Friday, March 29, 2024

एक डाक्यूमेंट्री में सनसनीखेज खुलासा; कश्मीर में लोगों से करायी जाती थी बंधुआ मजदूरी, अफसर तक हुए शिकार

नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर में बेगारी के सनसनीखेज मामले का खुलासा हुआ है। और यह सिलसिला एक, दो, पांच साल नहीं बल्कि 12 से लेकर 15 साल तक चला है। यह किसी एक इलाके में नहीं बल्कि कई जिलों में बदस्तूर जारी था। और इसको कराने वाले कोई राजे-रजवाड़े, डोगरा या पुराने सामंत नहीं बल्कि देश की सबसे आधुनिक संस्थाओं में गिनी जाने वाली सेना थी। और पूरी दुनिया से गायब हो चुका यह काम उसके नेतृत्व और संरक्षण में हो रहा था। और इन सब चीजों से ऊपर यह सब कुछ हो रहा है दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में। इस खबर को पहली बार देश और दुनिया को सामने लाने का काम डाक्यूमेंट्री निर्माता शफकत रैना ने एक डाक्यूमेंट्री के जरिये किया है। “फोर्स्ड लेबर अंडर लार्जेस्ट ड्रेमोक्रेसी” यानि “दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में बंधुआ मजदूरी” के नाम से निर्मित 34 मिनट की इस डाक्यूमेंट्री में पूरे विस्तार से इस पर प्रकाश डाला गया है।

कश्मीर में सेना के जवान।

डाक्यूमेंट्री में बिल्कुल साफ-साफ बताया गया है कि 1990 से शुरू हुआ यह सिलसिला तकरीबन 2005 तक चलता रहा। इसके तहत गांवों के लोगों को बारी-बारी से सेना के विभिन्न कामों में मजदूरी करनी पड़ती थी। उसके एवज में न तो उन्हें कोई पैसा मिलता था न ही किसी तरह की पगार या फिर कोई दूसरा लाभ। इन कार्यों में कैंप और बंकर निर्मित करने से लेकर नदियों पर पुल निर्माण तक के काम शामिल थे। और कई बार तो उन्हें ह्यूमन शील्ड के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था।

यह किस कदर अमानवीय था इसको इस बात से समझा जा सकता है। दिलचस्प बात यह है कि हर घर से लोगों को इसमें शामिल होना पड़ता था। और कई बार तो ऐसा हुआ कि अगर जवान पुरुष बीमार है तो बच्चों, महिलाओं या फिर बुजुर्गों को उनकी जगह जाना पड़ा। यहां तक कि सरकारी नौकरियों में तैनात लोग भी बेगारी के इस काम से खुद को नहीं बचा सके। जिससे उन्हें कई बार बेहद पीड़ादायक और अपमानजनक स्थितियों से गुजरना पड़ा।

कुलगाम और पुलवामा के इलाके सेना द्वारा लोगों से करायी गयी बेगारियों के केंद्र थे। कुलगाम के रिटायर्ड डिविजनल मजिस्ट्रेट डाक्यूमेंट्री में बताते हैं कि “गाड़ियां आती थीं, वो लोगों को जबरन ले जाते थे। रास्ते बनवाते थे। और यह सब कुछ जबरन किया जाता था”।

एक युवक की पिटाई करते जवान।

एडवोकेट मुजम्मिल अहमद बताते हैं कि पुलवामा में सबसे बड़ा आर्मी का कैंप हुआ करता था। जो आज भी काम करता है। वहां अभी भी टाउन एरिया कमांडर बैठते हैं। लेकिन उस समय जब 90 के दशक में आतंकवाद अपने चरम पर था तब वहां ब्रिगेडियर बैठते  थे। उन्होंने बताया कि सेना के लोग मूल रूप से लंबरदार को काम पर लगाते थे। और फिर लंबरदार के जरिये बारी-बारी से गावों को बुलाते थे। मसलन आज ये गांव आएगा। कल वो गांव आएगा और परसों कोई तीसरा गांव आएगा। इस तरह से चीजें तय की जाती थीं। और फिर बारी-बारी से हर गांव को शामिल किया जाता था।

