वर्ण-व्यवस्था की नींव पर खड़ा श्रमिकों के शोषण का केंद्र है गीता प्रेस

‘गीता प्रेस की स्थापना 1923 में कोलकाता के एक मारवाड़ी सेठ जयदयाल गोयन्दका ने की थी। 2023 में उसके सौ पूरे होने पर’ नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाली कमेटी ने गीता प्रेस को ‘गांधी शान्ति पुरस्कार’ के लिए चुना। मनुस्मृति को पूरी तरह से स्वीकार करने तथा अपनी संस्था पर खुलेआम लागू करने की घोषणा गीता प्रेस के मैनेजर करते हैं, वैसा तो संघ परिवार के लोग भी नहीं करते,जो ख़ुद भी वर्णव्यवस्था में गहराई से विश्वास करते हैं। 

‘लेखक अक्षया मुकुल’ ने अपनी पुस्तक ‘गीता प्रेस एण्ड द मेकिंग ऑफ हिन्दू भारत’ में लिखा है कि किस तरह से यह संस्था हिन्दू समाज में उसके सबसे पिछड़े मूल्य, वर्णव्यवस्था और जाति व्यवस्था का पोषण करती है। लेखक ने वहां की सच्चाई जानने के लिए संस्था में रहकर कुछ दिन तक काम भी किया। यह पुस्तक उपलब्ध है, इसलिए मैं इसकी चर्चा यहां नहीं करूंगा, परन्तु गीता प्रेस से सम्बन्धित मेरे कुछ व्यक्तिगत अनुभव रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि गीता प्रेस के शताब्दी समारोह का उद्घाटन करने ख़ुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आ रहे हैं। क्या आपको मालूम है कि अगर वे प्रधानमंत्री नहीं होते और अगर गीता प्रेस में नौकरी करना चाहते,तब उन्हें सम्पादकीय विभाग में नौकरी नहीं मिल सकती थी।

हां ! उन्हें चतुर्थ श्रेणी में जैसे मशीन चलाना, बांइडिंग जैसे श्रम से जुड़े काम अवश्य मिल सकते थे, इसका कारण यह है कि वहां पूरे संस्थान में कठोर जाति व्यवस्था पूरी तरह से लागू है। मानसिक श्रम से जुड़े सारे काम केवल‌ ब्राह्मणों को मिलते हैं। इसके सारे ट्रस्टी बड़े मारवाड़ी व्यापारी हैं तथा प्रिंटिंग और छपाई आदि का काम करने वाले अधिकतर पिछड़ी जातियों से आते हैं। दलित सम्भवतः कोई नहीं है, क्योंकि इससे ब्राह्मणों को छूत लगने का ख़तरा हमेशा मौज़ूद रहता है। अगर निचले पदों के लिए ब्राह्मण उम्मीदवार मिल जाएं, तो उन्हें ही वरीयता दी जाती है, इसलिए यहां पर गार्ड-चपरासी आदि अधिकांश ब्राह्मण ही हैं। 

सम्भवतः 2011 की‌ बात‌ है,‌मैं उस‌ समय‌‌ गोरखपुर रहते हुए एक अख़बार में नौकरी करता था, उस‌ समय गीता प्रेस के‌‌ सम्पादकीय विभाग में नौकरी की कुछ पोस्ट निकली थी। गीता प्रेस के सम्पादकीय विभाग में मेरे एक मित्र ‘अजय मालवीय (बदला हुआ नाम)’ लम्बे समय से कार्यरत थे, उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में ‌पी‌एचडी भी की थी। मैंने वहां पर नौकरी ‌के लिए इस बाबत पूछताछ की, तो उन्होंने बताया,”गीता प्रेस में एक अलिखित नियम है कि सम्पादकीय विभाग में केवल ब्राह्मणों की नियुक्ति होती है। आपको तो शायद पानी पिलाने की भी नौकरी न मिले, क्योंकि ऊंची जाति का होने के बावज़ूद आपकी जाति को यहां शूद्र ही माना जाता है।” और हुआ भी वही। बाद में नियुक्ति आनन्द नारायण पाण्डेय नामक एक व्यक्ति की हुई ,जो कम्युनिस्ट और नास्तिक थे, लेकिन ब्राह्मण होने के कारण उन्हें यह पद मिल गया।

