लेखकों से डरी सरकार: पुरस्कार से पहले शपथ-पत्र की शर्त

Estimated read time 1 min read

कन्नड़ के ख्याति प्राप्त लेखक और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित एम. एम. कलबुर्गी की 30 अगस्त 2015 को उन्हीं के घर के बाहर हत्या कर दी गयी थी। वे तर्कशील वैज्ञानिक चेतना के लेखक थे जिन्होंने अपने लेखन द्वारा अंधविश्वास और रूढ़िवाद के विरुद्ध अनवरत संघर्ष किया था। उनकी हत्या की वजह उनका लेखन ही था। श्री कलबुर्गी की हत्या से पूरे देश के बुद्धिजीवी और लेखक हतप्रभ रह गये थे। यह इस तरह की तीसरी हत्या थी। इससे पहले मराठी के लेखक गोविंद पानसरे और नरेंद्र दाभोलकर की भी अंधविश्वास उन्मूलन के उनके अभियान के लिए हत्या कर दी गयी थी। 

इस हत्या का विरोध करते हुए पांच दिन बाद ही 4 सितंबर 2015 को हिंदी के प्रख्यात कथाकार उदय प्रकाश ने साहित्य अकादमी अवार्ड वापस लौटाने की घोषणा की। कलबुर्गी की हत्या का विरोध करते हुए अवार्ड लौटाने की यह पहली घटना थी। 

हत्या के छह दिन बाद दिल्ली के लेखकों, कलाकारों, अध्यापकों, विद्यार्थियों और बुद्धिजीवियों ने शिक्षक दिवस के दिन 5 सितंबर, 2015 को जंतर-मंतर पर भारी संख्या में एकत्र होकर इस हत्या के प्रति अपना गहरा रोष प्रकट किया। वहां उपस्थित लेखकों-बुद्धिजीवियों में से कुछ ने उपस्थित जन समुदाय के सामने अपनी बातें भी रखीं और अंत में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें इस हत्या की निंदा की गयी और सरकार से मांग की कि वे जल्द से जल्द हत्यारों को गिरफ्तार करे। 

इसके बाद कुछ लेखक संगठनों जिनमें जन संस्कृति मंच, दलित लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ के कुछ प्रतिनिधि 7 सितंबर 2015 को साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष प्रो. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से मिले और इन संगठनों की तरफ से एक ज्ञापन दिया गया और उसमें मांग की गयी कि प्रो. कलबुर्गी की हत्या की साहित्य अकादमी निंदा करे और एक शोक सभा भी आयोजित करे।

प्रो. तिवारी ने ज्ञापन ले लिया लेकिन उन्होंने ऐसा कोई आश्वासन नहीं दिया। हां, अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने कहा कि अगर वे साहित्य अकादमी की ओर से ऐसा कोई प्रयास करेंगे तो अकादमी में काम करने वाले लोगों की नौकरी खतरे में पड़ सकती है। जब उन्हें शोक सभा करने का सुझाव दिया तो उन्होंने कहा कि अगर लेखक चाहे तो साहित्य अकादमी का हॉल बुक कराके शोक सभा कर सकते हैं लेकिन साहित्य अकादमी यह काम नहीं कर पायेगा। उसी दिन लेखकों के प्रतिनिधि मंडल को जानकारी मिली कि 23 अक्टूबर 2023 को साहित्य अकादमी की कार्यकारिणी की बैठक होने जा रही है। बाद में इन लेखक संगठनों ने तय किया कि उस दिन सभी लेखक संगठन मिलकर काली पट्टी बांधकर साहित्य अकादमी तक जुलूस निकालेंगे और प्रो. कलबुर्गी की हत्या के प्रति साहित्य अकादमी के रवैये का विरोध करेंगे। 

कलबुर्गी की हत्या के ठीक एक महीने बाद 28 सितंबर, 2015 को उत्तर प्रदेश के दादरी नामक छोटे से कस्बे में मोहम्मद अखलाख नामक एक निम्नमध्यवर्गीय मुसलमान की उसके घर में घुसकर हत्या कर दी गयी थी। उस पर यह इल्जाम लगाया गया कि उसने घर में गाय का मांस रख रखा हुआ है जो एक झूठ के सिवा कुछ नहीं था। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद भीड़ द्वारा की जाने वाली यह पहली हत्या थी। प्रो. कलबुर्गी की हत्या के लगभग एक महीने बाद इस तरह की हत्या ने लेखकों और बुद्धिजीवियों को ही नहीं पूरे देश को हिलाकर रख दिया।

