इंफाल। इंफाल हवाई अड्डे पर लैंड करने से पहले ऊपर से ही मणिपुर अपनी कुदरती खूबसूरती के साथ दिखने लगता है। घाटियों का यह सूबा प्रकृति और संसाधनों के स्तर पर कितना समृद्ध है उसकी झलक वहीं से ही मिलनी शुरू हो जाती है। लेकिन उत्तर-पूर्व इस खास सूबे को पिछले कुछ महीनों से ग्रहण लग गया है। सूबे की जो ख़ूबसूरती थी, समाज में जो सालों-साल का भाईचारा और अपनापन था वह तीन महीनों के भीतर ही कैसे शत्रुतापूर्ण हो गया यह इंफाल से लेकर दिल्ली तक हर किसी के लिए एक बड़ा सवाल बना हुआ है। समाज बिल्कुल दो फाड़ हो गया है। मैतेई न तो कुकी को देखना चाहते हैं और कुकी न तो मैतेई को। दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हैं। इन्हीं हालातों के बीच जनचौक की टीम ने मणिपुर का दौरा किया। दिल्ली से जाने के बाद इस टीम का मकसद हालात का जायजा तो लेना ही था लेकिन उससे भी बड़ा कार्यभार था इन सवालों के जवाब ढूंढना। 24-28 जुलाई के बीच हुई इस चार दिवसीय यात्रा का पहला दिन टीम ने इंफाल में बिताया। तकरीबन साढ़े पांच लाख की आबादी वाला यह शहर दूसरे आम मैदानी शहरों की ही तरह है।
अपनी मणिपुरी तहजीब और संस्कृति के साथ। वैसे तो उनकी भाषा मणिपुरी है लेकिन आम लोग भी हिंदी समझ लेते हैं। लिहाजा बातचीत में बहुत ज्यादा परेशानी नहीं होती है। ज्यादातर घर पक्के हैं। लेकिन ढेर सारे घरों की छत के लिए टीन का इस्तेमाल किया जाता है। शहर से गांव की तरफ बढ़ने पर टीनों की संख्या बढ़ती जाती है। हां मकानों की ऊंचाई ज़रूर थोड़ी छोटी होती है। ऐसा शायद मणिपुरी नागरिकों के कद के चलते होता होगा। सार्वजनिक स्थानों पर हर जगह महिलाओं की मौजूदगी नोटिस की जा सकती है। यहां तक कि ऑटोमोबाइल की दुकानों से लेकर ब्रांडेड सामानों की शॉपों तक में इनकी उल्लेखनीय उपस्थिति है। जनचौक की टीम को बताया गया कि आबादी में भी महिलाएं पुरुषों के मुकाबले ज्यादा हैं। एक बात और दिखी जो यहां नोट किया जाना ज़रूरी है।
महिलाएं समाज में अगुआ की भूमिका में रहती हैं। और उनके एक संगठन मीरा पैबी को तो पैट्रन का दर्जा हासिल है। महिलाओं की इस हैसियत के पीछे उत्तर-पूर्वी राज्यों के तमाम प्राचीन कालीन समाजों के मातृ सत्तात्मक होने का असर हो सकता है। लेकिन इसके साथ ही उनके संघर्षों के गौरवशाली इतिहास की भूमिका है। बताया जाता है कि 1904 में जब वहां अंग्रेजों ने जंगलों से अपने घरों के निर्माण के लिए टीक जैसी इमारती लकड़ियों को काटना शुरू किया तो मणिपुरी महिलाओं ने उनका संगठित होकर विरोध किया था। महिलाओं के इसी सामूहिक प्रतिरोध का नतीजा था कि अंग्रेजों को उस काम से पीछे हटना पड़ा था।
इसी तरह से दूसरा वाकया 1939 का है जब महिलाओं को फिर से सड़क पर उतर कर मोर्चा संभालना पड़ा। हुआ यह कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों ने यहां का चावल बाहर भेजना शुरू कर दिया था। आपको बता दें कि यहां की खेती बेहद समृद्ध है और उसमें केवल धान की फसल होती है। लिहाजा चावल के मामले में मणिपुर बहुत संपन्न है। लेकिन अंग्रेजों द्वारा उसी चावल को अपने इस्तेमाल के दूसरे क्षेत्रों में भेजे जाने से सूबे में भुखमरी की स्थिति खड़ी हो गयी। और लोग अनाज के बगैर मरने लगे। नतीजा यह हुआ कि महिलाएं संगठित होकर फिर सड़क पर उतर पड़ीं। आंदोलन इतना मजबूत था कि अंग्रेजों को अपना फैसला वापस लेना पड़ा। इस तरह से एक बार फिर महिलाओं की जीत हुई। शायद इसी समय पश्चिम बंगाल में ऐसी कोई ताकत नहीं खड़ी हो पायी जिसके चलते वहां अकाल आया और उसमें हजारों हजार लोग भूख की आग में काल कवलित हो गए।
