ये निर्लज्जपन और बेहयाई की इंतहा है। बीजेपी और आरएसएस के नेताओं ने एक बैठक की है। बताया जा रहा है कि यह बैठक यूपी में चुनाव तैयारियों के संदर्भ में हुई है। पीएम मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और जेपी नड्डा इस बैठक में शामिल थे। इसके साथ ही संघ के दूसरे नंबर के पदाधिकारी होसबोले इसमें शरीक हुए। क्या विडंबना है जिस गृहमंत्री को कोरोना के खिलाफ लड़ाई की कमान संभालनी थी वह महामारी के दौरान पूरी सीन से गायब रहा। उसके लापता होने के इश्तिहार छापे जा रहे थे। लेकिन वह अचानक इस बैठक में सामने आता है। गृहमंत्री की इस उपस्थिति ने उन मेढकों की याद ताजा कर दी जो बरसात आने पर पीले-पीले रंगों में टर्र-टर्र करते हर जगह मिल जाते हैं। उसी तरह से चुनाव की बात आयी और जनाब हाजिर हो गए। लेकिन बीजेपी नेताओं के इस साहस की दाद देनी होगी। इस महाप्रलय के समय भी ये चुनाव की बात कर सकते हैं। और वह भी उस राज्य के लिए जो इस महामारी का एपिसेंटर बना हुआ है। जहां लाशें गंगा में तैर रही हैं। और उन्हें चील, कौए और कुत्ते नोच रहे हैं।
उन्नाव से लेकर बक्सर तक पूरा गंगा का किनारा कब्रगाह में तब्दील हो गया है। जहां खोदो लाश ही लाश है। और जिसके भीतर दफन लोगों को अंतिम संस्कार के साथ सम्मान से विदा होने का मौका भी नहीं मिला। यह तस्वीर किसी एक सूबे और एक देश तक सीमित नहीं है बल्कि पूरी दुनिया में प्रचारित हो गयी है। नतीजा यह है कि पूरे जहान में भारत की थू-थू हो रही है। यह तब है जबकि अभी बीमारी गयी नहीं है। गांवों में इसकी तबाहियों का सिलसिला जारी है। वहां न कोई डॉक्टर है। न चिकित्सा व्यवस्था और न ही कोई देखने वाला। लोगों को एक दिन सर्दी-जुकाम हो रहा है। दूसरे दिन बुखार और फिर तीसरे दिन कहानी खत्म। गांव वाले समझ पाएं उससे पहले ही काल के गाल में समा जा रहे हैं। इन मौतों की न तो कोई गिनती है और न ही कहीं ये रजिस्टर में दर्ज हो रही हैं। गंगा के किनारे रेतों में दबी लाशें हों या फिर पानी में तैरती बेजान शरीरें इन्हीं सब इलाकों की हैं। जिसका न तो प्रशासन ने संज्ञान लिया और न ही सरकार ने उनके बारे में कुछ सोचा।
उल्टे जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सभी गांवों के लिए एंबुलेंस की व्यवस्था कराने की बात कही तो योगी सरकार उस फैसले को रुकवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंच गयी। और सुप्रीम कोर्ट तो मानो की इनकी जेब में है। उसने तुरंत उस पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि यह व्यवहारिक नहीं है। कोई उससे पूछ सकता है कि यह व्यवहारिक कैसे नहीं है? अगर स्थितियां आपातकालीन हैं तो उसकी तैयारी भी आपातकालीन होनी चाहिए। बीजेपी को अगर किसी इलाके में रैली करनी होती है तो वह हजारों गाड़ियां लाकर खड़ी कर देती है। फिर एक ऐसे मौके पर जबकि इनकी जरूरत है। गाड़ियों को एम्बुलेंस में तब्दील कर उन्हें गांव-गांव में क्यों नहीं लगाया जा सकता है। यह इच्छाशक्ति की कमी है। वरना कुछ भी असंभव नहीं है। वैसे तो बीजेपी-आरएसएस बार-बार अतीत के सपने दिखाते हैं और पूरे समाज तथा देश को वहीं ले जाकर खड़ा कर देना चाहते हैं। लेकिन इस इक्कीसवीं सदी में इंसानी लाशों को उन प्राचीन कालीन समाजों जितना भी हम सम्मान नहीं दे सके। मिस्र की सभ्यता में लाशों को ममी बनाकर रखने का रिवाज भला कौन भूल सकता है। राजाओं के बने पिरामिड आज भी जीते-जागते उदाहरण हैं।
बहरहाल बात यहां चुनावी बैठक की हो रही है। पार्टी ने यह बैठक उस समय की है जबकि कोरोना और उससे हो रही मौतें अभी अपने पीक पर हैं। यूपी में शायद ही कोई परिवार ऐसा बचा हो जिसके खुद के परिजन या फिर रिश्तेदारी में किसी की मौत न हुई हो। ऐसे समय में बीजेपी भला चुनाव की बात कैसे कर सकती है। और वह तब जबकि अभी पांच राज्यों के चुनावों का अपराध उसके सिर पर है। यूपी के पंचायत चुनावों की गर्मी शांत नहीं हुई है जिसने कोरोना को घर-घर पहुंचाने का काम किया। उत्तराखंड के कुंभ आयोजन को रोक कर इस तबाही को कम किया जा सकता था। इन सारी चीजों के लिए माफी मांगने और आइंदा इस तरह की कोई गलती न करने की शपथ लेने की जगह पार्टी फिर एक और आपराधिक कृत्य के रास्ते पर है। आखिर इतना साहस बीजेपी के नेता लाते कहां से हैं? दरअसल इन्हें इस बात का पूरा विश्वास है कि जनता जाहिल है और उसे मनचाही दिशा में मोड़ा जा सकता है। उन्हें लगता है कि उन्होंने लोगों के शरीर पर न केवल गाय के गोबर का लेप करवाया और उन्हें मूत्रपान कराया है बल्कि वह गोबर उनके दिमागों में भी भर दिया है। जिससे वे न कुछ सोच सकते हैं और न समझ सकते हैं और ये जो कहेंगे उसी को वो सच मान लेंगे।
