Friday, April 19, 2024

रोशनी चुराने वालों से सावधान रहने की जरूरत

आज दैनिक भास्कर और भारत समाचार पर सच दिखाने के नाते डाले गए आयकर के छापों ने चौंतीस साल पहले के उन झगड़ों की याद ताजा कर दी जो प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार और इंडियन एक्सप्रेस समूह के बीच चल रहा था। इंडियन एक्सप्रेस समूह बोफोर्स कांड से लेकर राजीव गांधी की सरकार की कई गड़बड़ियों को उजागर कर रहा था। तब यही भाजपाई लोग और संघ की पृष्ठभूमि से आए तमाम पत्रकार इंडियन एक्सप्रेस मैनेजमेंट के सारे अपराध माफ करके उसके साथ खड़े थे। उनके अलावा वे तमाम लोग भी खड़े थे जो मानते थे कि एक्सप्रेस समूह कमियों और पक्षपात के बावजूद अपनी पत्रकारिता में कहीं सच दिखाने का साहस प्रदर्शित कर रहा है और उसकी कीमत देने को तैयार है।

आज जब अचानक कुछ पत्रकारों ने यह कहना शुरू कर दिया है कि यह छापा प्रेस की आजादी पर नहीं बल्कि दैनिक भास्कर समूह के धतकरमों पर डाला जा रहा है तब फिर इतिहास का वह पन्ना याद आने लगा है। उस समय एक ओर एक्सप्रेस समूह राजीव गांधी सरकार के विरुद्ध खबरें कर रहा था तो दूसरी ओर एक्सप्रेस समूह में बोनस को लेकर हड़ताल करवा दी गई थी। वह हड़ताल नागराज उर्फ नागा नाम के एक ट्रेड यूनियन लीडर ने करवाई थी और तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने कई वामपंथी संगठनों को प्रेरित करके यह कहलवाना शुरू कर दिया था कि रामनाथ गोयनका और उनका प्रबंधन कर चोरी से लेकर वेज बोर्ड की रिपोर्ट न लागू करने जैसे कई गैर कानूनी काम करता है।

उसकी पत्रकारिता भी दक्षिणपंथी है। इसलिए अगर मजदूरों के वाजिब हक के लिए होने वाली हड़ताल उसे दबाव में डाल रही है तो उसका समर्थन किया जाना चाहिए। गौरतलब है कि जब वहां हड़ताल तोड़ने और काम पर लौटने की कोशिश हुई तो उन पत्रकारों पर तेजाब फेंका गया और राड से हमला किया गया। तब अरुण शौरी ने लौट कर पहले पेज पर रोमन में शीर्षक देकर लिखा कि `दम है कितना दमन में तेरे देख लिया और देखेंगे।’ (Dum Hai Kitna Daman Mein Tere Dekh Liya Aur DeKheinge).

रोचक तथ्य यह है कि आज जब दैनिक भास्कर समूह के दफ्तरों पर आयकर विभाग ने छापे डाले हैं तो कुछ पत्रकार दलित और बहुजन चेतना का सवाल उठा रहे हैं तो कुछ पत्रकार कर्मचारियों के शोषण और वेज बोर्ड का सवाल। उनका कहना है कि दैनिक भास्कर एक शोषण करने वाला संस्थान है और यह कभी तो भाजपा का घनघोर समर्थक था इसलिए आज वह प्रेस की आजादी का सवाल जबरदस्ती उठा रहा है। हालांकि राजीव गांधी की सरकार की दमनकारी और बदले की कार्रवाई और आज की कार्रवाई में फर्क है। तब ट्रेड यूनियन आंदोलन भी था और वेज बोर्ड भी था। आज वे दोनों लगभग खत्म हो चुके हैं। ज्यादातर पत्रकार संविदा पर हैं और शायद ही किसी मीडिया संस्थान में ट्रेड यूनियन का दबदबा हो। उल्टे आज जो घृणा और हिंसा का वातावरण निर्मित किया जा रहा है वह कई गुना भयानक है।