तीसरा मौका 1977 के आस-पास आया जब महिलाओं ने केंद्र सरकार के काले कानून अफस्पा के खिलाफ मोर्चा संभाला। और वर्षों के संगठित आंदोलन और बाद में ईरोम शर्मिला के अनशन के बाद यह कानून वापस हो पाया। लिहाजा महिलाओं का यह संगठन और उनकी संगठित ताकत 1904 से ही चली आ रही है। इसके नाम और रूप बदलते रहते हैं लेकिन वह लगातार मणिपुरी समाज में अपना सक्रिय अस्तित्व बनाए हुए है। यही वजह है कि अभी जब दोनों समुदायों के बीच तीखा संघर्ष चल रहा है तो उनकी महिलाएं घरों में रहकर रोटी बेलने की जगह सड़कों की निगरानी कर रही हैं। सड़क पर चलते जगह-जगह महिलाओं के चेक पोस्ट दिख सकते हैं जिसमें 20-25 महिलाओं की तैनाती होती है वह आने-जाने वालों की गाड़ियों की तलाशी लेती हैं और उनसे पूछताछ करने के बाद ही उन्हें आगे जाने की इजाजत देती हैं। और यह काम केवल सामान्य नागरिकों की तलाशी तक ही सीमित नहीं है बल्कि सीआरपीएफ, असम राइफल्स और मणिपुर राइफल्स के जवानों की गाड़ियों के साथ ही वह वही काम करती हैं जो सामान्य नागरिकों के साथ होता है।
लेकिन इसके साथ ही जीवन के एक दूसरे पहलू की तरफ इशारा करना जरूरी है। दूसरे शहरों के मुकाबले मणिपुर अच्छा-खासा महंगा दिखा। यहां तक कि पिछले दिनों हम लोगों नॉर्थ-ईस्ट के एक दूसरे सूबे त्रिपुरा का भी दौरा किया था लेकिन वहां इतनी महंगाई नहीं थी। खासकर खाने और रहने के मामले में यह बात दिखी। सेब 300 रुपये के ऊपर था। आम का दाम भी 150 से 200 था। सामान्य खाना भी प्रति थाली 200 के पार थी। रहने के लिए होटल जो कहीं सामान्य तौर पर 1000 में मिल जाते हैं उसके लिए 1500 से 2000 तक यहां देने पड़ सकते हैं। यातायात भी यहां अच्छा खासा महंगा है। पता चला एक किलोमीटर का भी आटो वाला 100 रुपये मांग सकता है। त्रिपुरा में जितनी यात्रा 1000 रुपये में पूरी कर ली जा सकती है उसके लिए इंफाल में 1800-2000 रुपये देने पड़ सकते हैं।
बहरहाल इंफाल में रहते जनचौक की टीम ने पहला दौरा मणिपुर विश्वविद्यालय का किया। मणिपुर का मैतेई समाज बेहद पढ़ा लिखा और समृद्ध है। और समाज में पढ़ाई को सबसे ऊपर रखा जाता है। सड़क से सटे मणिपुर विश्वविद्यालय परिसर में घुसते ही प्रकृति आपका स्वागत करती हुई दिखेगी। हर तरफ पेड़ ही पेड़। और उन्हीं पेड़ों के बीच अलग-अलग विभाग। दूर लॉन के किसी इलाके में बेंच पर अलग-अलग जोड़े आपस में अकेले गुफ्तगू करते दिख जाएंगे। क्लास में लड़के और लड़कियां एक साथ एक ही बेंच पर बैठे दिखे। जो आम तौर पर विश्वविद्यालयों में नहीं हो पाता है। इस तरह से कहा जा सकता है कि महिलाओं और पुरुषों में बहुत दूरी नहीं है। और दोनों कंधे से कंधा मिलाकर समाज को संचालित करते हैं। अलग-अलग विभागों में क्लासेज चल रहे थे और छात्र-छात्राएं अपनी पढ़ाई में तल्लीन थे। लिहाजा कहीं ऐसी कोई जगह नहीं मिली जहां एक साथ छात्रों का समूह बैठा हो और उनसे बातचीत हो सके। एक विभाग में घुसने पर एक कमरे में कुछ छात्र-छात्राएं और उनके साथ एक अध्यापक बैठे दिखे।