गीता प्रेस के प्रोडक्शन मैनेजर ‘आशुतोष उपाध्याय तथा ध्यानेंद्र तिवारी’ ने अभी‌ हाल में ‘द‌ प्रिंट’ को बात‌चीत में बताया,”न्यासी बोर्ड के सभी ग्यारह सदस्य मारवाड़ी हैं और अन्य जातियों के व्यक्तियों को कभी भी इस स्थान पर जगह नहीं दी गई है। इसके अलावा मैनेजमेंट की पोजीशन पर कोई भी दलित समुदाय का व्यक्ति नहीं रखा जाता है, हालांकि मशीन ऑपरेटर और क्लीनर के रूप में दलित श्रमिक कार्यरत हैं।” मैनेजर तिवारी ने कहा, “हम अभी भी गीता में लिखी गई वर्ण व्यवस्था में विश्वास करते हैं। हम गीता में विश्वास करते हैं, क्योंकि यह एकमात्र सत्य है।”

हालांकि मैनेजर कहते हैं कि “चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों में दलित जाति के लोग भी हैं।” लेकिन मेरी जानकारी के अनुसार इसमें भी अधिकांश ब्राह्मण ही हैं तथा कुछ पिछड़ी जाति के हैं। मुझे यहां कभी कोई महिला कर्मचारी भी नहीं दिखी। कम्पोजिंग में कम्प्यूटर का प्रयोग होने के कारण हर तरफ़ महिलाओं का दबदबा बढ़ गया है, क्योंकि माना जाता है कि महिलाएं कम्प्यूटर पर काम सुगमता से कर लेती हैं, परन्तु यहां पर यह सारा काम पुरुष ही करते हैं। सम्भवतः इसका कारण यह कि हिन्दू व्यवस्था में महिलाएं घर का‌ काम जैसे घर सम्हालना, बच्चे पालना आदि काम करती हैं और पुरुष बाहर से पैसे कमाने का काम करते हैं। देश में भले‌ 73 साल पहले संविधान लागू हुआ था, लेकिन यहां पर अभी तक मनुस्मृति के ही कानून चल रहे हैं,जिसे यहां के लोग बड़े गर्व से स्वीकार भी करते हैं। 

गीता प्रेस का रजिस्ट्रेशन एक‌ गैर-व्यावसायिक,अलाभकारी और धर्मार्थ संस्था के रूप में है। उन लोगों का मानना है कि “संस्था का उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना नहीं, बल्कि हिन्दू धर्म की सेवा करना है।” परन्तु ऐसा नहीं है। कोरोना महामारी के दौरान जब सभी प्रकाशन संस्थानों को भारी घाटा उठाना पड़ा था,तब गीता को प्रेस 77 करोड़ का शुद्ध मुनाफ़ा हुआ था। गीता प्रेस के‌‌ व्यवस्थापक कहते हैं,कि “गैर-व्यावसायिक संस्था होने के कारण हमारे ऊपर श्रम कानून लागू नहीं होता, परन्तु गीता प्रेस में हुई हड़ताल के दौरान श्रमायुक्त ने माना कि गैर-लाभकारी संस्थाओं पर भी श्रम कानून लागू होता है।” 

2015 में गीता प्रेस के कर्मचारियों ने वेतन बढ़ाने और स्थायीकरण की मांग को लेकर लम्बी हड़ताल की। उस समय यहां के एक कर्मचारी और श्रमिक नेता ने अपना नाम न‌ छापने की शर्त पर मुझे बताया कि यहां पर कर्मचारियों का कोई वेतनमान तय नहीं है। वेतन घटाना-बढ़ाना प्रबंधकों के विवेक पर निर्भर करता है, मनमाने ‌तरीके से किसी का वेतन घटाया या बढ़ाया जाता है। बीसों साल नौकरी करने के बाद भी कर्मचारियों का स्थायीकरण नहीं होता। गीता प्रेस में करीब 180 स्थायी तथा 300 अस्थायी कर्मचारी काम करते हैं। हड़ताल के बाद प्रबंधकों ने तालाबंदी कर दी तथा एक महीने तक प्रेस बंद रहा। आश्चर्य की बात यह थी,कि गोरखपुर के सभी समाचारपत्रों में हड़ताल की कोई सूचना नहीं थी। एक-दो समाचारपत्रों  ने इस ख़बर को हिन्दू धर्म के ख़िलाफ़ साज़िश बताकर छापा, केवल ‘तहलका पत्रिका’ ने इस‌ आंदोलन की एक लम्बी रिपोर्ट छापी थी, जिसमें कर्मचारियों और प्रबंधकों दोनों का पक्ष रखा था, 