वरना आरएसएस का चीफ यह नहीं कह पाता कि मरने वाले मुक्त हो गए। देश के किसी भी इंसान से मरने वाले और उसके परिजनों के प्रति संवेदना की अपेक्षा की जाती है। और यह बात कोई सामान्य इंसान नहीं कर रहा है बल्कि अपने को दुनिया का सबसे बड़ा संगठन घोषित करने वाले प्लेटफार्म का मुखिया कह रहा है। वह किस स्तर का संवेदनहीन है और अपने समर्थकों को कितना जाहिल समझता है उसका इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है। सामान्य तौर पर अगर सामने कोई इस तरह की बात करता तो लोग उसका मुंह नोच लेते। लेकिन संघ प्रमुख कुछ भी बोल कर निकल सकते हैं क्योंकि उनकी कोई जवाबदेही नहीं है। उनका संगठन न तो चुनाव लड़ता है और न ही जनता की उन्हें फिक्र है। उनके समर्थक तो कई जगह यह कहते पाए गए कि अगर 2 फीसदी आबादी कम भी हो जाए तो उससे भला क्या फर्क पड़ेगा।
ऊपर से जनसंख्या बढ़ोत्तरी को कम करने में यह मददगार ही साबित होगा। क्योंकि देखने में मनुष्य लेकिन संवेदना में पशुओं से भी नीचे पहुंच चुके इस तबके को न तो किसी का दर्द महसूस होता है और न ही किसी के स्वजन के जाने की पीड़ा। दरअसल इन्होंने अपने समर्थकों की एक ऐसी जमात तैयार कर ली है जिसे पशुओं के नीचे भी रखा जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। कोरोना के पीक काल में जब सूबे में लाशों का अंबार लगा हुआ था। घर-घर मौत नाच रही थी। और अस्पताल से लेकर आक्सीजन सिलेंडर और आक्सीमीटर से लेकर दवाओं तक का टोटा पड़ा हुआ था। सारी चीजों की ब्लैक मार्केटिंग हो रही थी। उस समय यूपी की योगी सरकार द्वारा गौशालयों के लिए थर्मल गन औऱ मेडिकल किट की व्यवस्था करने का निर्देश दिया गया था। और उस पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। इसलिए भक्तों का एक बड़ा हिस्सा पशुओं से भी पीछे अपनी जिंदगी को मानता है। यही उनका आधार है। संघ की पृष्ठभूमि से आने और उसके प्रचारक होने के नाते मोदी भी उसी मानसिकता के हैं। और उन पर भी इन मौतों का कोई फर्क नहीं पड़ता है। उन्होंने इस बात को गुजरात दंगों से लेकर कोरोना की मौतों में बार-बार साफ किया है। लेकिन चूंकि उन्हें चुनाव लड़ना है और जनता का वोट भी हासिल करना है इसलिए रोने-धोने का नाटक करना उनकी मजबूरी बन जाती है। वरना अंदर से वह भी मुक्त हो गए वाले ही सिद्धांत के पक्षकार हैं।
बहरहाल मोदी जी! योगी जी! शाह जी! भागवत जी! अभी यूपी की जनता इतनी जाहिल नहीं हुई है। यह बात अलग है कि बीजेपी एक चुनावी मशीन में तब्दील हो गयी है। जिसमें कारपोरेट और चुनाव का पूरा तंत्र उसके साथ है। और वोट देने वाली जनता की भूमिका इसमें एक मशीन के पुर्जे से ज्यादा नहीं। लेकिन पार्टियां सिर्फ चुनाव लड़ने और सरकार बनाने के लिए नहीं होती हैं। किसी भी लोकतंत्र में राजनीति में सक्रिय किसी भी संगठन या फिर व्यक्ति की अंतिम जवाबदेही जनता है। और जनता के लिए जो भी जरूरी है वह करना उसका कर्तव्य है। यह एक आपात स्थिति है।
अभी जबकि कोरोना ने तबाही मचा रखी है और किसी भी चुनाव या फिर उसकी गतिविधियों से इसके बढ़ने की आशंका है। तो जरूरत पड़ने पर उस चुनाव को भी रोकना पड़ सकता है। यह बात सही है कि पार्टियों का गठन सत्ता हासिल करने के लिए होता है। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि उसका आधार जनता का कल्याण और उसकी भलाई है। जनता के हितों के खिलाफ खड़ा हो कर कोई भी पार्टी जिंदा नहीं रह सकती है। और इस तरह से ऐसे दौर में किसी भी संगठन की जिम्मेदारी जनता को ज्यादा से ज्यादा मदद पहुंचाने की हो सकती है। ऐसा सोचने वाला संगठन भला उस काम को छोड़कर खुद को चुनावी तैयारियों में कैसे लगा सकता है? और अगर ऐसा करता है तो वह जनता के प्रति अपराध कर रहा है। और मौका आने पर खुद जनता ही उसकी सजा देगी। पंचायत चुनावों में उसने ट्रेलर दिखा दिया है। 22 के चुनावों में पिक्चर भी आ जाएगी।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)