बैगन जो लुप्त हो गया

“एक देसी गाय को पालकर करीब 30 एकड़ कृषि भूमि पर प्राकृतिक खेती की जा सकती है। यह जीरो बजट प्राकृतिक खेती एक ऐसी कृषि पद्धति है जो जमीन की उर्वरता बढ़ाती है। पर्यावरण संरक्षक है। इंसान को ज़हरमुक्त भोजन उपलब्ध करने का भी एक यही तरीका है। स्वास्थ्य के लिए उपयोगी, किसानों की आय बढ़ाने वाली और गाय संवर्द्धक है। प्राकृतिक खेती में रासायनिक खेती की तुलना में महज 40 प्रतिशत ही पानी खर्च होता है। इसलिए रोग की संभावना कम हो जाती है।”

मिट्टी के पोषक तत्व ही गायब

चंदौली कृषि विज्ञान केंद्र के विषय वस्तु विशेषज्ञ डा. हनुमान प्रसाद पांडेय कहते हैं, “जनपद में रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल करने वाले चंदौली के खेतों में ऑर्गेनिक कार्बन का स्तर 0.2 से 0.4 फीसदी रह गया है, जबकि वह 0.8 फीसदी से ज्यादा होना चाहिए। ऑर्गेनिक कार्बन में सभी पोषक तत्वों का सोर्स होता है। इसकी कमी से पौधे का विकास रुक जाता है। उनमें रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है। कुछ साल पहले तक चंदौली के इंडो-गंगेटिक इलाकों में औसत आर्गेनिक कार्बन 0.5 फीसदी हुआ करता था। रासायनिक उर्वरकों के साइड इफेक्ट के चलते वह घटकर 0.2 फीसदी रह गया है। चंदौली में नौगढ़ इलाके को छोड़ दें तो चकिया, चंदौली, चहनिया में आर्गेनिक कार्बन की स्थिति निचले पायदान पर पहुंच चुकी है। जंगल और पहाड़ों के चलते नौगढ़ में आर्गेनिक कार्बन की मात्रा अभी 0.5 फीसदी है।”

करेमुआ में एक किसान के खेत में गोभी की फसल

डा. हनुमान बताते हैं, “सिर्फ चंदौली ही नहीं, पूर्वांचल के वाराणसी,  गाजीपुर,  जौनपुर,  मऊ,  बलिया,  देवरिया,  गोरखपुर, भदोही, मिर्जापुर, सोनभद्र, प्रयागराज, कौशांबी तक की मांटी में आर्गेनिक कार्बन की मात्रा नहीं के बराबर रह गई है, जिसके चलते खेती-किसानी महंगी होती जा रही है। पैदावार बढ़ाने के लिए किसानों को जिंक,  बोराना,  सल्फर के अलावा तमाम दूसरे माइक्रो न्यूट्रेंट डालने पड़ रहे हैं। पूर्वांचल की माटी से नाइट्रोजन का दोहन बड़े पैमाने पर किए जाने के कारण न सिर्फ मिट्टी बीमार पड़ती जा रही है, बल्कि इन्वायरनमेंट भी प्रदूषित हो रहा है।”

डा.पांडेय के मुताबिक, “वातावरण में मुक्त कार्बन डाई ऑक्साइड को पौधे कार्बन के जैविक रूप जैसे शर्करा, स्टार्च,  सेल्यूलोज आदि कार्बोहाइड्रेट में परिवर्तित करते हैं। इस प्रकार प्राकृतिक रूप से पौधों की जड़ों व अन्य पादप अवशेषों में मौजूद कार्बन इन अवशेषों के विघटन के बाद मृदा कार्बन के रूप में संचित होता है। इसे ही मृदा जैविक या जीवांश कार्बन कहा जाता है। कार्बन पदार्थ कृषि के लिए बहुत लाभकारी है, क्योंकि यह भूमि को सामान्य बनाए रखता है। यह मिट्टी को ऊसर, बंजर, अम्लीय या क्षारीय होने से बचाता है। जमीन में इसकी मात्रा अधिक होने से मिट्टी की भौतिक एवं रासायनिक ताकत बढ़ जाती है तथा इसकी संरचना भी बेहतर हो जाती है। साथ ही जल को अवशोषित करने की क्षमता भी बढ़ जाती है।”

