एक अभूतपूर्व राजनीतिक घटनाक्रम में आप पार्टी के नेताओं द्वारा किए गए वायदों को उन्हीं की सरकार के दो नौकरशाहों ने खारिज कर दिया। दिल्ली सरकार के दो वरिष्ठ अधिकारियों ने अपनी ही सरकार के नेताओं द्वारा किए जा रहे दो वायदों को अस्वीकार करते हुए सार्वजनिक बयान जारी कर दिए।
दरअसल केजरीवाल ने 2100 रुपये मासिक की महिला सम्मान योजना तथा 60 वर्ष से अधिक के बुजुर्गों के लिए मुफ्त इलाज का वायदा करते हुए अपने आगामी चुनाव प्रचार का आगाज किया। यह किसी भी पार्टी द्वारा किए जाने वाले चुनावी वायदों जैसा प्रचार ही था।
लेकिन उप-राज्यपाल के मातहत नौकरशाही ने उसके खिलाफ यह असाधारण कदम उठा लिया,” एक राजनीतिक पार्टी दावा कर रही है कि वह सभी महिलाओं को 2100 रुपये महीने महिला सम्मान योजना देगी तथा संजीवनी योजना के तहत बुजुर्गों का मुफ्त इलाज करवाएगी।
हम बताना चाहते हैं कि ऐसी कोई योजना नहीं है। आम जनता को राय दी जाती है कि ऐसे किसी वायदे पर ध्यान न दें। ये भ्रामक और अनधिकृत हैं।”
कायदे से नौकरशाहों द्वारा इस तरह के बयान का कोई औचित्य नहीं था क्योंकि यह तो अगली सरकार बनने के बाद के लिए वायदे हैं, जैसे वायदे भाजपा समेत हर पार्टी करती है। एक राज्य की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की केंद्र द्वारा अवमानना का यह ठोस उदाहरण है जिसे भाजपा ने नौकरशाही के माध्यम से अंजाम दिया।
दरअसल आप पार्टी इस समय एक कठिन परिस्थिति का सामना कर रही है। दिल्ली में कांग्रेस से समझौते के बावजूद वह लोकसभा में कोई सीट नहीं जीत सकी।
आप शासित पंजाब में उसे मात्र तीन सीटें मिल सकीं, जबकि कांग्रेस ने 7सीटें जीत लीं। आप को लोकसभा चुनाव में मात्र 1.11% वोट हासिल हुआ जो बेहद कम है, हालांकि बेशक 2019 के 0.3%से अधिक था।
पिछले दिनों ओडिशा में आप ने 106 सीटों पर प्रत्याशी खड़े कर दिए, बहरहाल उसमें से 58 प्रत्याशियों को 1000 से भी कम वोट मिले। हरियाणा जो केजरीवाल का गृह राज्य भी है, वहां उन्होंने 90 में से 88 सीटों पर प्रत्याशी खड़े कर दिए।
लेकिन जेल से छूटकर जोर-शोर से उनके प्रचार के बावजूद 87 सीटों पर उनके प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई। उन्हें कुल मात्र 1.8% वोट से संतोष करना पड़ा। अलबत्ता जम्मू में जरूर उन्हें एक सीट मिल गई।
सच्चाई यह है कि आप की राजनीति ने लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में विश्वास करने वाले लोगों तथा अल्पसंख्यकों को बुरी तरह निराश किया है। उसकी असली परीक्षा दिल्ली दंगों के समय हुई, जब लगा ही नहीं कि केंद्र के अलावा दिल्ली में कोई जनता की चुनी हुई राज्य सरकार भी है।
अमित शाह और डोभाल ही वहां के सर्वेसर्वा नजर आ रहे थे और अल्पसंख्यकों के खिलाफ एकतरफा कार्रवाई हो रही थी।
राजनीतिक कारणों से भले केजरीवाल भाजपा विरोधी खेमे में शामिल हुए हों लेकिन धर्मनिरपेक्षता के मूल्य के प्रति उनकी कोई प्रतिबद्धता नहीं है। यह उन्होंने बारम्बार साबित किया है, वह शाहीन बाग आंदोलन हो, दिल्ली दंगे हों, या रोहिंग्या मुसलमानों और कथित बांग्लादेशी घुसपैठियों का मामला हो।
इन सारे सवालों पर वे अपने को ज्यादा बड़ा हिंदू हितैषी साबित करने के लिए भाजपा से प्रतिस्पर्धा करते प्रतीत होते हैं। आते- आते उन्होंने पुजारियों और ग्रंथियों को तनख्वाह देने का भी ऐलान कर दिया है।
दरअसल आप की राजनीति घोषित रूप से विचारधारा विहीन एनजीओ मार्का राजनीति है। यह मुद्दा आधारित राजनीति है। पहले गांधी को केजरीवाल अपना सबसे बड़ा आइकन मानते थे, बाद में उन्हें हटाकर पंजाब में सरकार बनाने के क्रम में उन्होंने भगत सिंह और डॉ. अम्बेडकर का अपने को भक्त घोषित कर दिया।
बहरहाल उनमें से किसी की विचारधारा और प्रतिबद्धताओं से शायद ही उन्हें कुछ लेना देना हो। वे एक व्यावहारिक नेता हैं जो जरूरत के हिसाब से किसी को भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