परिसर में आने का मकसद बताने पर वो बातचीत के लिए सहर्ष तैयार हो गए। और फिर एक क्लास में बैठ कर हम लोगों ने छात्रों से तकरीबन आधे घंटे बात की। आप को बता दें कि यहां कोई भी कुकी छात्र नहीं बचा था। क्योंकि उसे अपनी जान का खतरा था। और पढ़ने वाले मैतेई छात्रों ने जब अपनी बातें रखीं तो सभी कमोबेश पूरे मामले के लिए कुकियों को जिम्मेदार ठहरा रहे थे। और उनको इसी रूप में पेश कर रहे थे जैसे वो यहां के रहने वाले ही नहीं हों। वो घुसपैठिए हैं। वो वर्मा से आए हैं। वो हथियारबंद हैं। वो आतंकवादी हैं। और सूबे की जमीन के बड़े हिस्से पर काबिज हैं। और अपना नाम न जाहिर करने की शर्त पर एक छात्र ने कहा कि “ये जमीनें भी तो हमारी ही हैं क्योंकि हम पुराने समय से यहां रह रहे हैं लेकिन अब हम सबको उससे वंचित कर दिया गया है।”
कुकियों के खिलाफ फैलाई गयी एक आशंका उन सभी की जुबान पर थी। जिसको बाद में उनके एक अध्यापक ने उसी दौरान ब्लैकबोर्ड पर बाकायदा स्केच के जरिये समझाने की कोशिश की। उनका कहना था कि कुकी अपनी आबादी का बहुत तेजी से विस्तार करते हैं। उन्होंने बताया कि कुकी परिवार में एक प्रथा है जिसके मुताबिक पिता का बड़ा बेटा ही पूरे घर का मालिक होता है। और वह पूरे गांव का मुखिया होता है। बाकी दूसरे बेटों को घर छोड़ कर दूसरे स्थानों पर जाना होता है। और वहां अपना गांव बसाना होता है। इस तरह से वो अपने गांव का विस्तार करते हैं। और नये-नये क्षेत्रों पर कब्जा करते चले जाते हैं। जबकि एक दूसरे सामाजिक कार्यकर्ता ने बताया कि कुकी समुदाय मूलत: बंजारा समुदाय है। और उसका घर अस्थाई होता है। लिहाजा अगर उन्हें पढ़ाया गया और फिर जागरूक बनाया गया तो वो भी एक जगह टिककर अपना घर बनाएंगे और समाज में जैसे एक नागरिक का जीवन होता है उसी तरह से अपना जीवन चलाएंगे। लेकिन यहां इस तरह से पेश करने का यह कत्तई मतलब नहीं है कि सारे के सारे कुकी इसी तरह से हैं और वो बंजारे हैं।
यह तस्वीर का एक पहलू है जो बहुत छोटा है लेकिन उसे बहुत बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि कुकियों का एक बड़ा हिस्सा पढ़ा-लिखा है। ईसाई मिशनरियों के सक्रिय होने के चलते अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों से लेकर उच्च स्तर की शिक्षा उन्हें हासिल हुई है। यही वजह है कि सिविल सर्विसेज में उनकी अच्छी खासी तादाद है और यह सिविल सेवा में आदिवासियों को मिले रिजर्वेशन के कारण संभव हो पाया। अनायास नहीं है कि राजधानी इंफाल की रिटायर्ड अफसरों की कॉलोनी में कुकी अफसरों की संख्या बहुत ज्यादा है। और अगर कोई कुकी अफसर बन जाए तो वह पुरानी प्रथा को जिंदा रखेगा या फिर बंजारा जीवन जिएगा। यह कोई बचकाना सोच वाला इंसान ही सोच सकता है। लेकिन सूबे में बीजेपी की सरकार बनने के बाद यह नैरेटिव इस दौर में और ज्यादा बढ़ गया है। दरअसल बीजेपी वहां मैतेइयों को अपना स्थाई आधार बनाना चाहती है और इसके लिए वह मैतेई और कुकियों के बीच कैसे ध्रुवीकरण पैदा किया जाए इन्हीं सब झूठे-सही आंकड़ों के जरिये हासिल करना चाहती है।
