हल्द्वानी हिंसा: साजिश या प्रशासन की विफलता

उत्तराखंड में नैनीताल जिले के हल्द्वानी में 8 फरवरी की शाम मस्जिद तोड़ने का विरोध कर रही भीड़ पर पुलिस ने गोलियां चला दी। इस उपद्रव में पिता-पुत्र सहित चार लोगों की मौत हो गई। बताया जाता है कि 350 लोग घायल हुए हैं। घायलों में पुलिसकर्मी और पत्रकार भी शामिल हैं। घटना के तुरंत बाद हल्द्वानी में कर्फ्यू लगा दिया गया। आसपास के क्षेत्रों में निषेधाज्ञा लागू कर दी गई। राज्य की राजधानी देहरादून में बैठे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी तुरंत सक्रिय हुए और दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश दे दिये।

उपद्रव के दौरान हल्द्वानी के वनभूलपुरा थाने को आग लगा दी गई। करीब तीन घंटे तक उपद्रव चलता रहा। इस दौरान सौ से ज्यादा वाहनों को भी आग के हवाले कर दिया गया। 9 फरवरी को राज्य के कई वरिष्ठ अधिकारी मौके पर पहुंच गये। दूसरी तरफ राज्य की विपक्षी पार्टियां और जन संगठन भी सक्रिय हो गये। देहरादून में जन संगठनों और प्रमुख विपक्षी दलों की एक बैठक हुई। बैठक में हल्द्वानी की घटना को लेकर कई सवाल उठाये गये और राज्यपाल से मिलने का समय मांगा गया है। इसके साथ ही सभी जिला मुख्यालयों पर शांति मार्च निकालने का भी फैसला किया गया।

उपद्रव हल्द्वानी शहर के उसी वनभूलपुरा क्षेत्र में हुआ, जिसे पहले भी तोड़ने का प्रयास किया गया था। फिलहाल वनभूलपुरा को ध्वस्त करने पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाई है। दरअसल यह पूरी बस्ती रेलवे लाइन के साथ बसी हुई है। रेलवे का दावा है कि जिस जमीन पर यह बस्ती बसी हुई है, वह रेलवे की है। रेलवे के कहने पर पिछले वर्ष बस्ती को तोड़ने की तैयारी की गई थी। बस्ती के लोग कई दिनों तक धरना देते रहे। बाद में सुप्रीम कोर्ट के स्थगन आदेश पर प्रस्तावित तोड़फोड़ रोकी गई।

भीड़ की तरफ पत्थर फेंकता पुलिसकर्मी

जिस जमीन को लेकर उपद्रव हुआ वह अब्दुल मलिक नामक व्यक्ति की है और इसे मलिक का बगीचा कहा जाता है। इस जमीन पर एक मस्जिद और साथ में मदरसा बना हुआ है। जमीन 1937 में लीज पर मलिक परिवार को मिली थी। 1969 और 1997 में लीज रिन्यू भी हुई। लेकिन, इसके बाद लीज रिन्यू नहीं हो पाई। इस बीच हल्द्वानी नगर निगम ने इस जमीन को खाली करने की योजना बनाई तो अब्दुल मलिक हाई कोर्ट चले गये। पिछले दिनों हाई कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई की। हालांकि हाईकोर्ट ने स्टे नहीं दिया, लेकिन अगली सुनवाई 14 फरवरी को तय की थी।

इस बीच 8 फरवरी की शाम को भारी पुलिस बल के साथ प्रशासन और नगर निगम का दस्ता जेसीबी मशीने लेकर मलिक के बगीचे में बनी मस्जिद और मदरसे को तोड़ने पहुंच गया। कहा जा रहा है कि इस दौरान स्थानीय लोगों ने प्रशासन के दस्ते पर पथराव शुरू कर दिया। मौके से कई वीडियो सामने आए हैं। इनमें स्थानीय लोगों के साथ ही पुलिस को भी पथराव करते देखा जा सकता है।

देर शाम पुलिस ने पथराव कर रहे लोगों पर गोलियां चलानी शुरू कर दी। सूचना है कि पुलिस की ओर से कुल 350 राउंड गोली चलाई गई। इस घटना में चार लोगों की मौत हुई। बताया जाता है कि गोली लगने से जिस पिता और पुत्र की मौत हुई, वे रिक्शे पर बाहर से घर लौट रहे थे। बस्ती में क्या हो रहा है, इसकी उन्हें भनक तक नहीं थी। यानी कि वे पत्थर फेंकने वालों में शामिल ही नहीं थे।