अब तक न सरकार की तरफ से और न ही साहित्य अकादमी की तरफ से प्रो. कलबुर्गी की हत्या की न तो निंदा की गयी और न हत्यारों को पकड़ने के लिए कोई कदम उठाये गये। इस बीच मौहम्मद अखलाक़ की हत्या ने लेखकों और कलाकारों और ज्यादा विचलित कर दिया और इसीका नतीजा था कि कई और लेखक साहित्य अकादमी अवार्ड की वापसी की घोषणा करने के लिए आगे आये। इनमें 6 अक्टूबर, 2015 को अंग्रेजी की लेखिका नयनतारा सहगल ने प्रो कलबुर्गी और मौहम्मद अखलाक़ की हत्या पर रोष प्रकट करते हुए और सरकार की चुप्पी का विरोध करते हुए साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा की। इसके दूसरे दिन ही हिंदी कवि अशोक वाजपेयी ने गोविंद पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर और एम. एम. कलबुर्गी की हत्या के प्रति रोष प्रकट करने और सरकार की निष्क्रियता के विरोध में अवार्ड वापसी की घोषणा की।

इसके बाद अवार्ड वापसी का सिलसिला चल पड़ा और और हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती, पंजाबी, राजस्थानी, कन्नड़, कश्मीरी, मलयालम, असमी, उर्दू, तेलुगु सहित ग्यारह भाषाओं के 39 लेखकों ने अपने पुरस्कार वापस लौटाये। अवार्ड वापसी का महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि यह केवल लेखकों की हत्याओं के प्रति विरोध प्रकट करने के लिए ही नहीं लौटाये जा रहे थे बल्कि मौहम्मद अखलाक़ जैसे गरीब मुसलमान की हत्या के विरोध में भी लौटाये जा रहे थे।  

कलबुर्गी की हत्या से विचलित लेखकों और बुद्धिजीवियों ने यह उम्मीद की थी कि साहित्य अकादमी अपने उस लेखक की हत्या की कठोर शब्दों में निंदा करेगी और इस तरह की हत्या के विरुद्ध लेखकों की आवाज़ बनेगी क्योंकि साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है और वह पूरे देश की सभी भाषाओं के लेखकों का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। दिल्ली सहित विभिन्न शहरों में हत्या के विरुद्ध लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों द्वारा सामूहिक रूप से जुलूस निकालकर, धरना देकर और सभा कर अपने रोष को प्रकट करने का भी साहित्य अकादमी पर कोई असर नहीं हुआ। इससे स्पष्ट था कि साहित्य अकादमी की स्वायत्तता दरअसल काग़जी है और वह सरकार के दबाव में ही काम करती है। यह बात किसी और समय से ज्यादा इस मौजूदा सरकार के समय लागू होती है। पिछले नौ साल में जिस तरह के कार्यक्रम साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित हो रहे हैं, वे यह बताने के लिए काफी है। 

दिल्ली में 23 अक्टूबर 2015 को जिस दिन साहित्य अकादमी की कार्यकारिणी की बैठक थी, उस दिन  साहित्य अकादमी पर लेखकों ने काली पट्टी बांधकर और मौन जुलूस निकालकर प्रदर्शन किया और एक ज्ञापन साहित्य अकादमी के अध्यक्ष को सौंपा। इस बीच बहुत से लेखकों ने साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने की घोषणा कर दी थी। साहित्य अकादमी पर बड़ी संख्या में लेखक एकत्र हुए थे जो साहित्य अकादमी भवन पर ताला लगा होने के कारण अंदर प्रवेश न कर सके। अध्यक्ष ने लेखकों से ज्ञापन ताले लगे गेट पर आकर ही ग्रहण किया। विडंबना यह भी रही कि हिंदी के कुछ दक्षिणपंथी लेखक वहां मौजूद होकर सरकार के समर्थन में और हत्या का विरोध कर रहे लेखकों के विरोध में नारे लगा रहे थे। हालांकि इनकी संख्या 15-20 से ज्यादा नहीं थी जबकि हत्या का विरोध करने वाले लेखकों की संख्या 400-500 के आसपास रही होगी।

