Wednesday, April 24, 2024

कृषि अध्यादेश के विरोध में हरसिमरत कौर बादल ने मोदी मंत्रिमंडल से दिया इस्तीफा

नई दिल्ली। मोदी सरकार को आज तगड़ा झटका लगा है। हरसिमरत कौर ने कृषि अध्यादेश के विरोध में मोदी मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने ट्वीट कर कहा कि “मैंने कृषि अध्यादेश और विधेयक के विरोध में इस्तीफा दे दिया है। किसानों की बेटी और बहन बन कर खड़ी होने पर मुझे गर्व है।”

इसके पहले संसद में अपने भाषण में एनडीए के घटक दल शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) के मुखिया सुखबीर सिंह बादल ने कहा था कि कृषि अध्यादेश के विरोध में खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर बादल मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देंगी। सुखबीर और उनकी पत्नी तथा कैबिनेट मंत्री हरसिमरत कौर को निशाना बनाते हुए कांग्रेस, आप और एसएडी (लोकतांत्रिक) ने जमकर हमला बोला था। और इन सभी ने उनसे इस्तीफे की मांग की थी। 

इस बीच, कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने आज कृषि उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (प्रोमोशन एंड फैसिलिटेशन) बिल, 2020 तथा  फार्मर्स एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस फार्म सर्विसेज बिल, 2020 लोकसभा में पेश किया। कांग्रेस के सांसद रवनीत सिंह बिट्टू, आरएसपी सांसद एनके प्रेमचंद्रन उन तमाम लोगों में शामिल थे जिन्होंने बिल का विरोध किया। उन्होंने खेती को बर्बाद करने का केंद्र पर आरोप लगाया।

हरसिमरत और सुखबीर।

सत्र के दौरान संसद से बाहर आकर विजय चौक पर कांग्रेस सांसद रवनीत सिंह बिट्टू ने केंद्र पर जमकर हमला बोला। बिट्टू ने कहा कि तीनों बिलों में किसी में एमएसपी वर्ड नहीं है जो मिनिमम सपोर्ट प्राइस है, उसकी गारंटी ही नहीं है। हमने तो कहा भी आपने तो संविधान को नहीं छोड़ा जो बाबा साहब ने लिखा था, उसको नहीं छोड़ा, उसकी कोई नहीं गारंटी कब बदल लें। उन्होंने कहा कि 5 जून को ये ऑर्डिनेंस आए थे, उसके बाद एक मक्के की फसल आई है और उसका मिनिमम सपोर्ट प्राइस 1760 रुपये है। और वो सारे देश में बिकी कितने की है, ये ऑर्डिनेंस आने के बाद खरीद लेता। अडानी, अंबानी, महेन्द्रा कहाँ गए हुए थे, 700 रुपए मैक्सिमम और उससे कम-कम जो रेट है, वो मक्का का बिका है। ये ऑर्डिनेंस आने के बाद। ये सबूत है मोदी सरकार के सामने। 

कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला की ओर से इस मुद्दे पर कांग्रेस के रुख को विस्तार से रखा गया है। पेश है उनका पूरा बयान: 

पहला, अनाज मंडी-सब्जी मंडी यानि APMC को खत्म करने से ‘कृषि उपज खरीद व्यवस्था’ पूरी तरह नष्ट हो जाएगी। ऐसे में किसानों को न तो ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (MSP) मिलेगा और न ही बाजार भाव के अनुसार फसल की कीमत। इसका जीता जागता उदाहरण भाजपा शासित बिहार है। साल 2006 में APMC Act यानि अनाज मंडियों को खत्म कर दिया गया। आज बिहार के किसान की हालत बद से बदतर है। किसान की फसल को दलाल औने-पौने दामों पर खरीदकर दूसरे प्रांतों की मंडियों में मुनाफा कमा MSP पर बेच देते हैं। अगर पूरे देश की कृषि उपज मंडी व्यवस्था ही खत्म हो गई, तो इससे सबसे बड़ा नुकसान किसान-खेत मजदूर को होगा और सबसे बड़ा फायदा मुट्ठीभर पूंजीपतियों को। 