जनचौक की टीम को बताया गया कि बेरोजगारी मणिपुर के नौजवानों की एक बड़ी समस्या बनी हुई है। अभी तक जो मैतेई नौजवान सिर्फ मेडिकल और इंजीनियरिंग क्षेत्र की तरफ जाने का लक्ष्य रखते थे अब उन्होंने सिविल सेवा की तरफ अपना रुख करना शुरू कर दिया है। इसी कड़ी में मैतेइयों को आदिवासी का दर्जा दिया जाना उनके लिए किसी मुंह मांगी मुराद से कम नहीं होता। और ऐसा होने पर उन्हें दोहरा लाभ मिलता। एक तो नौकरियों में रिजर्वेशन मिलना शुरू हो जाता दूसरा आदिवासियों के लिए संरक्षित जमीन की खरीद-फरोख्त का अधिकार भी उन्हें हासिल हो जाता। तीन मई के मणिपुर हाईकोर्ट के निर्देश के बाद कुकी क्षेत्रों में आए इस उबाल की वजह को आसानी से समझा जा सकता है। इसमें कुकियों की न केवल नौकरी छिननी थी बल्कि उनकी जमीन के भी जाने का खतरा पैदा हो गया था। लिहाजा उन्होंने इसको रोकने के लिए पूरी ताकत सड़क पर झोंक दी और बाद में आंदोलन के हिंसक हो जाने से सीधे मैतेइयों से उनका टकराव हुआ। इस मामले में सरकार की भूमिका बेहद संदेहास्पद बनी रही।
इसी बातचीत के दौरान एक छात्र ने बताया कि मैतेई समुदाय की 200 महिलाएं बलात्कार का शिकार बनी हैं। और हिंसा और उत्पीड़न के छह हजार से ज्यादा मामले पुलिस में दर्ज किए गए हैं। उनका यहां तक कहना था कि “कुकियों ने प्रशासन पर दबाव बनाकर इंटरनेट शुरू करवाया”। यह भला कैसे संभव है? यह किसी के लिए समझ पाना मुश्किल है। क्योंकि इंटरनेट का सिस्टम तो ऊपर से ही डील किया जाता है। ऐसे में किसी स्थानीय प्रशासन के जरिये इसको कैसे चलाया जा सकता है?
ब्लैकबोर्ड पर स्केच के जरिये अपनी बात रख रहे अध्यापक का कहना था कि कुकियों के कुल 2800 गांव हैं और इनमें केवल 900 को ही मान्यता हासिल है। इसके साथ ही उन्होंने वर्मा की ओर से होने वाली घुसपैठ को भी एक बड़ी समस्या करार दिया। उनका कहना था कि इसको लेकर सरकार की कोई नीति नहीं है। साथ ही आदिवासी इलाके में नशीले पदार्थों की तस्करी और कारोबार मणिपुर की एक बड़ी समस्या बना हुआ है। ऐसा उनका कहना था।
लेकिन इन छात्रों से जब इन पंक्तियों के लेखक ने यह पूछा कि आखिर क्या होना चाहिए तो सभी ने एक सुर में शांति की बात कही। उनका कहना था कि इस मामले में पीएम मोदी की भूमिका बेहद खराब रही। और एक प्रधानमंत्री के तौर पर वह नाकाम हुए हैं। उनका कहना था कि अगर केंद्र और राज्य सरकार चाहती तो हिंसा एक दिन में रोकी जा सकती थी। यहां कोई भी न तो कैमरे के सामने बातचीत के लिए तैयार हुआ और न ही उन्होंने अपना नाम कोट करने की इजाजत दी। लिहाजा उनके बयानों को बगैर उनका नाम लिए ही देना पड़ा है।