यही वजह है कि पत्रकार अजय शुक्ला कहते भी हैं कि थर्ड रीक और मौजूदा शासन के बीच समानताएं बढ़ रही हैं। लेकिन वैसे लोग हर समय होते हैं जो प्रेस की आजादी, सच की आवश्यकता और कारपोरेट शोषण के बीच अंतर नहीं कर पाते। निश्चित तौर पर पत्रकारों की नौकरी बहुत अनिश्चित और कमजोर आधार पर टिकी होती है और उनसे ज्यादा असुरक्षित तबका शायद ही कोई हो। लेकिन यह सवाल उन संस्थानों में क्यों नहीं उठाए जाते जो बहुसंख्यवाद और सत्तारूढ़ दल के भोंपू बने रहते हैं। जहां पत्रकारों को भिन्न विचारों की अनुमति नहीं है और उन्हें अलग विचार व्यक्त करने के लिए कभी भी निकाल दिया जाता है?  जहां पत्रकारों से यह लिखवा लिया जाता है कि हम वेज बोर्ड नहीं लेंगे और यह एक अनुचित किस्म की रपट है, उन पर छापे क्यों नहीं डाले जाते जो हर खबर को तोड़ मरोड़ कर सरकार के झूठ के पक्ष में गढ़ देते हैं।

चाहे दैनिक भास्कर हो या इंडियन एक्सप्रेस, पत्रकारिता का कोई भी संस्थान दूध का धुला नहीं है। एक्सप्रेस भी कर चोरी करता रहा है, मजदूरों के हक मारता रहा है और अवैध रूप से इमारतों का निर्माण करवाता रहा है। लेकिन इन सारी गड़बड़ियों के बावजूद उसके साहसिक पत्रकारिता की एक परंपरा है और समय समय पर वह उसे निभाता रहा है। कभी वह पूरे जोर से व्यवस्था से टकराता रहा है तो कभी संतुलन बनाकर चलता रहा है। कोई भी संस्थान हमेशा सरकार से टकराए यह जरूरी नहीं है। यह उसकी व्यावसायिक सीमाएं हो सकती हैं और यह तत्कालीन सरकार की नीतियों पर भी निर्भर करता है।

इसी नजर से दैनिक भास्कर जैसे मीडिया संस्थानों को भी देखा जाना चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि कोई पत्रकारीय संस्थान कब लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में खड़ा है। अगर कोई अखबार या मीडिया संस्थान जनता के सच के साथ खड़े होने का साहस दिखा रहा है तो उसके इस कार्य पर हम कर्मचारियों के शोषण, कर चोरी या अतिक्रमण वगैरह की कालिख नहीं पोत सकते। न हो उसे कुतर्कों का मास्क पहना सकते हैं। यह न तो नीरक्षीर विवेक है और न ही एक संतुलित दृष्टि। यह कुछ बिके हुए लोगों या डरे हुए लोगों की समझ है जिससे न तो समाज का भला होता है और न ही पत्रकारिता और न ही लोकतंत्र का।

विगत दो वर्षों में जिन दो बड़ी घटनाओं ने दुनिया और भारत को झकझोरा है उसमें एक है कोविड-19 और दूसरी है पेगासस प्रोजेक्ट रिपोर्ट। इन घटनाओं पर मीडिया का जो भी संस्थान खामोश रहा है या सच से दूर झूठ के साथ खड़ा रहा है वह इतिहास में अपने को कलंक के रूप में ही दर्ज करवाएगा। मानव इतिहास गवाह है कि जब भी महामारी आती है तो सरकारें अपनी हेकड़ी, नासमझी और दमनकारी कानूनों के माध्यम से ऐसा माहौल पैदा करती हैं कि तत्कालीन शासक अलोकप्रिय हो जाते हैं। ऐसे 1918 में भी हुआ था और ऐसा आज भी हो रहा है। वैसे समय में तमाम पाबंदियों के बावजूद जनता और उसकी अभिव्यक्ति के मंच सक्रिय होते हैं। वे सच सामने लाने की कोशिश करते हैं। दैनिक भास्कर ने कोविड-19 के बारे में अपनी जोखिम भरी पत्रकारिता से सरकार की आंख में उंगली डालकर उसे जमीनी सच दिखाने की कोशिश की है।