लेखकों के इन आंदोलनों का यह असर जरूर हुआ कि लगभग डेढ़ महीने बाद प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या पर एक शोक प्रस्ताव साहित्य अकादमी ने पारित किया और जिन लेखकों ने अवार्ड वापस किये थे, उनसे अनुरोध किया गया कि वे अवार्ड वापस न करे। लेकिन सरकार की तरफ से इस सबंध में न कुछ कहा गया और न ही कोई कदम उठाया गया। यही नहीं अवार्ड वापस करने वाले लेखकों को अवार्ड वापसी गेंग कहकर अपमानित किया गया। उन्हें राष्ट्रविरोधी तक कहा गया। सत्तादल द्वारा लेखकों पर लगातार हमले होते रहे। 

यही नहीं साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाजे गये कुछ लेखकों ने पुरस्कार लौटाने की इस मुहिम का यह कहकर विरोध प्रकट किया कि साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्थान है और इसका संचालन लेखक ही करते हैं। इसका सरकार से कोई संबंध नहीं है। अवार्ड वापसी का विरोध करने वाले लेखकों में प्रो. नामवर सिंह जैसे वयोवृद्ध लेखक ही थे। लेकिन ऐसे लेखकों का यह कहना पूरी तरह से गलत है कि पुरस्कार वापसी का एकमात्र कारण साहित्य अकादमी का विरोध करना था। पुरस्कार वापसी सरकार के रवैये का विरोध करने के लिए मुख्य रूप से की गयी थी।

लेखकों और कलाकार अपना विरोध इसी तरह से प्रकट कर सकता है कि जो सम्मान उसे दिया गया है, वह या तो लेने से इन्कार कर दे या उसे लौटा दे। अवार्ड वापसी कोई पूर्व नियोजित और सामूहिक कदम नहीं था। यह लेखकों का अपना निर्णय था। उस समय केवल हिंदी के सात लेखकों ने अवार्ड लौटाये थे वे हैं, उदय प्रकाश, अशोक वाजपेयी, कृष्णा सोबती, काशीनाथ सिंह, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी और चमन लाल। उनका यह कदम निश्चय ही साहसपूर्ण और प्रशंसनीय था। लेकिन बहुत बड़ी संख्या उन लेखकों की हैं जिन्होंने पुरस्कार नहीं लौटाये। यही नहीं इसके बाद के सालों में जिन्हें भी पुरस्कार मिला उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया जबकि इस सत्ता की सांप्रदायिक फासीवादी मुहिम पहले की तरह न केवल जारी है बल्कि मणिपुर की घटना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि एकबार फिर 2002 के गुजरात को दोहराया जा रहा है। 

अवार्ड वापसी केवल साहित्य अकादमी के अवार्डों की ही नहीं हुई थीं। कुछ और क्षेत्रों में भी पुरस्कार लौटाये गये थे। समय-समय पर लेखकों और कलाकारों ने प्रतिरोध सभाएं भी कीं और जुलूस भी निकाले। लेकिन न तो मॉबं लिचिंग की घटनाएं रुकीं और न ही लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के विरुद्ध सरकार की कार्रवाइयां रुकीं। भीमा कोरेगांव के मामले में 16 बुद्धिजीवियों को जेल में बंद कर दिया गया जिनमें से 10 पांच साल बाद भी जेलों में बंद हैं। प्रो. कलबुर्गी की हत्या के दो साल बाद 5 सितंबर, 2017 को प्रख्यात लेखिका और पत्रकार गौरी लंकेश की उनके घर के बाहर हत्या कर दी गयी। 

24 सितंबर 2023 को यातायात, पर्यटन और संस्कृति मंत्रालयों से संबंधित एक संसदीय समिति द्वारा पारित एवं संसद के पटल पर प्रस्तुत प्रस्ताव जिसमें सरकारी पुरस्कार लेनेवालों से यह लिखित वचन लेने की बात कही गई है कि वे भविष्य में कभी भी राजनीतिक कारणों से पुरस्कार वापस नहीं करेंगे, निश्चय ही एक खतरनाक कदम है। 2015 में प्रोफेसर एम एम कलबुर्गी की हत्या के बाद जिन 39 लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाये थे और उस हत्या पर सरकार के मौन रहने को लेखकों और बुद्धिजीवियों ने सरकार के मौन समर्थन की तरह देखा था और दूसरी तरफ पुरस्कार वापसी को सरकार ने लेखकों और कलाकारों की सच्ची चिंता के रूप में देखने की बजाय अपने विरोध के रूप में देखा था।