सीपीएम नेता और पूर्व विधायक एमवाई तारीगामी ने भी इस बात की पुष्टि की। उन्होंने कहा कि यह जगह इसके लिए कुख्यात है। उन्होंने बताया कि पूरा ग्रामीण कश्मीर इसका शिकार था। उन्हें बगैर मेहनताना के काम करने के लिए मजबूर किया जाता था। और यह सब कुछ उन्हें अपनी मर्जी के बगैर करना पड़ता था।

शौकत अहमद जो इस समय अध्यापक हो गए हैं। वह खुद इसके पीड़ित रहे हैं। उन्होंने बताया कि “मैं छोटा था उस समय आरआर कैंप के सैनिक गाड़ियों से आते थे। जब वो आते थे तो लंबरदार को बताते थे कि उन्हें मजदूर चाहिए। उसके बाद लंबरदार माइक पर ऐलान करता था। खुद से न आने पर लोगों को जबरन उनके घरों से निकाला जाता था।

परवेज इमरोज।

फिर गाड़ी में चढ़ाकर उन्हें काम करने की जगह पर ले जाया जाता था। वहां पर भी उनके साथ बहुत जुल्म और ज्यादती की जाती थी। अगर कोई थोड़ा भी इधर-उधर जाता था तो उसे मार पड़ती थी। इसको मैंने खुद अपनी आंखों से देखा है। ज्यादातर उन लोगों से ऐसा काम करवाया जाता था जो इंसान के वश में नहीं होता था”।

सीसीएस के चेयरमैन परवेज इमरोज का कहना था कि, “आप जानते हैं कि कश्मीर एक संघर्ष क्षेत्र है। कश्मीर में बंधुआ मजदूरी भारत, पाकिस्तान या फिर दूसरे किसी एशियाई देश से बिल्कुल अलग है। सैन्यीकरण के चलते यहां सेना हर इलाके में मौजूद है। आर्मी कैंप सभी जगहों पर हैं। और खासकर ग्रामीण इलाके जहां मीडिया की पहुंच नहीं है या फिर मानवाधिकार कार्यकर्ता नहीं जा सकते। वो इलाके बंधुआ मजदूरी के लिए सबसे आसान क्षेत्र बन जाते हैं”।

डाक्यूमेंट्री में बताया गया है कि कुलगाम इलाके के सभी लोगों के लिए बंधुआ मजदूरी जरूरी थी। शौकत ने बताया कि वो डंडों से काम लेते थे। वो तीन-चार बार आते थे और अगर कोई भी बैठा हुआ होता था तो उसकी पिटाई करते थे।

इमरोज ने बताया कि न केवल सेना बल्कि इख्वान समूह के लोग भी इस काम को करते थे। ये उन लोगों का ग्रुप था जिसे लोगों को लेकर उग्रवादियों से लड़ने के लिए बनाया गया था। उनका कहना था कि ये और भी गंदे तरीके से लोगों के साथ पेश आते थे। उन्होंने बताया कि उनके पास एक आरटीआई है जिसमें बताया गया है कि बनियारी इलाके में 20 लाख पेड़ों को काट दिया गया था।

तारीगामी ने बताया कि कुलगाम गांव में एक यूनिट के साथ एक अफसर था जिसने ब्राजलू कुलगाम पर पुल बनाने के लिए लोगों को बेगारी के लिए मजबूर कर दिया था। दक्षिण कश्मीर का पुलवामा भी इसके लिए बदनाम था।

स्थानीय निवासी बिलाल अहमद ने बताया कि 1990 से लेकर 2005 तक यह प्रथा जारी रही। कई बार ऐसा होता था कि ग्रेनेड फट जाते थे या फिर माइन ब्लास्ट हो जाती थी। ऐसी स्थिति में बेगारी करने वाले ही उनके शिकार हो जाया करते थे। क्योंकि हम लोगों को उसकी कोई जानकारी ही नहीं होती थी। किसने ग्रेनेड फेंका या फिर कहां माइन बिछायी गयी है।