हल्द्वानी की यह घटना कई सवाल छोड़ गई है। सवाल सरकार पर भी है, प्रशासन पर भी, मीडिया पर भी और पथराव कर रहे स्थानीय लोगों पर भी। शुरुआत प्रशासन से करें तो पहला सवाल यह कि जब इस जमीन का मामला हाई कोर्ट में चल रहा है तो अचानक प्रशासन तोड़फोड़ करने क्यों पहुंचा। दूसरा सवाल यह कि तोड़फोड़ के लिए शाम 4 बजे का वक्त क्यों चुना गया? आमतौर पर इस तरह की कार्रवाई सुबह ही होती है। तोड़फोड़ से पहले क्या प्रशासन के पास खुफिया विभाग से कोई इनपुट आया था कि पथराव जैसी कोई घटना हो सकती है? यदि ऐसा कोई इनपुट नहीं था तो इसे क्यों नहीं इंटेलीजेंस का फेल्योर माना जाए? और यदि इनपुट थे तो फिर गोली चलाने की नौबत क्यों आई?

डीएम नैनीताल की ओर से जारी किये गये कर्फ्यू के आदेश की भाषा भी चौंकाने वाली है। आमतौर पर ऐसे आदेशों में उपद्रवियों शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन इस आदेश में समुदाय विशेष द्वारा हिंसा भड़काये जाने की बात कही गई है। जानकारों के अनुसार यह भाषा बताती है कि प्रशासन किस पाले में खड़ा है। सवाल पथराव करने वाले स्थानीय लोगों पर भी उठाया जा रहा है।

जब पूरी वनभूलपुरा बस्ती को ध्वस्त करने की तैयारी थी तो तब यहां के लोग कई दिनों तक शांतिपूर्ण तरीके से धरना देते रहे, जबकि उस प्रस्तावित तोड़फोड़ के दायरे में न सिर्फ मस्जिद और मदरसे थे, बल्कि लोगों के घर भी थे। ऐसे वक्त में जब संयम के साथ स्थानीय लोग धरना दे सकते हैं तो फिर इस समय सिर्फ एक मस्जिद और मदरसे को तोड़े जाने से वे इस तरह क्यों भड़क गये कि पथराव करने लगे। इस सवाल का उत्तर हल्द्वानी निवासी सामाजिक कार्यकर्ता और सर्वाेदय मंडल के प्रदेश अध्यक्ष इस्लाम हुसैन ने घटनास्थल से आये एक वीडियो का हवाले से दिया। उनका कहना है कि वीडियो में पथराव कर रही एक भीड़ मुस्लिम समुदाय को गालियां देती सुनाई दे रही है। इससे साफ है कि बाहर से लोगों को पथराव करने के लिए लाया गया था। हालांकि उन्होंने माना कि स्थानीय लोगों की ओर से पथराव किये जाने के वीडियो आये हैं। लेकिन, इस बात की जांच होनी चाहिए कि पथराव किसने शुरू किया।

हल्द्वानी के पत्रकार संजय रावत ने प्रशासन की ओर से आनन-फानन में की गई कार्रवाई पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि प्रशासन ने मलिक का बगीचा या मलिक फार्म कही जाने वाली इस संपत्ति को सील कर दिया गया था। मस्जिद और मदरसा सहित पूरी संपत्ति प्रशासन के कब्जे है। हाई कोर्ट में 14 फरवरी को सुनवाई होनी थी, ऐसे में अचानक प्रशासन ने मस्जिद और मदरसे को तोड़ने की योजना क्यों बनाई, यह बड़ा सवाल है। स्थानीय लोगों द्वारा पथराव किये जाने के सवाल पर उन्होंने अफसोस जताया। वे कहते हैं कि जिस वनभूलपुरा के लोग पूरी बस्ती तोड़े जाने की तैयारियों के बीच कई दिनों तक शांतिपूर्ण तरीके से धरना-प्रदर्शन कर सकते हैं, उन्होंने सिर्फ किसी की निजी जमीन में होने वाली तोड़फोड़ के खिलाफ हिंसक कदम उठा दिया, यह बात समझ से बाहर है।

