मानव जाति और धरती के अस्तित्व के लिए पूंजीवाद खतरा बन चुका                    

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कोरोना महामारी के विगत तीन वर्षों में यह बात बहुत ज़ोर-शोर से फिर कही जाने लगी कि मनुष्य का जीव-जंतुओं के जीवन में अनाधिकृत हस्तक्षेप यानी कि जंगलों को नष्ट करना और हर प्रकार के जीव-जंतुओं के मांस‌ को खाना अर्थात पर्यावरण का व्यापक विनाश इस महामारी का कारण है। यह भी माना जाता है कि वनों के लगातार दोहन और कार्बन गैसों के ज्यादा उत्सर्जन के परिणामस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग हो रही है, जिससे धरती तेजी से गर्म हो रही है।

इस जलवायु परिवर्तन से ग्लेशियर तथा ध्रुवों की बर्फ गल रही है, जिसके कारण एक ओर तो कई द्वीपीय देशों का इस सदी के अन्त तक डूबने का ख़तरा मंडरा रहा है, दूसरी ओर अनेक नये-नये वैक्टीरिया और वायरस पनप रहे हैं। बहुत सी पुरानी महामारियों के सुप्त वायरस बदलते वातावरण के अनुकूल नये-नये रूप धारण करके एक बार पुनः भयंकर महामारियों को फैला रहे हैं,जिससे सम्पूर्ण मानवजाति के अस्तित्व के लिए ही ख़तरा उत्पन्न हो गया है।

यह सही है कि पिछली दो शताब्दियों में यूरोप और अमेरिका में जबरदस्त औद्योगिक विकास हुआ। इस पूंजीवादी विकास ने काफी हद तक वहां के लोगों का जीवन स्तर तो ऊंचा किया, लेकिन इसकी कीमत उन्हें भयंकर पर्यावरण विनाश से चुकानी पड़ी, जिसमें वनों का विनाश और नदियों का भयानक रूप से दूषित होना शामिल है। तीसरी दुनिया के अनेक देशों जैसे चीन, भारत, ब्राजील और मैक्सिको आदि में भी बड़े पैमाने पर औद्योगिक विकास शुरू हुआ।

परिणामस्वरूप यहां भी पर्यावरण संकट तेजी से बढ़ा। यहां यह‌ संकट पश्चिम जगत से अधिक बड़ा और भयानक है, क्योंकि यहां निर्धनता में डूबी विशाल आबादी है, जिसके लिए पर्यावरण से ज़्यादा महत्वपूर्ण अपने लिए जीविका के संसाधन जुटाना है। पिछले वर्ष जब ब्राजील के राष्ट्रपति बोलोसोरो’ ने वहां पर स्थित दुनिया के सबसे घने प्राकृतिक अमेज़न के वर्षा वनों को काटने की बात की, तो सारे पश्चिमी जगत में उनकी व्यापक आलोचना हुई, क्योंकि अमेज़न के वर्षा वनों को दुनिया का फेफड़ा भी कहा जाता है। ‍

पश्चिम ने विकास की पर्यावरण अनुकूल टेक्नोलॉजी उत्पन्न कर ली है, जो अत्यन्त महंगे होने के कारण वह लगातार इसे तीसरी दुनिया के देशों को देने से इंकार भी करता रहा है। इन अन्तर्विरोधों का ‘जॉन बेलानी फोस्टर’; जो ‘प्रतिष्ठित वामपंथी पत्रिका ‘मंथली रिव्यू’ के सम्पादक’ हैं तथा ‘ओरेगन विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर’ हैं। उनकी यह पुस्तक ‘इकोलॉजी अगेंस्ट कैपिटलिज्म’ है, जिसका हिन्दी अनुवाद ‘पारिस्थितिकी पूंजीवाद के ख़िलाफ़’ है। इस विषय पर एक बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक है।

यह पुस्तक अनेक कारणों से बहुत महत्वपूर्ण है। जहां एक ओर यह बताती है कि पूंंजीवाद अपने मुनाफ़े के होड़ के लिए किस तरह पर्यावरण को नष्ट कर रहा है, दूसरी ओर अन्तर्विरोध भी यह है कि ‘अगर दुनिया ही नहीं बचेगी, तो वे लूट कहां करेंगे।’ जब पर्यावरण का मामला इस सदी की शुरुआत में पश्चिम में तेज़ी से उभरा, तो वामपंथियों का एक बड़ा समूह भी यह मानता था कि यह पूंजीवाद का शगूफ़ा है। समाजवाद ही इन समस्याओं का हल है, परन्तु उनके लिए भी वही मुद्दा है कि समाजवाद की रचना के लिए दुनिया बचाना बहुत ज़रूरी है।

पुस्तक के लेखक फोस्टर ने अपनी पुस्तक में इन प्रश्नों का बख़ूबी जवाब दिया है। बारह अध्यायों में बंटी अपनी पुस्तक के पहले अध्याय में वे लिखते हैं कि,”मानवता की दशा के पारिस्थितिक आधार को स्वीकार करने में इस आम असफलता के असंख्य कारण हैं। कई लोगों ने इसे पश्चिमी सभ्यता की एक गहरी सांस्कृतिक बुराई के रूप में देखा है, जो ‘प्रकृति के ऊपर वर्चस्व’ की धारणा का नतीज़ा है, जिसके मुताबिक प्रकृति का अस्तित्व मनुष्य की सेवा करने के लिए है और उसे मानव का एक सेवक होना है, लेकिन समकालीन समाज प्रकृति के ऊपर मानव की सम्पूर्ण निर्भरता को स्वीकारने से क्यों इंकार करता है? इसका जवाब निस्संदेह पूँजीवादी व्यवस्था के विस्तारवादी तर्क से सम्बन्ध रखता है, जो पूंजी के रूप में सम्पत्ति के संचय को समाज का सर्वोत्तम लक्ष्य मानता है।”