पीड़ित।

स्थानीय निवासी खुर्शीद अहमद ने बताया कि वहां एक कैंप बन रहा था। जब उनको कमरे बनवाने होते थे। तब यहां के बूढ़ों, बच्चों और नौजवानों को भी ले जाते थे। सुबह 8.00 बजे ले जाते थे और शाम को 8 बजे छोड़ते थे। दिन भर काम करवाते थे और शाम को मारते-पीटते उन्हें घर छोड़ देते थे। यह सिलसिला तीन-चार महीने तक चला। जब तक कि वह कैंप खड़ा नहीं हो गया। वह बहुत बड़ा कैंप था।

यहां तक कि आज भी ड्राइवरों से उनकी गाड़ियां जबरन ले ली जाती हैं और उन्हें दूसरे सरकारी कामों या फिर सेना के काम में लगा दिया जाता है। और बदले में उन्हें कुछ नहीं मिलता।

इतना ही नहीं। इंसानों को आर्मी की शील्ड के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था। रियाज अहमद ने बताया कि बहुत जुल्म हो रहा था। सुबह से लेकर शाम तक रहना पड़ता था। और कई बार तो रात भर रहने के लिए मजबूर कर दिया जाता था। सुबह छह बजे ही रिपोर्ट करना पड़ता था।

इंजीनियर रशीद।

पूर्व विधायक और पेशे से इंजीनियर इंजानियर रशीद की कहानी बेहद पीड़ादायक है। सरकारी मुलाजिम रहते हुए उन्हें इन अपमानजनक स्थितियों से गुजरना पड़ा। उन्होंने बताया कि जब 1989 में उग्रवाद शुरू हुआ तो उसके साथ ही सभी जगहों पर सैनिक शासन भी शुरू हो गया। हमारे इलाके में कुल 60 गांव हैं। बदकिस्मती से हमने वो चीजें देखीं जो आज तक दुनिया की नजरों के सामने नहीं आयीं। यहां तक कि हिंदुस्तान के अपने लोग भी उसे नहीं जानते हैं।

हर गांव से 8-8, 10-10 बंदों को सबेरे तीन बजे अपने गांवों के नजदीक निकलना पड़ता था। जिन्हें फौज के बेड़े के लिए रोड ओपनिंग पार्टी के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था। और हमारे हाथों में डंडा और लालटेन हुआ करती थी। 10 बंदे अपने गांव के पास से जुड़कर फौज के आगे-आगे दूसरे गांव तक चलते थे। ताकि उग्रवादी कहीं उन पर हमले न करें। ताकि कोई माइन या कोई दूसरी (विस्फोटक) चीज न हो। इस तरह से हमें ह्यूमन शील्ड के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था।

एक अन्य स्थानीय नागरिक ने बताया कि सड़कों के ऊपर जो पुल होते थे हम लोगों को उसमें घुसाया जाता था। जिससे उसका सर्च कर सकें। यह जानने के लिए कि कहीं उसमें किसी तरह का कोई विस्फोटक पदार्थ तो नहीं है। यह सब काम हमें करना पड़ता था और वो (सैनिक) हमारे पीछे रहते थे। ताकि अगर कोई गोली चले या फिर बम फटे तो उसमें सबसे पहले कश्मीरी मरे।

इंजीनियर रशीद ने आगे बताया कि यह सिलसिला तकरीबन 14 सालों तक जारी रहा। फिर 3 फरवरी 2003 को वहां एक लड़के की मौत हो गयी। उसकी हिरासत में मौत हुई थी। हमने उसके खिलाफ आंदोलन किया और उसमें पहली मांग यही थी कि फौज के लिए होने वाली इस बेगारी व्यवस्था को खत्म किया जाए।

मानवाधिकार कार्यकर्ता शाजिया।

मानवाधिकार कार्यकर्ता शाजिया ने भी इस बात की पुष्टि की। उन्होंने बताया कि मेरी जब स्थानीय लोगों से मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि उन्हें सेना ह्यूमन शील्ड के तौर पर इस्तेमाल करती है। और अपने किसी भी कनवाय में बिल्कुल आगे रखती है जिससे रास्ते में अगर कोई ग्रेनेड, लैंड माइन या फिर विस्फोटक हो तो सबसे पहले कशमीरी उसके शिकार बनें।

इमरोज ने बताया कि कई जगहों पर तो रातों में उन्हें रोड की पैट्रोलिंग के लिए लगाया जाता था। जिससे सैनिकों की आवाजाही को बिल्कुल सुरक्षित किया जा सके। इस मामले को सबसे पहले इंजीनियर रशीद द्वारा राज्य मानवाधिकार आयोग के सामने ले जाया गया।

प्रोफेसर हमीदा नईम का कहना है कि कश्मीरियों के लिए राजा के दौर के मुकाबले स्थितियां बेहतर होने की जगह और बदतर हुई हैं। और यह फासीवादी, तानाशाह सत्ता लोकतंत्र के नाम पर उससे भी बुरा बर्ताव कर रही है।

प्रोफेसर हमीदा नईम

यह व्यवस्थित तरीके से किया जाने वाला शारीरिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक उत्पीड़न था जो उत्तरी कश्मीर के सीमा से जुड़े जिलों में चल रहा था। आधुनिक इतिहास में शायद ही इसकी कोई नजीर मिले।

स्थानीय बाशिंदे खुर्शीद अहमद ने अपने साथ इससे जुड़ी एक घटना का जिक्र करते हुए बताया कि सन 2002 की बात है। तब मैं 8 साल का था। मुझे भी बेगार पर लिया गया क्योंकि अचानक मेरे वालिद साहब की तबियत खराब हो गयी थी। लेकिन घर के किसी न किसी बंदे को जाना जरूरी था। न जाने पर लंबरदार से बुलवाते थे। फिर भी न जाने पर पिटाई होती थी।

इंजीनियर रशीद ने बताया कि आप ये जानकर हैरान होंगे कि सरकारी मुलाजिम को खुद जाना पड़ता था। क्योंकि अपने बदले वह किसी मजदूर को नहीं भेज सकता था। और अगर आप पैसा भी देते तो कोई भी अपनी जान पर खेलकर बेगारी के लिए नहीं जाना चाहता था। मैं इल्जाम नहीं लगा रहा हूं। कई बार औरतें जाती थीं अगर घर में मर्द नहीं होता था। घर की औरत जाती थी और वह डंडा लेकर चलती थी। छोटे-छोटे बच्चे जिनकी जगह स्कूल में होनी चाहिए थी वो जाते थे। ये बहुत ही दर्दनाक दास्तान है।….24 घंटे हमारी ड्यूटी होती थी और शायद हमें कभी खाना भी नहीं मिलता था। अगर कभी घर जाकर खाना खाने के लिए छोड़ते भी थे तो उसके लिए 10 मिनट का समय देते थे। मैंने खुद लगभग 300 से लेकर 350 दिन दिए हैं।

मैं इंजीनियर था। मेरे आत्मसम्मान को चोट पहुंचती थी। यहां तक कि हमें फौजियों के कपड़े धोने पड़ते थे। सड़कों से जुड़े जो मकान होते थे उनकी खिड़कियां 12 साल तक नहीं खुली हैं। खिड़कियां बंद रखा कीजिए कहीं उग्रवादी उसमें घुसकर हम पर फायरिंग न करें। सेना के लोग यही कहते थे। बेहद अपमानजनक था। सड़कों के आस-पास हम फसल नहीं उगा सकते थे क्योंकि कहते थे कि इनमें उग्रवादी छुप जाएंगे।

सेवानिवृत्त सब डिविजनल मजिस्ट्रेट का कहना था कि सेना के सामने हर कोई बेबस था। आर्मी के सामने कोई नहीं जाता था। हां थोड़ी उदारता और विनम्रता दिखाकर हम उनके पास जाते थे। एक अफसर के तौर पर तो हम उनके पास कतई नहीं जा सकते थे। क्योंकि वो फोर्स हैं। उनका व्यवहार तो कभी भी ठीक नहीं रहता था।

एडवोकेट मुजम्मिल अहमद का कहना था कि जितना भी सिविल प्रशासन था वह पूरी तरह से अक्षम था और उसकी सेना के सामने एक नहीं चलती थी। सेना का पूरा वर्चस्व होता था। और कोई बोल नहीं सकता था। साउथ कश्मीर और कुलगाम में तो यह सिलसिला लगातार बना हुआ था।

तारीगामी

प्रोफेसर नईमा ने बताया कि सेना का बाकायदा  एक ढांचा था और उसके भीतर ही राजनीतिक गतिविधियां चल पाती थीं। यह सेना हो कि बीएसएफ या फिर सीआरपीएफ समेत 14 एजेंसियां थीं। जिनका पूरा वर्चस्व हुआ करता था। अगर इनमें इंटेलिजेंस एजेंसी को जोड़ लिया जाए तो यही सब कुछ किया करते थे। और ऊपर केवल दिखाने के लिए एक राजनीतिक हेड बना दिया जाता था। जिसके पास लागू करने के लिए कोई अधिकार नहीं होता था। और उसे कश्मीर के मुख्यमंत्री के तौर पर जाना जाता है।

सिविल एडमिनिस्ट्रेशन भी इस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहता था। यहां तक कि डिप्टी कमीश्नर भी इस मामले में नहीं फंसना चाहते थे।

एडवोकेट मुजम्मिल ने खुद अपना अनुभव बताया कि एक बार दो घंटे के बाद वो हमें पीटने लगे और गाली देने लगे। कोई मजदूरी नहीं दी। वहां मजदूरी की कोई अवधारणा ही नहीं थी। वो हमें शुद्ध रूप से दासता के रूप को प्रैक्टिस करने के लिए कह रहे थे।

इमरोज ने बताया कि सेना को लोग कब्जे वाली फोर्स के तौर पर देखते रहे हैं। और वो भी उन्हें एक सबक सिखाना चाहते हैं। जिससे उनके मनोबल को तोड़ा जा सके।

इस मामले में शामिल सभी ने यह बताया कि इसमें कभी किसी तरह का मुआवजा नहीं मिला। यह बिल्कुल एक बंधुआ मजदूरी थी। जिसे जबरन लोगों से कराया जाता था।

प्रख्यात ब्राडकास्टर अब्दाल महजूर का कहना था कि कश्मीर में बेगारी प्रथा आज भी जारी है।

मजदूरी के बदले तो किसी को कुछ नहीं मिलता था अगर कोई कुछ मांगने की कोशिश करता भी था तो उसे सेना के बर्बर उत्पीड़न का सामना करना पड़ता था। हालांकि आज भी कुछ लोग अपनी आवाज बुलंद करते हैं।

मुजम्मिल ने बताया कि अगर कानून की बात करें या फिर संयुक्त राष्ट्र की बात करें तो बंधुआ मजदूरी पर पूरी तरह से पाबंदी है। दासता के किसी भी रूप पर रोक है। आप किसी को गुलाम नहीं बना सकते हैं। लेकिन यहां यह मिलिट्री प्रोटोकॉल का हिस्सा हो गया था। और अगर कोई नहीं करता था तो उसकी पिटाई की जाती थी।

मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट।

इंजीनियर रशीद ने कहा कि पहली बात यह है कि हमारी इज्जत को बहाल किया जाए। किसी भी चीज की क्षतिपूर्ति पैसे के जरिये नहीं की जा सकती है। पैसा किसी चीज का मुआवजा नहीं होता है। मैंने कहा था कि मुझे किसी तरह का मुआवजा नहीं चाहिए। लेकिन इतना तो कह दीजिए कि जो हुआ गलत हुआ।