सीपीएम के प्रदेश सचिव राजेन्द्र सिंह नेगी के अनुसार दरअसल राज्य सरकार किसी न किसी तरह से मुसलमानों को भड़काना चाहती है। विधानसभा में यूसीसी बिल पास होने के बाद भी मुसलमानों ने सड़कों पर उतरकर विरोध नहीं किया तो सरकार के मंसूबे फेल हो गये, इसलिए बिना जरूरत के हल्द्वानी में तोड़फोड़ की कार्रवाई की गई। उन्होंने मीडिया पर भी हल्द्वानी मामले में एकतरफा खबरें छापने का आरोप लगाया। सीपीआई (एमएल) के प्रदेश सचिव इंद्रेश मैखुरी ने भी मीडिया रिपोर्टों पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि उपद्रव के दौरान स्थानीय लोगों ने कुछ पत्रकारों और महिला पुलिसकर्मियों को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन मीडिया ने इस तरह की भाईचारे को बढ़ाने वाली खबरों को जगह नहीं दी। जिस अखबार के फोटोग्राफर को स्थानीय लोगों ने बचाया, उस अखबार में भी सिर्फ समुदाय विशेष के खिलाफ ही खबरें छपी हैं।

देहरादून में हल्द्वानी मसले पर इंडिया एलायंस और सिविल सोसायटी की बैठक

उत्तराखंड इंसानियत मंच के डॉ. रवि चोपड़ा के अनुसार ऐसे मामलों में आमतौर पर जिले के डीएम और एसएसपी को तुरंत वहां से हटा दिया जाता है। लेकिन, हल्द्वानी के मामले में ऐसा नहीं हुआ। आखिर क्यों सरकार ने इन अधिकारियों को अभयदान दिया है? जबकि इससे पहले उत्तराखंड में इस तरह की घटना पहले कभी नहीं हुई थी। यह साम्प्रदायिक हिंसा भी नहीं है, यह पूरी तरह से प्रशासन की ओर से की गई कार्रवाई है।

9 फरवरी को इस मामले को लेकर देहरादून स्थित प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में इंडिया एलायंस और सिविल सोसायटी की एक बैठक आयोजित की गयी। बैठक में सर्वसम्मति से इस घटना को निंदनीय एवं दुखद करार देते हुए जनता से आपसी सामाजिक सौहार्द भाईचारे एवं शांति को कायम रखने की अपील की गयी और प्रशासन की लापरवाही, लोकल इंटेलिजेंस की विफलता और सरकार की उदासीनता को इस घटना का मुख्य कारण बताया। सरकार से अपील की कि तत्काल वहां के डीएम और एसएसपी को बर्खास्त किया जाए।

बैठक में शामिल प्रतिनिधियों ने कहा कि वहां जो आवश्यक सावधानी बरती जानी चाहिए थी वह नहीं बरती गयी। शाम 4बजे बिना होमवर्क किए जल्दबाजी में जो कार्यवाही हुई वह किसी तरीके से भी उचित नहीं है। सर्वसम्मति से बैठक में निर्णय हुआ कि इस घटना के संदर्भ में राज्यपाल और प्रदेश के मुख्यमंत्री को ज्ञापन सौंपा जाए। राज्यपाल और मुख्यमंत्री से मिलने का समय मांगा गया है। 10 फरवरी को शाम 5 बजे गांधी पार्क में गांधी प्रतिमा के सम्मुख संयुक्त रूप से शान्ति के लिए प्रार्थना की जाएगी।

बैठक में कहा गया कि भाजपा इस घटना पर ओछी राजनीति और बयानबाजी कर रही है जो किसी भी तरह से सही नहीं है उससे बचा जाना चाहिए। इस प्रकार की घटनाओं से किस राजनीतिक दल को लाभ होता है यह भी देश की जनता भली भांति जानती हैं। सरकार को अपना दायित्व निभाते हुए इस घटना की निष्पक्ष न्यायिक जांच करनी चाहिए और दोषी अधिकारियों पर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। अतिक्रमण हटाओ अभियान के नाम पर लम्बे समय से चल रही कार्यवाहियों पर भी लगातार सवाल खडे हो रहे हैं। प्रशासन द्वारा बिना नोटिस दिए पक्षपातपूर्ण, गैरकानूनी और मनमाने तरीके से कार्रवाई की जा रही है जिससे इस तरह की परिस्थितियां पैदा हो रही हैं।

(उत्तराखंड से त्रिलोचन भट्ट की रिपोर्ट।)

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