इसी अध्याय में वे लिखते हैं कि,”अमेरिका जो दुनिया के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के एक चौथाई के लिए अकेला ज़िम्मेदार है, उसका जलवायु समझौते का हिस्सा बनने से इंकार करना बॉन में किए गए समझौते की एक बहुत बड़ी विफलता थी। 11 जून 2001 को राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने एक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने अपने प्रशासन द्वारा क्योटो प्रोटोकॉल का समर्थन करने से इंकार करने के बारे में मार्च में अपनाई गई नीति को दोहराया।” (पृष्ठ संख्या-13)

वे यह भी लिखते हैं कि “कार्बन आधारित पूंजीवाद अर्थव्यवस्थाओं में मुनाफ़े की दर अधिक होती है, इसलिए अमेरिका इसे नहीं छोड़ना चाहता है।” 

वे एक अन्य अध्याय में लिखते हैं कि,”पूंजीवाद का विकास टिकाऊ नहीं है, फिर भी दुनिया के प्राकृतिक और भौतिक वैज्ञानिक; जिन्होंने मानवता और ग्रह के सामने आने वाले ख़तरों के बारे में हमें सचेत करने के लिए बहुत कुछ किया है। समस्या की जड़ों को (यह ख़तरे की भयावहता, जो हमारे सामने मंडरा रही हैं) समझने के लिए वे तैयार नहीं हैं, क्योंकि वे आम तौर से इस पारिस्थितिक संकट के तहत आने वाली सामाजिक समस्याओं का लेखा-जोखा लेने में असमर्थ हैं, जो ऐसे स्पष्टीकरण की मांग करते हैं, जो जीव विज्ञान, जनसांख्यिकी और प्रौद्योगिकी जैसे कारकों से परे जाते हैं। उत्पादन के ऐतिहासिक रूपों और विशेष रूप से पूँजीवाद को सम्बोधित करने से बचते हैं। (पृष्ठ संख्या-85)

वे कहते हैं कि,”अमेरिका में हाल के वर्षों के दौरान राजनीतिक जीवन में पर्यावरण सम्बन्धी चिन्ताएं अधिक दिखाई देने लगी हैं, परन्तु अधिकांश वे सभी नैतिक भावनाओं से प्रेरित हैं, जैसे भविष्य की पीढ़ियों के प्रति दायित्व की भावना, भूमि और वनजीवन के उपयोग और दुरुपयोग के बारे में ग़लतफ़हमी, परन्तु ये नैतिक भावनाएं पर्यावरण की तबाही के पीछे साम्राज्यवादी मुनाफ़े की होड़ को निकालते हैं।” इसलिए अकसर इस मामले में तीसरी दुनिया पर दोष मढ़ दिया जाता है। जहां पर व्यापक पैमाने पर्यावरण का विनाश हो रहा है।

यह बात यहां तक पहुंची है कि पर्यावरण विनाश के लिए एक समय में धान की पैदावार से मीथेन गैस उत्पन्न होने की बात कही जाने लगी तथा इसके लिए कृषि का रकबा घटाने की भी बात तक कही गई। वास्तव में इसका ज़ोर तीसरी दुनिया की ओर ही था। लेखक का यह मानना है कि अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के पास भी अब बहुत ज़्यादा विकल्प शेष नहीं बचे हैं। पर्यावरण विनाश रोकने के लिए तीसरी दुनिया को लेना अब उनके लिए ज़रूरी हो गया है।

यह पुस्तक मुझे इसलिए महत्वपूर्ण लगती है कि इसमें व्यापक रूप से ये आंकड़े देकर बताया गया है कि किस प्रकार अमेरिका, पश्चिमी देशों तथा तीसरी दुनिया के देशों में पूँजीवाद मुनाफ़े की होड़ से पर्यावरण का विनाश कर रहा है, जिसके कारण कृषि योग्य ज़मीनों का बंजर होना, समुद्रों में पारिस्थितिकी तंत्र के नष्ट होने के कारण बड़े पैमाने पर समुद्री जीव-जंतुओं का नष्ट होना और वर्षा का बहुत अधिक या बहुत कम होना; इन सबके भयानक दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं तथा भविष्य में और भी अधिक आएँगे, इसलिए आज पर्यावरण को बचाना सभी के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए।

इस पुस्तक के बारे में ‘डिवाडेड प्लेनेट द इकोलॉजी ऑफ रिच एण्ड पूअर’ के लेखक ‘टॉम अथानासीउ लिखते हैं,”पारिस्थितिकी पूँजीवाद के ख़िलाफ़’ एक अच्छी और सही समय पर लिखी गई किताब है। बुलबुला फूट चुका है, धरती गर्म हो रही है, बुनियादी सवाल फिर से सामने आ रहे हैं। सौभाग्य से फोस्टर ज़वाब देते हैं, जो सिर्फ़ वही कर सकते हैं संतुलित और स्पष्ट।

मुझे लगता है कि आज के दौर की पर्यावरणीय चिन्ताओं पर यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है और इसका हिन्दी-अनुवाद और भी महत्वपूर्ण है। निश्चित रूप से इसके प्रकाशक और अनुवादक बधाई के पात्र हैं।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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