मुद्दों की उनकी राजनीति में भी कहीं जनता का एंपावरमेंट नहीं है, कि जनता को कुछ कानूनी अधिकार दिए जा रहे हों, जिन्हें कोई दूसरी सरकार छीन न सके।
बल्कि राजा द्वारा प्रजा को बांटी जाने वाली सौगात है, जिसके लिए प्रजा कृतज्ञ होकर वोट दे और जिसे कभी भी वापस लिया जा सकता है। मोदी जी विपक्षी पार्टियों के लिए इसे ही रेवड़ी कहते हैं, हालांकि उनकी पार्टी और वे स्वयं यही काम खुद वोट के लिए करते हैं।
जाहिर है समाजवाद जैसे मूल्यों का तो केजरीवाल के लिए कोई अर्थ नहीं ही है, लोकतंत्र में उनकी कितनी आस्था है इसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि तमाम अन्य दलों की तरह उनके संगठन में भी सुप्रीमो कल्चर ही हावी है।
भाजपा अबकी बार भ्रष्टाचार, विकास, प्रदूषण, बांग्लादेशी, रोहिंग्या आदि को मुद्दा बनाकर आप को सत्ता से बेदखल करने की फिराक में है। भाजपा नेता और नई दिल्ली से केजरीवाल के विरुद्ध संभावित उम्मीदवार प्रवेश वर्मा द्वारा खुले आम पैसे बांटने का मामला भी चर्चा में है। केजरीवाल ने मुख्यमंत्री आतिशी की गिरफ्तारी की साजिश का भी भाजपा पर आरोप लगाया है।
यह सच है कि भाजपा ने उपराज्यपाल के माध्यम से तमाम अड़चनें खड़ी करके आप सरकार को काम ही नहीं करने दिया। बहरहाल MCD में जीत के बाद अब आप सरकार की जवाबदेही दोहरी हो गई है।
बेशक स्कूलों को बेहतर किया गया लेकिन कोई नई संस्थाएं आप सरकार ने नहीं बनाई। यहां तक कि अम्बेडकर यूनिवर्सिटी जैसी दिल्ली सरकार की संस्थाएं भी पहले से बदतर हालत में पहुंच गईं और तमाम विवादों में घिरी रहीं।
अल्पसंख्यकों की नाराजगी के कारण आप भयभीत है कि कांग्रेस जैसी कोई तीसरी ताकत न उभरने पाए, इसलिए कांग्रेस और भाजपा के मिले होने का अनर्गल आरोप भी उसने लगाया है। वह भाजपा और आप के बीच ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही है।
आरोप प्रत्यारोप के ताजा क्रम में केजरीवाल ने आरोप लगाया है कि नई दिल्ली क्षेत्र में, जहां से वे चुनाव लड़ने जा रहे हैं, 5000 नाम काटने की एप्लीकेशन दे गईं। उनमें से 500 की जांच करने पर पता चला कि उसमें से 408 लोग वहां बीस से तीस साल से रह रहे हैं।
जाहिर है जिनके नाम काटे जा रहे हैं, उनकी नागरिकता पर भी सवाल खड़ा हो जाएगा। इसी तरह एक घर पर 47 और दूसरे पर 22 नाम जोड़े गए लेकिन जांच करने पर पता चला कि उन घरों का अस्तित्व ही नहीं है। जाहिर है अगर ये आरोप सही हैं तो बेहद गंभीर स्थिति की ओर इशारा कर रहे हैं।
माइक्रो मैनेजमेंट के नाम पर भाजपा चुनाव आयोग के साथ मिलकर किस-किस तरह के खेल कर रही है और हरियाणा तथा महाराष्ट्र के नतीजे कैसे एकदम अप्रत्याशित आए, इसका कुछ अंदाजा इससे लगाया जा सकता है।
केजरीवाल ने आरोप लगाया कि नई दिल्ली विधानसभा में 5% मतदाताओं के नाम काटने और 7.5% नए नाम जोड़ने की योजना है। एक लाख के आसपास की कांस्टीट्यूंसी में इतने मतों का हेरफेर बहुत मायने रखता है।
आप सरकार के दस साल के शासन के खिलाफ एक ओर एंटी इनकंबेंसी है दूसरी ओर कम से कम कुछ क्षेत्रों में कांग्रेस के तीसरा कोण बनाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता, उधर भाजपा का कथित माइक्रो मैनेजमेंट है।
जाहिर है हरियाणा और महाराष्ट्र की अप्रत्याशित जीत के बाद दिल्ली में जीत परसेप्शन के स्तर पर राष्ट्रीय राजनीति में उसे बड़ी बढ़त देगी और विपक्ष के लिए झटका साबित होगी।
यह देखना रोचक होगा कि आप सरकार की पुनर्वापसी होती है या भाजपा अबकी बार उसे पटकनी देने में सफल होती है। दिल्ली जहां की जीत से आप पार्टी को राष्ट्रीय पहचान और वैधता मिली है, वहां के नतीजे उसके भविष्य के लिए बेहद अहम साबित होंगे।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)
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