एक तरफ आप कहते हैं कि कश्मीर के लोग हमारे हैं। ताज हैं। ये है वो हैं। लेकिन क्या ताज के साथ ऐसा किया जाता है?  आपने ताज को उतार कर पांव तले रौंद दिया।

इमरोज का कहना है कि सेना भी अब ऊब गयी है। क्योंकि 1990 से उन्होंने जो भी तरीके अपनाए सब नाकाम रहे। 28 सालों के बाद भी वे काम नहीं कर सके।

एडवोकेट मुजम्मिल का कहना था कि चीफ मिनिस्टर (पूर्व) मैडम ने असेंबली में यह स्वीकार किया है कि दक्षिण कश्मीर में बेगारी प्रथा है। साउथ कश्मीर में ही नहीं बल्कि उत्तरी कश्मीर में भी बंधुआ मजदूरी है।

डाक्यूमेंट्री में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के सामने महबूबा मुफ्ती को बेगारी की बात को स्वीकार करते देखा जा सकता है। जिसमें वह बच्चों की ओर इशारा करके यह कहते हुए देखी जा सकती हैं कि मैंने इन्हें बेगारी और तमाम तरह के उत्पीड़न से बचाया है। मैंने साउथ कश्मीर के बच्चों को उससे निकाला है।

राजनाथ सिंह के साथ महबूबा मुफ्ती।

हालांकि राज्य मानवाधिकार आयोग और राज्य के पुलिस महकमे ने इस बात को स्वीकार किया है कि बंधुआ मजदूरी है। लेकिन उन्होंने भी न्याय दिलाने की कोई कोशिश नहीं की।

इंजीनियर रशीद ने बताया कि जब मैंने राज्य के हाईकोर्ट और मानवाधिकार आयोग में केस किया तो हमें कहा गया कि आप एफिडेविट दे दीजिए। उसके बाद हर गांव से 10-10 एफिडेविट हाईकोर्ट को दे दिए। इससे ज्यादा और क्या चाहिए था। यहां तक कि डिप्टी कमिश्नर ने लिखित में दिया कि उत्पीड़न हुआ है। और पुलिस तथा सीआईडी ने इसकी पुष्टि भी की।

इमरोज ने बताया कि इंजीनियर रशीद ने राज्य के मानवाधिकार आयोग में एक शिकायत की थी और आयोग ने उसकी जांच भी करायी थी। और फिर जांच में आरोप सही पाए गए थे।

इंजानियर रशीद ने कहा कि हाईकोर्ट का कहना था कि वो फोर्स के खिलाफ नहीं जा सकते। लेकिन जब हमने ज्यादा दबाव बनाया तब वे कहे कि एक कानून निर्माता होने के नाते मैं पीआईएल नहीं दायर कर सकता। उसके बाद उन्होंने केस को खारिज कर दिया। मानवाधिकार आयोग में भी यही कहानी दोहरायी गयी। इंसाफ मिला नहीं। मैंने असेंबली में भी यह बात उठायी। मैं सेना के उच्च अधिकारियों से भी मिला। मैंने भारत के प्रधानमंत्री से बात की। लेकिन हमें कहीं से भी न्याय नहीं मिला।

इंजीनियर रशीद ने आखिर में कहा कि हिंदुस्तान के जो लोग हैं नौकरशाही में और नौकरशाही के बाहर साथ ही राजनेता भी अपने मुल्क के हित के लिए उन्हें चाहिए कि हमें न्याय दिलाएं। इससे उनकी साख बढ़ेगी। वरना हम कहेंगे कि उन्होंने हमें औपनिवेशकि ताकत की तरह दबाया।

आखिर में रशीद ने अपील की कि…..अगर हिंदुस्तान की सरकार हम लोगों से माफी मांगे तो एक हद तक हमारे जख्मों पर मरहम लग सकता है।

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