जातिगत जनगणना: अब टाल-मटोल से किसी की दाल नहीं गलेगी

भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन में ‘जातिगत जनगणना’ ने अब एक ज्वलन्त मुद्दे का आकार ले लिया है। वर्ना 119 साल में पहली बार दलित समुदाय के सतीश कुमार को रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष (CRB) के पद के लिए क्यों चुना जाता ?

सियासी मायने में इसे राहुल गांधी के प्रभाव की तरह भी देखा गया है। क्योंकि वो ही इस बात को पुरज़ोर ढंग से उठाते रहे हैं कि नौकरशाही के शीर्ष पदों पर 90 प्रतिशत भारतीय समुदाय का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। इसीलिए सामाजिक न्याय को हासिल करने के लिए जातिगत जनगणना ज़रूरी है।

बदलते दौर की सच्चाई तो ये है कि अब किसी भी राजनीतिक दल के लिए ‘जातिगत जनगणना’ से निरपेक्ष रह पाना सम्भव नहीं हो सकता। इसीलिए निरपेक्ष दलों के लिए सबसे सूझबूझ भरा और दूरदर्शी रवैया यही होगा कि वो जल्द से जल्द इस मुद्दे को समाज के नये प्रतिमानों (yardsticks) और राजनीति के अपने खेल के अनुरूप ढाल लें।

इस मक़सद में जो दल पिछड़ जाएंगे, उन्हें आज नहीं तो कल, ख़ामियाज़ा भुगतना होगा।

ब्रिटिश राज की मिसाल

‘जातिगत जनगणना’ की गम्भीरता को आसानी से समझने के लिए हम स्वतंत्रता आन्दोलन के उस माहौल की मिसाल ले सकते हैं जिसमें अंग्रेज़ों ने 1920 के आसपास ही ये समझना शुरू कर दिया था कि उनकी शोषणकारी सत्ता अब भारत पर लम्बे अरसे तक नहीं टिकने वाली।

लिहाज़ा, अपनी सत्ता को टिकाऊ बनाने के लिए उन्हें ‘फूट डालो और राज करो’ यानी ‘Divide and Rule’ की नीति बनायी। इससे भी उनकी सत्ता महज दो-ढाई दशक तक ही और खिंच सकी। लेकिन इसने भारतीय समाज को धार्मिक और जातिगत कट्टरता की अन्तहीन आग में झोंक दिया और जाते-जाते भी देश के टुकड़े कर गये।

आज़ादी के बाद, संविधान की भावना के अनुरूप, भारतीय समाज में सदियों से क़ायम जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न से उबरने और ‘सामाजिक न्याय’ के लक्ष्य को हासिल करने लिए ‘आरक्षण’ की नीति अपनायी गयी। किसी भी अन्य नीति की तरह ‘आरक्षण’ भी दोष-विहीन नहीं रही।

बावजूद इसके ‘आरक्षण’ को ही सामाजिक न्याय का सबसे त्वरित और व्यावहारिक समाधान माना गया। दोष-निदान के उपाय की वजह से ही ‘आरक्षण’ की शुरुआती मियाद दस साल तय हुई। कालान्तर में देश में यही व्यापक सहमति बनी कि ‘आरक्षण’ तब तक जारी रहेगा जब तक जातिगत भेदभाव मौजूद है।

आरक्षण से घटा जातिगत भेदभाव

निर्विवाद है कि आरक्षण ने जातिगत भेदभाव को घटाने और दबे-कुचले तथा ग़रीब लोगों को आगे आने का मौक़ा दिया

आरक्षण के दो पहलू हैं। पहला, SC-ST आरक्षण, जो संविधान के साथ ही लागू हुआ। दूसरा, OBC आरक्षण, जिसकी मंडल आयोग ने सिफ़ारिश की। इसे 1978 में मोरारजी सरकार ने बनाया था। 1980 में इसकी रिपोर्ट आयी। 1990 में इसे विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने लागू किया। 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को 50 प्रतिशत तक सीमित कर दिया।

OBC आरक्षण लागू होने के बाद कई जातीय समूहों ने उग्र आन्दोलनों के ज़रिये इसका लाभ पाने की कोशिशें कीं। अनेक राज्य सरकारों ने क़ानून बनाकर OBC आरक्षण का दायरा बढ़ाना चाहा लेकिन अदालतों ने कभी इसे संविधान सम्मत नहीं माना। इस बीच, ‘आरक्षण’ विरोधियों, ख़ासकर सवर्ण या अगड़ी जातियों ने भी हमेशा इसकी समीक्षा की मांग की और उग्र विरोध तक किया।

‘आरक्षण’ अब भी जब-तब भारतीय समाज में भारी उथल-पुथल पैदा करता है। अनुसूचित जाति SC में भी क्रीमीलेयर का वर्गीकरण करने सम्बन्धी सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फ़ैसले ने भी ‘आरक्षण में एक और नया आयाम जोड़ दिया।

आरक्षण के लिए अनेक हिंसक उबाल

नरेन्द्र मोदी सरकार को भी जाट, गुर्जर और मराठा आरक्षण की मांग को लेकर हिंसक उबाल का सामना करना पड़ा। अलबत्ता, वो ग़रीब सवर्णों को 10 प्रतिशत का EWS कोटा देने में सफल रही। इसे जातिगत आरक्षण नहीं माना गया। 2017 में मोदी सरकार ने OBC आरक्षण को न्यायसंगत बनाने का सुझाव देने के लिए रोहिणी आयोग बनाया।

इसने केन्द्रीय सूची में शामिल 2,600 ओबीसी जातियों को चार उप-श्रेणियों में बांटा और बताया कि नौकरियों तथा शिक्षा संस्थानों में ओबीसी आरक्षण की 97 प्रतिशत सीटें सभी उप-श्रेणियों के महज 25 प्रतिशत हिस्से को ही मिली हैं।

रोहिणी आयोग ने उन पिछड़ी जातियों की भी पहचान की जिन्हें आरक्षण का सबसे कम लाभ मिला। दिसम्बर 2018 के विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद बीजेपी ने इस ओर अपने क़दम सुस्त कर दिये। उसे डर था कि कहीं ओबीसी में उप-श्रेणियों के निर्धारण से चुनावी नुकसान न हो जाए।

जातिगत जनगणना को लेकर भी बीजेपी को यही डर सता रहा है। पार्टी की भूल है कि अनिर्णय से सत्ता की चुनौतियां घटती नहीं बल्कि बढ़ती हैं!

संघ और बीजेपी ने बदला रवैया

बीजेपी का वैचारिक थिंक टैंक ‘RSS’ तब तक आरक्षण की समीक्षा की दुहाई देता रही जब तक पार्टी प्रतिपक्ष में थी। तब इसका मुख्य जनाधार कुछेक सवर्ण (अगड़ी) जातियों तक सीमित था।

कालान्तर में जब बीजेपी को OBC तथा SC-ST का भी समर्थन मिलने लगा तो RSS ने भी आरक्षण पर अपना रुख़ बदल लिया। RSS और बीजेपी दोनों के शीर्ष नेतृत्व ने ऐलान किया कि आरक्षण कभी ख़त्म नहीं होगा।

बीजेपी के उभार से देश की राजनीति ने ऐसी करवट ली कि कांग्रेस का परम्परागत जातीय जनाधार उसके हाथों से फिसल गया। कहीं इससे क्षेत्रीय दलों को ताक़त मिली तो कहीं बीजेपी को।

गहन चिन्तन के बाद कांग्रेस के रणनीतिकारों ने पाया कि सामाजिक न्याय की मौजूदा चुनौतियों से निपटने और अपने जातीय जनाधार को फिर से हासिल करने के लिए जातीय जनगणना ज़रूरी है। इसके बग़ैर सामाजिक न्याय को ज़्यादा प्रभावी नहीं बनाया जा सकता। वक़्त के साथ पनपी ख़ामियों को दूर किये बग़ैर आरक्षण को 50 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं बढ़ाया जा सकता।

जारी हों 2011 के जातिगत आंकड़े

मनमोहन सिंह सरकार ने 2011 की दशकीय जनगणना (decadal census) के साथ ही सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (Socio Economic Caste Census) भी करवाने का फ़ैसला लिया, क्योंकि पिछली जातीय जनगणना 1931 में हुई थी।

80-90 साल पुराने आंकड़े न तो सरकारी नीतियों को सही दिशा दे रहे थे और ना ही राजनीति को। 2011 तक सभी सरकारों ने जातिगत जनगणना से परहेज़ किया कि क्योंकि इससे जातिगत विभाजन मज़बूत होगा तथा जातिमुक्त समाज की सोच को चोट लगेगी।

इसके विपरीत तक़रीबन सभी दलों और सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं ने स्वीकार किया कि जाति की कुप्रथा अब भी भारतीय समाज की हक़ीक़त है। लिहाज़ा, जातिगत जनगणना से मुंह फेरने का मतलब है सच्चाई को नकारना।

बहरहाल, 2011 में जातिगत जनगणना हुई। हालांकि, इसके आंकड़े जारी होने से पहले मनमोहन सिंह सरकार चली गयी। मोदी राज में कांग्रेस ने जातिगत जनगणना का ख़ूब इन्तज़ार किया। इसके आंकड़े जारी करने की मांग की। लेकिन मोदी सरकार राज़ी नहीं हुई।

बीजेपी पर हावी है अनिर्णय

2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने जातिगत जनगणना को अहम मुद्दा बनाया। बीजेपी के पास इसकी ठोस काट नहीं थी। बीजेपी ने कभी नहीं कहा कि वो 2011 के आंकड़े जारी ही नहीं करेगी और ना ही कहा कि वो जातिगत जनगणना के ख़िलाफ़ है।

यही अनिर्णय है। बीजेपी इस मुद्दे पर सिर्फ़ ख़ामोश रही है। अभी अचानक सुगबुगाहट है कि मोदी सरकार जल्द जनगणना की तैयारी कर रही है। यदि ये बात सच्ची है तो बेहद स्वागत योग्य है।

क़ारगर सरकारी नीतियों या पब्लिक पॉलिसी के लिए जनगणना के आंकड़े बुनियादी ज़रूरत हैं। इससे ही तो पता चलता है कि देश में किस क्षेत्र, वर्ग, जाति, धर्म, लिंग आदि के लोगों की औसत दशा कैसी है? उनकी आर्थिक स्थिति जैसे घर का प्रकार, सम्पत्ति, व्यवसाय आदि कैसे हैं?

उनका जनसांख्यिकीय ब्यौरा जैसे लिंगानुपात, जन्म-दर, मृत्यु-दर, जीवन-प्रत्याशा (life expectancy) कैसी है ? उनका शैक्षिक ब्यौरा जैसे पुरुष और महिला की साक्षरता, स्कूल जाने वाली आबादी का अनुपात, संख्या आदि क्या-क्या है?

भंवर में फंसी बीजेपी

कांग्रेस को जातिगत जनगणना के सवाल पर पछाड़ना है तो मोदी सरकार को अपनी लक़ीर उससे ज़्यादा लम्बी खींचनी होगी। इसे न सिर्फ़ नये सामाजिक-आर्थिक और जातिगत आंकड़े जुटाने चाहिए बल्कि 2011 वाले आंकड़ों के साथ तुलनात्मक ब्यौरा पेश करना चाहिए।

इसी तरह, बीजेपी को राजनीतिक संकल्प लेना चाहिए कि नयी जनगणना के अनुसार, वो आरक्षण के दायरे को भी 50 प्रतिशत से ज़्यादा करने से विचार करना चाहेगी।

सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा वर्गीकरण वाले फ़ैसले को भी मोदी सरकार को आरक्षण में सुधार (reform) की तरह देखना ज़रूरी है। उसे आरक्षण के मौजूदा लाभार्थियों में ये विश्वास जगाना होगा कि वर्गीकरण का उद्देश्य पीछे छूट गये तबकों को मौक़ा देने का है।

आरक्षित समाज को बांटने का नहीं। ये काम कठिन भले हो लेकिन इन्हें राजनीतिक लाभ से ऊपर उठकर नीतिगत सुधार और उन्नयन की तरह पेश करना होगा। जो राजनीतिक दल जितनी निष्ठा और पारदर्शिता से ऐसा करता दिखेगा, उसे पूरे समाज का राजनीतिक समर्थन भी प्राप्त होगा।

सबको मिले समान सामाजिक सुरक्षा

आरक्षण नीति की आलोचना का सीधा सम्बन्ध सरकारी नौकरियों की गुणवत्ता, वेतन-भत्तों, रोज़गार के स्थायित्व, मेडिकल, पेंशन जैसी सुविधाओं से भी है। सरकार को निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए भी सामाजिक सुरक्षा (Social Security) का ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए जिससे उन्हें भी वो सभी सुविधाएं मिल सकें जो सरकारी नौकरियों का मुख्य आकर्षण हैं।

जब ऐसा होगा तभी आरक्षण से सीटें पाने वालों के प्रति ईष्या और वैमनस्य का भाव ख़त्म होगा और सच्चे अर्थों में सामाजिक न्याय स्थापित होगा।

शैक्षिक संस्थानों के आरक्षण से जुड़ी नाराज़गी को मिटाने का बस एक ही तरीका है कि सरकार ज़्यादा से ज़्यादा सीटें उपलब्ध करवाये। क्योंकि असली समस्या आरक्षण की नहीं बल्कि सीटों या अवसरों की कमी की है।

निजी क्षेत्र के शिक्षण संस्थानों ने अलग शोषणकारी तंत्र खड़ा कर लिया है। इससे सामाजिक न्याय को गहरी चोट लगती है। निजी क्षेत्र को भी समझाना ही होगा कि सामाजिक न्याय का दायित्व सिर्फ़ सरकार का ही नहीं हो सकता। इसमें पूरे समाज की भागीदारी ज़रूरी है।

अगड़ों को भी सिखाना होगा

निजी क्षेत्र प्रतिभा की दुहाई देकर आरक्षण का जवाब Affirmative action में ढूंढ़ता है। ये बातें निरर्थक नहीं हैं। इसका मतलब है कि सामाजिक न्याय सिर्फ़ आरक्षण से नहीं हो पाएगा। शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने से असली क्रान्ति का सूत्रपात होगा। इसे सन्तुलित ढंग से मिशन मोड में करना होगा।

अगड़ों को सिखाना होगा कि पिछड़ों को आगे लाने का दायित्व उनका भी है। उन्हें समझाना होगा कि देश में जितना ज़रूरी प्रतिभा का सम्मान है, उससे कहीं ज़्यादा आवश्यक सामाजिक न्याय के लक्ष्य को हासिल करना है।

आंकड़ों से ही घटेगीं विसंगतियां

प्रतिभा का निखार एक जीवन के संसाधनों से हो सकता है। लेकिन सामाजिक न्याय की प्रक्रिया सैकड़ों पीढ़ियों के योगदान से ही पूरी हो पाएगी।

ये सारे काम कठिन हैं। पलायन से चुनौतियां और गम्भीर ही होती जाएंगी। लिहाज़ा, भले ही जातिविहीन समाज के आदर्श के लिए जातिगत जनगणना अनुकूल नहीं हो, लेकिन सकारात्मक नीतियों से सामाजिक विसंगतियां दूर करने के लिए जातिगत आंकड़ों का कोई विकल्प नहीं हो सकता।

आंकड़ों से ही आरक्षण ज़्यादा प्रभावशाली बनेगा। इसके दुरुपयोग में कमी आएगी। सामाजिक असन्तोष घटेगा। ज़ाहिर है जातिगत जनगणना पर बीजेपी को चुप्पी तोड़नी चाहिए। सुधारवादी क़दम उठाने की पहल करनी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के वर्गीकरण वाले फ़ैसले ने बीजेपी के लिए हालात को और जटिल बना दिया है। वो या तो विरोध का मुक़ाबला करते हुए फ़ैसले को लागू करे या इसे ख़त्म करने के लिए संसद में क़ानून बनाए।

तीसरा रास्ता, जातिगत जनगणना करवाने और पुराने आंकड़े जारी करने और नये आंकड़ों के आधार पर आरक्षण की नयी तथा समग्र नीति तैयार करने की भी हो सकती है ताकि ‘जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी भागीदारी’ वाले नारे का मुक़ाबला हो सके।

टाल-मटोल के हथकंडे अब काम नहीं आने वाले।

(मुकेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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