महाराष्ट्र में विधानसभा का कार्यकाल 26 नवंबर की आधी रात को खत्म हो चुका है। उससे पहले 23 नवंबर को चुनाव नतीजे भी घोषित हो चुके हैं, जिसमें भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों को तीन चौथाई से ज्यादा बहुमत हासिल हुआ है। यानी किसी तरह की गतिरोध की स्थिति नहीं है। इसके बावजूद अभी तक नई सरकार का गठन नहीं हो पाया है। संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक नई सरकार का गठन होने तक 26 नवंबर की रात को 12 बजे राष्ट्रपति शासन लागू हो जाना चाहिए था, लेकिन नहीं हुआ।
दलील दी जा रही है कि जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 73 के मुताबिक चुने गए सदस्यों के नामों की अधिसूचना राज्यपाल के सामने प्रस्तुत करने के बाद विधानसभा का विधिवत गठन हो जाता है। तकनीकी तौर पर यह दलील सही हो सकती है लेकिन क्या तकनीकी स्थिति की यह दलील इसलिए नहीं दी जा रही है कि सरकार भाजपा को बनानी है? क्या कांग्रेस और उसके गठबंधन को बहुमत मिला होता और वे तीन दिन में सरकार नहीं बना पाते तब भी यही कहा जाता कि कोई बात नहीं, आप जब चाहें सरकार बनाइए, तब तक एकनाथ शिंदे कार्यवाहक मुख्यमंत्री रहेंगे? ऐसा कतई नहीं होता और राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाता।
संभवत: इसी योजना के साथ विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने से तीन दिन पहले मतगणना तय की गई थी। ऐसा मानने का कारण 2019 का और 2014 का इतिहास है। गौरतलब है कि 2019 में भाजपा-शिव सेना गठबंधन जीत गया था लेकिन उद्धव ठाकरे ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री वाले फॉर्मूले पर अड़ गए तो सरकार का गठन नहीं हुआ था। जब उद्धव ठाकरे कांग्रेस और शरद पवार से बात करने लगे थे तो विधानसभा कार्यकाल की अवधि खत्म होते ही केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। उससे पहले अक्टूबर 2014 में चुनाव से पहले जब एनसीपी ने गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लिया तब भी कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री को कार्यवाहक नहीं रहने दिया था और राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था।
महाराष्ट्र में जो स्थिति बनी है उसके लिए प्रत्यक्ष रूप से चुनाव आयोग जिम्मेदार है और अप्रत्यक्ष रूप से केंद्र सरकार, जिसके इशारे पर चुनाव आयोग सारा काम करता है। वह सारे फैसले मौजूदा सत्ताधारी पार्टी के राजनीतिक नफा-नुकसान को ध्यान में रख कर करता है। इस दागदार छवि के बावजूद पिछले दिनों हरियाणा चुनाव के नतीजे घोषित होने के बाद महाराष्ट्र और झारखंड का चुनाव कार्यक्रम घोषित करते हुए चुनाव आयोग ने अपनी पीठ थपथपाते हुए दावा किया था कि भारत की चुनाव प्रक्रिया गोल्ड स्टैंडर्ड यानी सोने की तरह खरी है और दुनिया भर में उसकी सराहना होती है।
यह सही है कि एक दौर था जब भारत के चुनाव आयोग और चुनाव प्रणाली की दुनिया भर में साख थी। उसकी निष्पक्ष और पारदर्शी कार्यप्रणाली को लेकर उसकी तारीफ होती थी। जिन-जिन देशों में नया चुनावी लोकतंत्र लागू होता था वहां-वहां भारत के चुनाव आयोग से अनुरोध किया जाता था कि वह हमारे यहां आए और हमें सिखाए कि चुनाव कैसे कराए जाते हैं। चुनाव आयोग की टीम वहां जाती थी और बुनियादी प्रशिक्षण देती कि चुनाव इस तरह कराए जाते हैं। उसी दौर में विकासशील समाज अध्ययन केंद्र (सीएसडीएस) ने अपने शोध कार्यक्रम ‘लोकनीति’ के तहत एक सर्वे कराया था। उस सर्वे में लोगों से पूछा गया था कि वे देश में सर्वाधिक भरोसेमंद संस्थान किसे मानते हैं तो ज्यादातर लोगों ने सेना और न्यायपालिका से भी ज्यादा भरोसेमंद चुनाव आयोग को बताया था।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान चुनाव आयोग ने अपने कामकाज से अपनी छवि ऐसी बना ली है कि वह महज कहने को ही संवैधानिक संस्था रह गया है। उसने अपने कामकाज और विवादास्पद फैसलों से अपनी छवि ऐसी बना ली है कि वह एक स्वतंत्र संवैधानिक निकाय के बजाय केंद्र सरकार के एक मंत्रालय के रूप में काम करता नजर आता है। पिछले छह-सात वर्षों से तो हालत यह हो गई है कि जो भी नया मुख्य चुनाव आयुक्त आता है, वह अपने पूर्ववर्ती को पीछे छोड़ते हुए चुनाव आयोग की साख गिराने के सिलसिले में नए-नए आयाम जोड़ता नजर आता है।