क्या है आर्गेनिक कार्बन

वाराणसी स्थित कृषि विज्ञान केंद्र के प्रभारी एवं वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. नरेंद्र रघुवंशी कहते हैं, “आर्गेनिक कार्बन व सल्फर मिट्टी में पाए जाने वाले सूक्ष्म तत्व होते हैं। इन्हीं से पौधों का विकास होता है। इनकी कमी से पौधे विकसित नहीं होते और रोगों से लड़ने की क्षमता भी कम हो जाती है। फसलों की पत्ती पीली पड़ने लगती है। उत्पादन क्षमता घट जाती है। किसी भी खेत की मिट्‌टी में यह फसलों के लिए बेसिक तत्व होता है। इसमें नाइट्रोजन व सल्फर होता है। आर्गेनिक कार्बन कम होने का सीधा असर नाइट्रोजन पर पड़ता है।”

“नाइट्रोजन फसल का मुख्य पोषक तत्व होता है। इस वजह से यहां पर खेतों में घास बहुत ही कम उगती है। गर्मियों के दो महीने में आर्गेनिक कार्बन खत्म हो जाता है। यदि खेतों में घास भरपूर मात्रा में उगे तो आर्गनिक कार्बन का स्तर बढ़ सकता है। ऑर्गेनिक कार्बन में सारे पोषक तत्वों का सोर्स होता है। इसकी कमी से पौधे का विकास रुक जाता है। उनमें रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है। कुछ साल पहले तक इंडो-गंगेटिक प्लेन में औसत आर्गेनिक कार्बन 0.5 फीसदी हुआ करता था, जो रासायनिक खादों के साइड इफेक्ट से अब घटकर 0.2 फीसदी रह गया है।”

करेमुआ गांव में सब्जियों की खेती

डा.रघुवंशी कहते हैं,”मृदा में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों में वांछित कार्बन को मृदा ऑर्गेनिक कार्बन कहते हैं। मृदा में मिलाए गए अथवा उपस्थित वानस्पतिक व जन्तु अवशेष, सूक्ष्मजीव, कीड़े, मकोड़े, अन्य जन्तुओं के मृत शरीर, गोबर की खाद, वर्मी कम्पोस्ट, हरी खाद, राख आदि मृदा कार्बनिक पदार्थ कहलाते हैं। यह मृदा कार्बनिक पदार्थ विच्छेदन व संश्लेषण प्रतिक्रियाओं द्वारा ह्यूमस बनाता है। कार्बन पदार्थ कृषि के लिए बहुत लाभकारी है, क्योंकि इससे भूमि का पीएच मान सामान्य रहता है। भूमि में इसकी अधिकता से मिट्टी की भौतिक और रासायनिक गुणवत्ता बढ़ती है।”

“बैंगन की खेतों में उर्वरक और कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से बीमार हो चुकी करेमुआ और भैसही की मिट्टी अब तभी ठीक हो पाएगी, जब किसान गोबर की खाद, हरी खाद आदि जैव उर्वरक जैसे एजोस्पाइरिलम, राइजोबियम, नील हरित शैवाल, फॉस्फोरस घुलनकारी सूक्ष्मजीव तथा वैस्कुलर आरबस्कुलर माइकोराइजा, फफूंद आदि का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर करेंगे। दरअसल, ऑर्गेनिक कार्बन के चलते ही जमीन की भौतिक गुणवत्ता में सुधार होता है और मृदा संरचना, जल ग्रहण शक्ति में इजाफा होता है। जरूरत इस बात की है कि करेमुआ के लोग प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दें, ताकि उनके खेतों की बीमार मिट्टी फिर से उपजाऊ बन सके।”

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

जनचौक से जुड़े

5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles