इतिहासकार रामचंद्र गुहा का सर्वोच्च अदालत को खुला पत्र, कहा- सुप्रीम कोर्ट को नहीं बख्शेगा इतिहास और संविधान

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प्रख्यात इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने कहा है कि यदि अधिनायकवाद और सांप्रदायिक कट्टरता की ताकतों को इसी तरह बढ़ावा मिलता रहा और उच्चतम न्यायालय इन पर अंकुश लगाने के लिए बहुत कम या कुछ भी नहीं करता है, तो इतिहास और संविधान का फैसला वर्तमान की तुलना में भी कठोर होगा।हालाँकि भारतीय लोकतंत्र का पतन कैसे और क्यों शुरू हुआ उच्चतम न्यायालय को इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है, लेकिन हाल के वर्षों में इसने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया है।

दरअसल अपने एक ट्वीट में उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा था कि जब भविष्य में इतिहासकार वापस मुड़कर देखेंगे कि किस तरह से पिछले 6 वर्षों में औपचारिक आपातकाल के बिना ही भारत में लोकतंत्र को नष्ट किया गया है, तो वे विशेष रूप से इस विनाश में उच्चतम न्यायालय की भूमिका को चिह्नित करेंगे, और पिछले 4 चीफ जस्टिसों की भूमिका को और भी अधिक विशेष रूप से। दरअसल इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने उच्चतम न्यायालय के जजों को पत्र लिखकर इसे और विस्तार दिया है।

गुहा ने न्यायपालिका की मौजूदा स्थिति पर उच्चतम न्यायालय के जजों के नाम एक खुली चिट्ठी लिखी है, जिसे ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने प्रकाशित किया है। गुहा ने माननीय जज महोदयों को सम्बोधित पत्र में कहा है कि मैं यह पत्र सम्मान और पीड़ा के साथ लिख रहा हूँ। मैं एक इतिहासकार और एक नागरिक के रूप में, उच्चतम न्यायालय के कामकाज में कई भारतीयों के बीच विश्वास की बढ़ती कमी के साथ दोनों हैसियतों में चिंतित हूं।  

पत्र में कहा गया है कि भारतीय लोकतंत्र के पतन में निश्चित रूप से अदालत की केंद्रीय भूमिका नहीं रही है। इस पतन के दूसरे और शायद अधिक गंभीर रूप हैं, नौकरशाही व पुलिस, व्यक्ति को केंद्र में रख कर पूरे एक पंथ का निर्माण, मीडिया को डराना-धमकाना, टैक्स व जाँच एजेंसियों का इस्तेमाल कर स्वतंत्र आवाज़ को डराना-धमकाना, औपनिवेशिक युग के दमन कारी क़ानूनों को हटाने के बजाय उसे और सख़्त करना और राज्यों के अधिकारों को लगातार कम करते हुए संघीय ढाँचे को कमज़ोर करना।

रामचंद्र गुहा ने कहा है कि मैं यह भी स्पष्ट कर रहा हूँ  कि भारतीय लोकतंत्र का यह पतन केवल एक पार्टी या एक नेता की गलती नहीं है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को विकृत करने का यह काम कांग्रेस ने शुरू किया था, जब वह केंद्र की सत्ता में थी और मई 2014 से भारतीय जनता पार्टी ने उसे और आगे बढ़ाया है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट को इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है कि भारतीय लोकतंत्र का यह पतन कैसे और क्यों शुरू हुआ, हाल के वर्षों में इसने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया है।

गुहा ने याद दिलाया है कि इस मामले में अदालत की नाकामी के कुछ उदाहरण हैं, मसलन यूएपीए जैसे क़ानून, जिनका संवैधानिक लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, उन्हें खारिज करने से अदालत का इनकार करना, चुनाव फंडिंग और समान नागरिकता क़ानून जैसे बड़े मामलों की सुनवाई में देरी करना, कश्मीर के बच्चों और छात्रों को बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित रखना, लोकतंत्र में सबसे लंबे समय तक इंटरनेट बंद कर पूरे एक साल के लिए शिक्षा और ज्ञान के सभी साधनों को रोकना। संविधान विशेषज्ञ और वकील इन उदाहरणों में और बहुत कुछ जोड़ सकते हैं।

उन्होंने कहा है कि अधिनायकवाद और सत्ता के केंद्रीयकरण की इस प्रवृत्ति को कोविड-19 के संकट ने और आगे बढ़ाया है। केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ दल ने व्यक्तित्व-आधारित पंथ की प्रवृत्ति को और आगे बढ़ायी है जिसकी आड़ में राज्य सरकारों के अधिकारों को और कम किया जा जा रहा है तथा स्वतंत्र मीडिया पर हमले किए जा रहे हैं। यह अफ़सोस की बात है जैसा कि बीते कुछ महीनों की सुनवाइयों और आदेशों से साफ़ है, उच्चतम न्यायालय इनको रोकने अथवा इन पर अंकुश लगाने के प्रति पूरी तरह अनिच्छुक या असफल रहा है।

उन्होंने बड़े दुःख के साथ कहा है कि इस दौरान एक चीफ जस्टिस ने दमनकारी क़ानून के तहत जेल में बंद माँ से मिलने के लिए तड़प रही एक बेटी से कहा कि वह ठंड से बचे, एक दूसरे न्यायाधीश ने यकायक हुए लॉकडाउन की वजह से बेरोज़गार हुए प्रवासी मज़दूरों से कहा कि उन्हें वेतन की मांग नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उन्हें थोड़ा बहुत खाना तो मिल ही रहा है। चीफ जस्टिस या कोई जस्टिस इस तरह की निष्ठुर और संवेदनहीन बातें करें, यह अपने आप में उच्चतम न्यायालय की गरिमा के अनुकूल नहीं है। उन्होंने याद दिलाया कि मौजूदा सरकार के 6 साल के कार्यकाल में एक चीफ जस्टिस रिटायर होने के तुरन्त बाद राज्यपाल बनना स्वीकार कर लेते हैं और एक दूसरे चीफ जस्टिस राज्यसभा का सदस्य बनने पर राजी हो जाते हैं, न्यायपालिका  के लिए यह तो और बुरी बात है।