दूसरा, मोदी सरकार का दावा कि अब किसान अपनी फसल देश में कहीं भी बेच सकता है, पूरी तरह से सफेद झूठ है। आज भी किसान अपनी फसल किसी भी प्रांत में ले जाकर बेच सकता है। परंतु वास्तविक सत्य क्या है? कृषि सेंसस 2015-16 के मुताबिक देश का 86 प्रतिशत किसान 5 एकड़ से कम भूमि का मालिक है। जमीन की औसत मल्कियत 2 एकड़ या उससे कम है। ऐसे में 86 प्रतिशत किसान अपनी उपज नजदीक अनाज मंडी-सब्जी मंडी के अलावा कहीं और ट्रांसपोर्ट कर न ले जा सकता या बेच सकता है। मंडी प्रणाली नष्ट होते ही सीधा प्रहार स्वाभाविक तौर से किसान पर होगा।

तीसरा, मंडियां खत्म होते ही अनाज-सब्जी मंडी में काम करने वाले लाखों-करोड़ों मजदूरों, आढ़तियों, मुनीम, ढुलाईदारों, ट्रांसपोर्टरों, शेलर आदि की रोजी रोटी और आजीविका अपने आप खत्म हो जाएगी।

चौथा, किसान को खेत के नज़दीक अनाज मंडी-सब्जी मंडी में उचित दाम किसान के सामूहिक संगठन तथा मंडी में खरीददारों के आपस के कॉम्पटिशन के आधार पर मिलता है। मंडी में पूर्व निर्धारित ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (MSP) किसान की फसल के मूल्य निर्धारण का बेंचमार्क है। यही एक उपाय है, जिससे किसान की उपज की सामूहिक तौर से ‘प्राइस डिस्कवरी’ यानि मूल्य निर्धारण हो पाता है। अनाज-सब्जी मंडी व्यवस्था किसान की फसल की सही कीमत, सही वजन व सही बिक्री की गारंटी है। अगर किसान की फसल को मुट्ठीभर कंपनियां मंडी में सामूहिक खरीद की बजाय उसके खेत से खरीदेंगे, तो फिर मूल्य निर्धारण, वजन व कीमत की सामूहिक मोलभाव की शक्ति खत्म हो जाएगी। स्वाभाविक तौर से इसका नुकसान किसान को होगा।

पाँचवां, अनाज-सब्जी मंडी व्यवस्था खत्म होने के साथ ही प्रांतों की आय भी खत्म हो जाएगी। प्रांत ‘मार्केट फीस’ व ‘ग्रामीण विकास फंड’ के माध्यम से ग्रामीण अंचल का ढांचागत विकास करते हैं व खेती को प्रोत्साहन देते हैं। उदाहरण के तौर पर पंजाब ने इस गेहूं सीज़न में 127.45 लाख टन गेहूँ खरीदा। पंजाब को 736 करोड़ रुपये मार्केट फीस व इतना ही पैसा ग्रामीण विकास फंड में मिला। आढ़तियों को 613 करोड़ रुपये कमीशन मिला। इन सबका भुगतान किसान ने नहीं, बल्कि मंडियों से गेहूँ खरीद करने वाली भारत सरकार की एफसीआई आदि सरकारी एजेंसियों तथा प्राईवेट व्यक्तियों ने किया। मंडी व्यवस्था खत्म होते ही आय का यह स्रोत अपने आप खत्म हो जाएगा। 

छठवां, कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि अध्यादेश की आड़ में मोदी सरकार असल में ‘शांता कुमार कमेटी’ की रिपोर्ट लागू करना चाहती है, ताकि एफसीआई के माध्यम से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद ही न करनी पड़े और सालाना 80,000 से 1 लाख करोड़ की बचत हो। इसका सीधा प्रतिकूल प्रभाव खेत खलिहान पर पड़ेगा।