मौजूद मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार का हाल तो यह है कि उनकी प्रेस कांफ्रेन्स में चुनाव आयोग के कामकाज को लेकर जब भी कोई असहज सवाल उठता है तो उसका तर्कसंगत जवाब देने और जिम्मेदारी लेने के बजाय वे या तो विपक्ष पर तंज करने लगते हैं या शायरी सुनाने लगते है। विपक्ष पर उनके तंज ठीक वैसे ही होते हैं, जैसे भाजपा प्रवक्ता रोजाना टीवी चैनलों पर और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी चुनावी रैलियों में करते हैं। उनकी शायरी भी ट्रकों के पीछे लिखी रहने वाली बेहद चलताऊ शायरी की तरह होती है।
उनकी अजीबोगरीब कार्यप्रणाली की वजह से इस समय महाराष्ट्र में एक अजीब तरह की स्थिति बनी हुई है, जहां 26 नवंबर की आधी रात को विधानसभा का कार्यकाल खत्म हो गया लेकिन कोई सरकार शपथ नहीं ले पाई। इसका मुख्य कारण यह है कि चुनाव आयोग ने चुनाव का कार्यक्रम इस तरह घोषित किया कि मतगणना 23 नवंबर को हुई। इसके बाद सरकार गठन के लिए तीन ही दिन का समय बच रहा था। इन तीन दिनों में भाजपा का गठबंधन तीन चौथाई बहुमत के बावजूद सरकार नहीं बना सका है।
सवाल है कि चुनाव आयोग ने आखिर ऐसा शिड्यूल क्यों बनाया? जब हरियाणा की विधानसभा का कार्यकाल तीन नवंबर को खत्म हो रहा था तो उसका चुनाव पहले एक अक्टूबर को घोषित किया गया और फिर उसे बढ़ा कर पांच अक्टूबर किया गया। यानी विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने से एक महीने पहले चुनाव कराया गया। सवाल है कि एक विधानसभा का कार्यकाल तीन नवंबर को और दूसरी का कार्यकाल 26 नवंबर को खत्म हो रहा था तो क्यों नहीं दोनों का चुनाव एक साथ कराया गया?
इस बारे में चुनाव आयोग की ओर से दी गई सुरक्षा व्यवस्था और मानसून की दलील कोरी बकवास थी, क्योंकि चुनाव आयोग तो हर समय सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए पूरे देश का चुनाव एक साथ कराने की अपनी तैयारी की ढींग हांकता है तो तीन-चार राज्यों के चुनाव एक साथ कराने में क्या दिक्कत हो सकती थी या क्या दिक्कत हो सकती है? और फिर मानसून भी सब जगह एक ही जैसा था, फिर भी अक्टूबर में हरियाणा और जम्मू कश्मीर का चुनाव हुआ और महाराष्ट्र को छोड़ दिया गया। महाराष्ट्र के साथ झारखंड का चुनाव कराया गया, जिसकी विधानसभा का कार्यकाल पांच जनवरी 2025 को खत्म हो रहा था।
जाहिर है कि चार राज्यों का चुनाव कार्यक्रम इतने अतार्किक और असंगत तरीके से तय करने के पीछे राजनीतिक डिजाइन थी। लेकिन ऐसा नहीं है कि राजीव कुमार के नेतृत्व में चुनाव आयोग ने पहली बार ऐसी स्थिति पैदा की है, जैसी महाराष्ट्र में है। इसी साल चुनाव आयोग ने सिक्किम में वोटों की गिनती चार जून को तय की थी, जबकि राज्य की विधानसभा का कार्यकाल दो जून को ही समाप्त हो रहा था। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद जब आयोग को बताया गया तो मतगणना की तारीख बदली और दो जून को गिनती हुई। उसी दिन नतीजे आए और उसी दिन आनन फानन में विधानसभा का गठन किया गया ताकि राष्ट्रपति शासन नहीं लगाना पड़े।
इन सारे उलटे-सीधे कामों के अलावा मतदान खत्म हो जाने के बाद मतदान के आंकड़ों में हैरत अंगेज हेराफेरी, मतगणना के समय कई ईवीएम मशीनों का 96 फीसदी तक चार्ज मिलना और ऐसी सभी ईवीएम मशीनों में भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों को 80 फीसदी तक वोट मिलने जैसी गड़बड़ियों की कहानी तो अलग ही है। इतना सब होने के बाद भी जवाबदेही के नाम पर सड़कछाप शायरी के अलावा कुछ नहीं है।
ऐसा इसलिए है, क्योंकि चुनाव आयोग को मालूम है कि उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। सत्ताधारी पार्टी और खुद प्रधानमंत्री तो हमेशा उसके बचाव में तत्पर रहते ही हैं, न्यायपालिका के रवैये से भी चुनाव आयोग को शह मिलती है, क्योंकि चुनाव आयोग की गड़बड़ियों को लेकर जो भी व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में जाता है तो उसे वहां से डांट-फटकार लगा कर और जुर्माना लगाने की चेतावनी देकर भगा दिया जाता है।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और इंदौर में रहते हैं)
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