लेकिन आश्चर्यजनक रूप से तहलका पत्रिका के सारे अंक गोरखपुर से गायब हो गए। जब मुझे इस आंदोलन के विषय में जानने की ज़रूरत महसूस हुई, तो यह लेख मुझे एक श्रमिक नेता ने लखनऊ से फोटोस्टेट करवाकर भिजवाया। उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर के सांसद थे, उन्होंने उस आंदोलन को माओवादियों द्वारा हिन्दू धर्म के ख़िलाफ़ षड्यंत्र बतलाया‌। कर्मचारी जब उनसे मिलने गए,तो उन्होंने कहा,”आप लोग धर्म की रक्षा के लिए इतना भी बलिदान नहीं कर सकते।” यह भी सत्य है कि गोरखपुर में कोई भी राजनीतिक दल या ट्रेड यूनियन आंदोलनकारियों के पक्ष में खड़ा नहीं हुआ, केवल कुछ वामपंथी रुझान के लोग इस आंदोलन का समर्थन कर रहे थे, इसीलिए इस आंदोलन को माओवादी समर्थित आंदोलन बताया गया। यह आंदोलन लम्बा चला। जिलाधिकारी श्रमायुक्त से‌ कई दौर की बातचीत हुई, लेकिन अंत में आंदोलन विफल हो गया। आंदोलन में भागीदारी करने वाले अनेक श्रमिकों को नौकरी से निकाल दिया गया। हां! थोड़े बहुत सुधार भी हुए, कुछ लोगों के वेतन भी बढ़ाए गए, लेकिन स्थायीकरण की श्रमिकों की मुख्य मांग को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। गीता प्रेस के प्रबंधकों का‌ दावा है, कि गैर-लाभकारी संस्था होने के कारण उन्हें मुनाफ़ा बिलकुल नहीं होता। 

क्या कोई कल्पना कर सकता है कि जो संस्थान प्रतिदिन पचास हज़ार पुस्तकें बेचने का दावा करता है,उसे मुनाफ़ा बिलकुल नहीं होता। इस संस्थान के मुनाफ़े का एक बड़ा स्रोत कपड़े बेचने से हुआ मुनाफ़ा है। गोरखपुर में गीता प्रेस के बगल में गीता प्रेस की ही कपड़े की एक बड़ी दुकान है, ऐसे तो यह रीटेल की दुकान है, परन्तु भारी मात्रा में ये‌ लोग थोक का भी व्यापार करते हैं। एक धर्मार्थ संस्था से‌ जुड़े होने के कारण इन्हें इस  कपड़े के व्यवसाय में  सरकारी टैक्स नहीं ‌देना‌ पड़ता,इसी कारण इनके कपड़े ‌थोड़े सस्ते होते हैं, जिससे ‌भारी बिक्री होने के‌‌ कारण अपार मुनाफ़ा होता है, इसके अलावा गीता प्रेस से ढेरों आयुर्वेदिक दवाओं का भी निर्माण और व्यवसाय होता है। गीता प्रेस के ट्रस्टी गोरखपुर के बड़े उद्योगपति हैं,जिनका सीमेंट-सरिया आदि बनाने का उद्योग है, इसमें से एक‌ उद्योगपति तो शेयर मार्केट में सूचीबद्ध हैं,इन ट्रस्टियों बढ़ती हुई दौलत के पीछे “ईश्वर की कृपा है या कुछ और यह अभी भी शोध का विषय है।” गीता प्रेस के धर्म,धंधे और शोषण के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को समझे बिना हम आज की हिन्दुत्व की राजनीति को नहीं समझ सकते।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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डॉ रवींद्र कुमार उपाध्याय
डॉ रवींद्र कुमार उपाध्याय
Guest
10 months ago

लेखक के संकीर्ण विचार एकतरफा प्यार जैसे हैं , जहां लेखक दुर्भावना पूर्ण दृष्टि से एक पक्षीय होकर सोचता है

Shambhu Arya
Shambhu Arya
Guest
10 months ago

तुम जैसे विदेशी दलालों ने इस देश की ” ऐसी- तैसी ” कर रखी है यही कारण आज विदेशी सरेआम इस देश में रहते हुए इस देश का मुफ्त में ” खाना रहना पढाई लिखाई ” करने के बाद भी 24 ×7 दिन देश को बर्बाद करने बदनाम करने पर लगा हुआ है।