विरोध की इस मुहिम से डरी हुई केंद्र सरकार ने अब यह सुनिश्चित करने का फ़ैसला किया है कि भविष्य में लेखक कोई ऐसा कदम न उठाये जिसके कारण सरकार की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फजीहत हो इसलिए यातायात, पर्यटन और संस्कृति से संबंधित संसदीय समिति ने ‘फंक्शनिंग ऑफ़ नेशनल अकादेमीज़ एंड अदर कल्चरल इन्स्टिच्यूशंस’ पर दोनों सदनों में पेश की गई रिपोर्ट में कहा है कि राजनीतिक कारणों से इस तरह की अवार्ड वापसी ‘देश के लिए अपमानजनक’ है। यहाँ याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या के बाद लेखकों की पुरस्कार वापसी के पीछे इस बात की नाराज़गी भी थी कि इस अकादमी पुरस्कार विजेता की हत्या पर भी साहित्य अकादमी ने लगभग दो महीने तक कोई शोक-सभा करना तो दूर, शोक-प्रस्ताव तक पारित नहीं किया था।

यही नहीं बुद्धिवादी लेखकों की हत्या के साथ-साथ मौहम्मद अखलाक़ जैसे बुजूर्ग और निर्दोष व्यक्ति की हत्या भी लेखकों के लिए चिंता का विषय थी। लेखकों और बुद्धिजीवियों की इस चिंता को राजनीति कहना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि मौजूदा सत्ता के लिए लेखकों की हत्या नहीं लेखकों का हत्या का विरोध करना अपमानजनक है और इसमें उन्हें राजनीति नज़र आती है। यह इस बात को साबित करता है कि मौजूदा सत्ता की सहानुभूति उस विचारधारा के साथ है जिस विचारधारा से प्रेरित होकर हत्यारों ने पानसरे, दाभोलकर, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या की थी। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा मणिपुर की दो आदिवासी महिलाओं को निर्वस्त्र करने और उनके साथ बलात्कार करना सरकार को अपमानजनक नहीं लगता बल्कि इस घटना का वीडियो वायरल करना सरकार की नजर में अपमानजनक है। 

यातायात, पर्यटन और संस्कृति से संबद्ध संसदीय समिति के इस प्रस्ताव का लेखकों और बुद्धिजीवियों द्वारा सही विरोध किया जा रहा है। जनवादी लेखक संघ ने एक बयान जारी कर इसका विरोध करने के लिए लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का आह्वान किया है। इंडियन एक्सप्रेस के अपने एक लेख में भाषा वैज्ञानिक गणेश देवी ने भी इस शपथ के प्रस्ताव का विरोध किया है। प्रो. देवी उन 39 लेखकों में हैं जिन्होंने अवार्ड वापस किया था। 

पुरस्कार लेने से पहले अंडरटेकिंग देने की शर्त एक लेखक और नागरिक के रूप में उसके लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला है। यह बात समिति के एक सदस्य ने कही भी, जैसा कि इंडियन एक्स्प्रेस की खबर में दर्ज है। उन्होंने बिल्कुल ठीक कहा कि ‘भारत एक लोकतांत्रिक देश है और हमारे संविधान में हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी हासिल है और साथ में विरोध प्रदर्शन की आज़ादी भी।

पुरस्कार वापसी विरोध प्रदर्शन का एक तरीक़ा भर है।’ पुरस्कार लेने के लिए किसी शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करना लेखक और कलाकार का अपमान है और इसका विरोध किया ही जाना चाहिए। कुछ लेखकों का यह कहना भी सही है कि इस सांप्रदायिक फासीवादी सरकार के हाथों पुरस्कार लिया ही क्यों जाना चाहिए। मणिपुर की घटना ने बता दिया है कि यह सरकार असंवेदनशील और बर्बर है। इसके किसी भी संस्थान द्वारा चाहे वह स्वायत्त होने का भी दावा क्यों न करता हो, उसके द्वारा पुरस्कार लेना उन सब लोगों का अपमान है जो इस सत्ता द्वारा सताये गये हैं और सताये जा रहे हें। 

(जवरीमल्ल पारख सेवानिवृत प्रोफेसर हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Psrma chand yadav
Psrma chand yadav
Guest
1 year ago

The best apps

You May Also Like

More From Author