सातवां, अध्यादेश के माध्यम से किसान को ‘ठेका प्रथा’ में फंसाकर उसे अपनी ही जमीन में मजदूर बना दिया जाएगा। क्या दो से पाँच एकड़ भूमि का मालिक गरीब किसान बड़ी बड़ी कंपनियों के साथ फसल की खरीद फरोख्त का कॉन्ट्रैक्ट बनाने, समझने व साइन करने में सक्षम है? साफ तौर से जवाब नहीं में है।

कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग अध्यादेश की सबसे बड़ी खामी तो यही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि एमएसपी देना अनिवार्य नहीं। जब मंडी व्यवस्था खत्म होगी तो किसान केवल कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पर निर्भर हो जाएगा और बड़ी कंपनियां किसान के खेत में उसकी फसल की मनमर्जी की कीमत निर्धारित करेंगी। यह नई जमींदारी प्रथा नहीं तो क्या है? यही नहीं कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के माध्यम से विवाद के समय गरीब किसान को बड़ी कंपनियों के साथ अदालत व अफसरशाही के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है। ऐसे में ताकतवर बड़ी कंपनियां स्वाभाविक तौर से अफसरशाही पर असर इस्तेमाल कर तथा कानूनी पेचीदगियों में किसान को उलझाकर उसकी रोजी रोटी पर आक्रमण करेंगी तथा मुनाफा कमाएंगी।

आठवां, कृषि उत्पाद, खाने की चीजों व फल-फूल-सब्जियों की स्टॉक लिमिट को पूरी तरह से हटाकर आखिरकार न किसान को फायदा होगा और न ही उपभोक्ता को। बस चीजों की जमाखोरी और कालाबाजारी करने वाले मुट्ठीभर लोगों को फायदा होगा। वो सस्ते भाव खरीदकर, कानूनन जमाखोरी कर महंगे दामों पर चीजों को बेच पाएंगे। उदाहरण के तौर पर ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ की रबी 2020-21 की रिपोर्ट में यह आरोप लगाया गया कि सरकार किसानों से दाल खरीदकर स्टॉक करती है और दाल की फसल आने वाली हो, तो उसे खुले बाजार में बेच देती है। इससे किसानों को बाजार भाव नहीं मिल पाता। 2015 में हुआ ढाई लाख करोड़ का दाल घोटाला इसका जीता जागता सबूत है, जब 45 रुपये किलो में दाल का आयात कर 200 रुपये किलो तक बेचा गया था। 

जब स्टॉक की सीमा ही खत्म हो जाएगी, तो जमाखोरों और कालाबाजारों को उपभोक्ता को लूटने की पूरी आजादी होगी।

नौवां, अध्यादेशों में न तो खेत मजदूरों के अधिकारों के संरक्षण का कोई प्रावधान है और न ही जमीन जोतने वाले बंटाईदारों या मुजारों के अधिकारों के संरक्षण का। ऐसा लगता है कि उन्हें पूरी तरह से खत्म कर अपने हाल पर छोड़ दिया गया है।

दसवां, तीनों अध्यादेश ‘संघीय ढांचे’ पर सीधे-सीधे हमला हैं। ‘खेती’ व ‘मंडियां’ संविधान के सातवें शेड्यूल में प्रांतीय अधिकारों के क्षेत्र में आते हैं। परंतु मोदी सरकार ने प्रांतों से राय करना तक उचित नहीं समझा। खेती का संरक्षण और प्रोत्साहन स्वाभाविक तौर से प्रांतों का विषय है, परंतु उनकी कोई राय नहीं ली गई। उल्टा खेत खलिहान व गांव की तरक्की के लिए लगाई गई मार्केट फीस व ग्रामीण विकास फंड को एकतरफा तरीके से खत्म कर दिया गया। यह अपने आप में संविधान की परिपाटी के विरुद्ध है। 

महामारी की आड़ में ‘किसानों की आपदा’ को मुट्ठीभर ‘पूंजीपतियों के अवसर’ में बदलने की मोदी सरकार की साजिश को देश का अन्नदाता किसान व मजदूर कभी नहीं भूलेगा। भाजपा की सात पुश्तों को इस किसान विरोधी दुष्कृत्य के परिणाम भुगतने पड़ेंगे।

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