Tarun Pandey
Tarun Pandey
Guest
10 months ago

लोमहर्षण जी जिन्हें महर्षि व्यास ( श्री कृष्ण द्वैपायन) जी ने पुराणों का स्नातक नियुक्त किया, जो अवर जाति के थे और नैमिश्रारण में एक हजार दिनों के चले सत्र में समस्त ऋषियों ने लोमहर्षण जी को प्रधान जजमान नियुक्त करते हुए सर्वोच्च आसन पर बैठाया तथा समस्त पुराणों का उनके मुख से श्रवण किया, ये सब कुछ भी नहीं पढ़े हैं क्या? और यह भी कि इस पर आप कुछ मूर्खतापूर्ण प्रलाप ही करेंगे तो हां वर्ण आश्रम धर्म का पालन अनिवार्य है। और सब नारायण का ही पूजन एवं चिंतन करें। अन्यथा आधुनिक पतित एवं भ्रष्ट नेताओं की चाटुकारिता में जीवन व्यतीत करें। जो ब्राह्मण द्रोही हैं जरा उनके पते पूछ लीजिए। ब्राह्मणों की परिधि में ही मर रहे होंगे। काहे जातिवाद का विष वमन कर कांग्रेस, मोदी इत्यादि महाधूर्तों की चाटुकारिता कर रहे हो।

बैताली बाबा
बैताली बाबा
Guest
10 months ago

गीता प्रेस चर्चा का विषय है, कोई भी व्यक्ति, समूह व संस्था अपने धर्म के लिये कार्य कर सकता है। कोई भी लतखोर अनावश्यक टिप्पणी करता है तो यह उसकी मानसिक विक्षिप्तता को दर्शाता है।

सनातन धर्म को छोड़कर किसी और धर्म के ऊपर टिप्पणी किये होते तो अबतक इतिहास बन चुके होते।

जय श्री राम – वंदे मातरम

Anil
Anil
Guest
10 months ago

Xceelent. Facts.brave……….hatts.off.you.sir…..keep.it.up….its.nit.a.press..ut.may.be….money.making….syndicate………..fear.is.a.habit.iam.not.afraid

Prithviraj Malav
Prithviraj Malav
Guest
10 months ago

स्वदेश कुमार सिंहा स्वयं मानव सभ्यता के लिए कलंक है। सुअर की मानसिकता भी अच्छी होती है। तुच्छ मानसिकता का ध्योतक है यह लेखक।
इसका कोई दोष नहीं प्रारब्ध में किए गए गए पापकर्म और नीचता का फल भोग रहा है अपनी गंदी मानसिक लेखन से।

Sarthak
Sarthak
Guest
10 months ago

लेखक पूर्वाग्रह से ग्रसित लगते हैं। बाम पंथियों की चाटुकारिता इस लेख में साफ झलक रही है

Deepak
Deepak
Guest
10 months ago

लेखक चुटिया है गधा भी है ,इसका जीवित समाज से कोई लेना देना नही है , अतः इसे मृत समझ ले

Krishan kumar
Krishan kumar
Guest
10 months ago

Tum hindu smaj par kalank ho

Ram Prakash Maurya
Ram Prakash Maurya
Guest
10 months ago

गीता प्रेस ने बड़े सलीके और शालीनता के साथ ब्राह्मण वादी स्थापनाओं को प्रतिष्ठित किया
वृर्णव्यवस्था, ब्राह्मण की सर्वोच्चता श्रेष्ठता और पुनर्जन्म कर्मफल आदि के द्वारा समाज के अधिसंख्य समाज को तार्किक रूप से कुंद बना दिया
महिलाओं और विशेषकर निम्न जातियों को सप्रयास ब्राह्मण वादी श्रेष्ठता के अधीन ला दिया

Veeru
Veeru
Guest
10 months ago

अपने विचार रखने की स्वतंत्रता है लेकिन स्वच्छंदता नहीं है। यह लेख लिखकर देशद्रोही बनने का कार्य किया है। ऐसे लेख से समाज में अच्छा संदेश नहीं जाता। बस यही कहना चाहता हूं कि अच्छा बन सके तो करो वरना बुरा करके मानव समाज के लिए कलंक नहीं बनो।

Ashwini Kumar Sharma
Ashwini Kumar Sharma
Guest
10 months ago

Tere jaise logo ne hi samaaj me jahar ghola hua hai, par tere jaise bhaukne wale bahut hai, yaha to aajadi hai bhaukne ki to jitna chahe bhaunk le, lekin tere is bhaukne se na to geetapress ko koi fark padega aur na hi sanatan dharm ko.

Lakshya
Lakshya
Guest
10 months ago

जिस किसी ने भी यह लिखा है वह माधरचोद है ।
गीता प्रेस जिंदाबाद ।

Madhu
Madhu
Guest
10 months ago

Avi aapko hindu dharm k bare me aur padhne ki jarurat h, aap jaisi ghatiya soch kisi dogle ki hi ho sakti h.
Hindu dharm me mahilaye sirf Ghar k kaam kaaj Tak seemit hoti h..aapki ye baat aap k agyaan ko darsaata h.
Apni ghatiya soch khud Tak hi seemit rakh