इसके बावजूद अकेले टॉप पर बैठे आदमी को दोष नहीं दिया जा सकता है। मुमकिन है कि मास्टर ऑफ़ द रोस्टर की क्षमताओं को सही ढंग से परिभाषित नहीं किया गया हो, और पद पर बैठा आदमी इसका दुरुपयोग कर सकता है।हालांकि जस्टिस चेलमेश्वर और और बाकी तीन जजों ने 2018 में प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस पर ज़ोर दिया था। लेकिन यदि हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं का क्षरण लगातार, सिलसिलेवार ढंग से और बढ़ती रफ़्तार से हो रहा हो तो इसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ मुख्य न्यायाधीशों पर ही नहीं डाली जा सकती है।

रामचन्द्र गुहा ने कहा है कि अब समय आ गया है कि देश की सबसे बड़ी अदालत के सभी कार्यरत जजों को संविधान द्वारा दिए गए दायित्वों और अदालत जिस दिशा में जा रही है, उसके बीच के अंतर पर विचार करना चाहिए। उच्चतम न्यायालय की प्रतिष्ठा आपातकाल के बाद से अब तक शायद सबसे निचले स्तर पर है। हमारे शीर्ष के संविधान विद्वानों के लेखों को पढ़ने से ऐसा ही लगता है।

गुहा ने पत्र में कहा है कि अंतिम मुख्य न्यायाधीश के बारे में गौतम भाटिया ने लिखा है कि उनके कार्यकाल में उच्चतम न्यायालय एक ऐसे संस्थान से जिसका मुख्य काम लोगों के बुनियादी हकों की सुरक्षा करना था, गिर कर ऐसा संस्थान बन गया है, जो कार्यकारी (सरकार) की भाषा बोलता हो और जिसे कार्यकारी से अलग करना मुश्किल हो गया हो। इस दौरान प्रताप भानु मेहता ने कहा कि हम सुप्रीम कोर्ट की ओर संविधान की रक्षा के लिए देखते हैं, अदालत का फ़ैसला क्या होगा, यह हमें नहीं मालूम, पर हाल के इतिहास से हमने यह सीखा है कि लोकतंत्र में सुप्रीम कोर्ट कैसे काम करता है, इस मामले में हम ग़लतफ़हमी के शिकार हुए हैं। हाल के दिनों में उच्चतम न्यायालय ने हमें बुरी तरह निराश किया, राजनीतिक आज़ादी न होने से काम टालने, नहीं करने की इच्छा और उत्साह की कमी से ऐसा हुआ है। सबसे ताजा मिसाल है। सुहास पलसीकर ने ‘भारतीय राज्य का उत्पीड़क में तब्दील होना’ लेख में कहा कि उत्पीड़क में बदलने की यह राजनीतिक तब्दीली इतनी आसानी से नहीं हुई होती। यदि न्यायपालिका ने मुंह फेर कर दूसरी ओर नहीं देखा होता।

गुहा ने कहा है कि न्यायपालिका के सबसे अनुभवी और बुद्धिमान लोग भी इन बातों से सहमत हैं, जो सार्वजनिक रूप से अपनी व्यग्रता जाहिर नहीं कर सकते। मैं भाटिया, मेहता और पलसीकर के आकलन का समर्थन करता हूं। इसके साथ ही एक इतिहासकार के रूप में मैं यह भी जानता हूं कि संस्थाएं सड़ती हैं, पर उन्हें फिर से ठीक भी किया जा सकता है।

गुहा ने कहा है कि एक इतिहासकार के रूप में मैं जानता हूँ कि उच्चतम न्यायालय  ने 1970 के दशक में राजनीतिक लोगों और सत्ता में बैठे लोगों के सामने आपातकाल के दौरान समर्पण के बाद 1980 और 1990 के दशक में अपनी स्वायत्तता और स्वतंत्रता को अपने निर्णयों और आचरण से पुनः बहाल कर दिया था। इसी तरह यह उम्मीद की जा सकती है कि मौजूदा समय का पतन रुक सकता है और इसे एक बार फिर दुरुस्त किया जा सकता है।

गुहा ने कहा है कि एक तरफ अधिनायकवादी और सांप्रदायिक कट्टरता की ताक़तें तेजी से आगे बढ़ रही हैं और उच्चतम न्यायालय इसे रोकने की दिशा में कुछ नहीं कर रहा है या जो कुछ कर रहा है वह नाकाफी है, दूसरी ओर इतिहास और संविधान के विद्वानों का फ़ैसला मौजूदा समय से अधिक कड़ा हो सकता है। इस मामले में आज की न्यायपालिका को भविष्य में आने वाली पीढ़ियों के लोग निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायपालिका के रूप में ही नहीं देखेंगे, बल्कि उसे इस रूप में देखेंगे जो कार्यकारी (सरकार) के साथ मिलीभगत कर काम करता हो। इसलिए यह पत्र एक इतिहासकार और नागरिक की ओर से है, जो लोकतंत्र और संवैधानिक ढाँचे को अपनी आँखों के सामने टूट कर बिखरता हुआ देख रहा है।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।) 

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