उसके बाद हम लोगों का दूसरा ठिकाना मणिपुर विधानसभा के सामने आयोजित सीपीआई यानि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की एक सभा बना। समय तकरीबन दिन के एक बजे। विधानसभा की बाउंड्री के एक कोने में टीन का एक कम्युनिटी सेंटर बना हुआ था। छोटी लेकिन खूबसूरत विधानसभा दिन के उजाले में बिल्कुल चांद सरीखी चमक रही थी। खंभों के ढांचे पर चढ़ा गोले आकार का गुंबद उस नजारे को और खूबसूरत बना रहा था। लेकिन शायद मौजूदा हालात से वह भी गमगीन थी जो उसके वीरानी के रूप में बाहर आ रही थी। उसी के बिल्कुल करीब एक दूसरा उसी तरह का छोटा ढांचा था जिसके बारे में बताया गया कि वह सचिवालय है।
बहरहाल 60 सदस्यों की यह विधानसभा भी मौजूदा हालात पर बिल्कुल मौन है। जनता के इस सदन की कहीं कोई आवाज नहीं है। लिहाजा उसको जिंदा करने और उसको उसके अपने कर्तव्यों का एहसास दिलाने के लिए कम्यूनिटी हाल में अच्छी खासी तादाद में लोग जुटे थे। संख्या रही होगी तकरीबन 700 से 1000। इसमें महिलाओं की भी बराबर भागीदारी थी। मंच था और उस पर ‘वी वांट पीस’, ‘सेव मणिपुर’ जैसे तमाम नारे लिखे हुए थे। मंच से होने वाले भाषण को तो हम लोग नहीं समझ पाए क्योंकि वह मणिपुरी में था। लेकिन जब पार्टी के एक शख्स से बात हुई जो खुद को उसकी कार्यकारिणी का सदस्य बता रहे थे, तो उन्होंने बताया कि यह सभा दो मकसद से बुलायी गयी है। पहली मांग है कि सरकार तत्काल विधानसभा का सत्र बुलाए। और एक सामूहिक प्रस्ताव लेकर हिंसा को रोकने की सूबे के नागरिकों से अपील करे।
इसके साथ ही वह इस मसले पर ठोस कार्रवाई का सूबे को भरोसा दिलाए। सभा के बाद जुलूस निकाला गया जिसमें महिलाएं आगे-आगे चल रही थीं। जुलूस अभी विधानसभा के सामने पहुंचने ही वाला था कि तभी पुलिसकर्मियों ने आगे बढ़कर उसे रोकने की कोशिश की। लेकिन महिलाओं के तेवर बेहद गरम थे। और वो किसी भी हालत में रुकने के लिए तैयार नहीं थीं। लिहाजा पुलिस को पीछे हटना पड़ा और फिर पूरा जुलूस विधानसभा के सामने मौजूद एक गोल चक्कर का चक्कर लगाने के बाद फिर सभा स्थल पर जाकर समाप्त हो गया। इस दौरान एक महिला ने इन पंक्तियों के लेखक को अलग से बुलाकर अपनी बात रिकॉर्ड करने की गुजारिश की। जिसका लब्बोलुआब यह था कि “मैं पीएम मोदी से जवाब चाहती हूं आखिर वो इतने दिनों तक चुप क्यों रहे या फिर मणिपुर भारत का हिस्सा नहीं है”?
यहां के बाद जनचौक की टीम का तीसरा पड़ाव विधानसभा से तकरीबन 700 मीटर की दूरी पर स्थित एक रिलीफ कैंप था। यह मैतेई समुदाय के पीड़ितों के लिए बनाया गया था जिन्हें इस हिंसा के दौरान अपने घरों को छोड़कर भागना पड़ा। थाऊ ग्राउंड नाम से खेल के मैदान में स्थित इस कैंप में तकरीबन 80 लोग शरण लिए हुए थे। और परिवार के हिसाब से यह संख्या 27 थी। इनमें बच्चे-बूढ़े और महिलाएं सब शामिल थे। हॉल में मौजूद मच्छरदानियां यह बता रही थीं कि मच्छरों ने किस कदर उन्हें परेशान कर रखा है। बाशिंदों के चेहरे की उदासी पूरी कहानी बयां कर रही थी। यहां मौजूद लोगों में शायद ही किसी का घर बचा हो। इंफाल से 110 किमी दूर स्थित मोरे से आयी संगपति ने मोरे के बारे में बताया कि इसे मिनी इंडिया के तौर पर जाना जाता है।