उसके बाद वह पेगासस प्रोजेक्ट में भले नहीं शामिल है लेकिन उससे निकलने वाली खबरों को मुंह छुपा के नहीं छाप रहा है। दुर्भाग्य से देश के अन्य बड़े हिंदी अखबार जैसे कि दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला और देश के तमाम सर्वश्रेष्ठ चैनल वैसा कर पाने में पीछे रहे हैं। बल्कि उन्होंने उल्टे सरकार को पाक साफ बताने और उसके झूठ का प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हिंदी अखबारों की तुलना में आज भी द टेलीग्राफ या द इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबार खबरों और विश्लेषणों को सामने लाने का असाधारण और साधारण साहस का परिचय देते रहते हैं। शायद यह अंग्रेजी पत्रकारिता की अपनी परंपरा है जिसे हिंदी मीडिया घरानों ने अभी तक नहीं अपनाया था। खास कर उन मीडिया घरानों में यह परंपरा नहीं थी जो सिर्फ हिंदी या भाषाई पत्रकारिता करते हैं। भास्कर वैसा करने का साहस कर रहा है इसलिए उसका स्वागत किया जाना चाहिए।  

इसलिए आज पत्रकार बिरादरी और उसके समर्थक समूहों से यह अपील की जानी चाहिए कि वे उस पत्रकारिता का पक्ष लें जो अल्पकाल के लिए ही सही लेकिन जनता के सच के साथ खड़ी है और अंधेरे में होने वाली व्यवस्था की उन साजिशों को भी बेनकाब कर रही है, जो वे अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं अपने प्रतिद्वंद्वियों और अपने सहयोगियों के साथ कर रहे हैं। पत्रकारिता लोकतंत्र को पारदर्शी बनाती है। वह लोकतंत्र के उन तमाम अंधेरे कोनों को रोशन करती है जहां कीड़े मकोड़े पनपने और मकड़ी के जाले लगने की गुंजाइश होती है।

पत्रकारिता का एक हिस्सा जासूसी करता है लेकिन वह उस जासूसी को खत्म करने के लिए की जाती है जनता और लोकतांत्रिक मूल्यों और पारदर्शिता के विरोध में की जाती है। इसीलिए हम सरकारी जासूसी और पत्रकारीय जासूसी की तुलना भी नहीं कर सकते। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि कोई भी पत्रकारिता संपूर्ण सच को सामने रखने की सामर्थ्य रखती है। निश्चित तौर पर हर सत्य और तथ्य का दूसरा पक्ष होता है। लेकिन वे लोग साजिशी कहे जाएंगे जो संपूर्ण सच दिखाने का नाटक करते हुए उन मशालों को भी बुझाते फिरते हैं जो अंधेरे कोनों में जलाई जाती है।

किसी भी पत्र या मीडिया समूह की जन विरोधी और सच विरोधी पत्रकारिता का विरोध करना उचित है लेकिन इस आधार पर तब भी विरोध जारी रखना अनुचित है जब वह जनता और सच के साथ हो। इस समय दैनिक भास्कर हो या भारत समाचार सच के साथ हैं। इसलिए किन्हीं इतर या पुराने कारणों से उनका विरोध उसी कमजोर तर्क की पुनर्प्रस्तुति है कि पहले क्यों नहीं बोले, तब क्यों नहीं विरोध किया। पिछले सात सालों से इस तर्क पद्धति ने देश की जीभ को कसैला कर रखा है।

इसलिए ऐसे लोगों को तटस्थ और निष्कपट मानने का मन नहीं करता। वे अमावस्या पर फूंक मारकर दीया लूटने वाले भोले बच्चे नहीं हैं। वे रोशनी चुराने वाले उत्तर सत्य की फैक्टरी में काम करने वाले कर्मचारी हैं। उनकी बुद्धि पर दया आती है और उनकी चालाकी पर गुस्सा भी आता है। वे अधिनायकवाद की उसी व्यापक योजना के हिस्से हैं जो इस समय देश पर लादी जा रही है। इसलिए उन्हें चिह्नित करने और उन्हें जवाब देने की जरूरत है।

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)    

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