क्योंकि यहां देश के हर हिस्से के लोग मिल जाएंगे। आबादी कम है लेकिन वैरायटी बहुत ज्यादा है। त्रिपुरी से लेकर बंगाली और तमिल से लेकर सिख समेत तमाम समुदाय के लोग यहां रहते हैं। लेकिन तीन तारीख ने इस मिनी इंडिया के चेहरे को बदरंग कर दिया। उन्होंने बताया कि “ तीन तारीख को पीस रैली चल रही थी और 12 बजे तक वह खत्म हो गयी। इलाके में एक मंदिर है जिसकी जात्रा चल रही थी। लेकिन उसी शाम छह बजे अचानक हमला हो गया। हमले की शुरुआत पास में नदी के किनारे स्थित बाजार से शुरू हुआ फिर वह रिहाइशी इलाकों तक पहुंचा। और इसमें भी सबसे पहले निशाना तोरबुम को बनाया गया। तोरबुम में हिंसा 3 मई की शाम से ही शुरू हो चुकी थी। लेकिन मोरे में शाम को छह बजे हमलावर पहुंचे। उसके बाद भगदड़ मच गयी। लोग अपने बच्चों को लेकर इधर-उधर भागना शुरू कर दिए।
इस दौरान हमलावर घरों को जला भी रहे थे और साथ ही फायरिंग भी कर रहे थे। उसके बाद हम सभी पास के एक स्कूल में घुस गए जहां कमरे की लाइट को पूरा ऑफ करके वहीं रुक रहे। रात में करीब दस बजे मोरे पुलिस ने हम लोगों को उठाया। और फिर हम लोग रात भर एक हाल में रहे। उसके बाद अगले दिन असम राइफल्स के लोग आए और वो लोग सभी को अपनी सुरक्षा में एक ठिकाने पर ले गए जहां पर यहां आने से पहले हम लोग टिके रहे।”
उस दिन मोरे में दो मौतें हुईं। लेकिन संगपति का कहना था कि मरने वाले दोनों कुकी समुदाय के थे और किसी और की वजह से नहीं बल्कि हमले के दौरान हाथों में रखा बम खुद ही फूट गया। जिसके दोनों शिकार हो गए।
पास में बैठीं संचिता नागम सवाल पूछने पर रुआंसी हो जाती हैं और आंख के कोरों से निकले आंसू उनकी पीड़ा की दास्तान कहने शुरू कर देते हैं। लफ्जों पर यह दृश्य भारी पड़ने लगता है। हमलावरों ने संचिता की दुकान आग के हवाले कर दिया था। इस पूरे मामले में पुलिस की भूमिका बेहद आपराधिक रही। उसने पीड़ितों को बचाने की जगह हमलावरों को खुल संरक्षण दिया। संचिता ने बताया कि पुलिस आगे-आगे चल रही थी और हमलावर उनके पीछे-पीछे। पांच हजार से ज्यादा हमलावर थे।
संचिता पहली नागरिक थीं जिनका घर उस दिन जलाया गया। और फिर पूरा गांव ही आग के हवाले कर दिया गया। घर में सामान के साथ ही कैश भी था। ऐसा कहते संचिता रोने लगती हैं। उन्होंने बताया कि हम लोगों के पास हथियार के नाम पर चाकू के सिवा कुछ नहीं था। संचिता ने बताया कि मणिपुर सरकार अगर अपनी भूमिका में होती तो ऐसा कुछ नहीं होता। सरकार ने अपनी भूमिका नहीं निभायी। तीन महीने बाद भी कोई बदलाव नहीं हुआ। संगपति का कहना था कि वोट के समय तो मोदी जी बहनों-भाइयों जी करते हैं और अब पूरे मणिपुर (बाकायदा उन्होंने अपनी शरीर को घुमाते हुए बताया) से अपना मुंह फेर लिए।
हर किसी शख्स में पीएम मोदी के खिलाफ गुस्सा दिखा। पास में बैठे एक दूसरे सज्जन ने कहा कि “मोदी जी एक इशारा करते तो हिंसा रुक जाती।”
दिलचस्प बात यह है कि इन सभी से जब यह पूछा गया कि वो क्या चाहते हैं तो सभी ने एक सुर में कहा कि शांति। इसके साथ ही उन्होंने जल्द से जल्द अपने घरों की ओर लौटने की इच्छा जाहिर की।
अभी हम लोग इंफाल में ही थे तभी बताया गया कि यहां कई चर्चों को निशाना बनाया गया है। उसी में एक पश्चिमी मणिपुर में स्थित था। यहां जब इन पंक्तियों का लेखक पहुंचा तो देखा कि चर्च पूरी तरह से जलकर खाक हो गया है। और उसके बगल में स्थित ईसाई मिशनरी के एक स्कूल को भी नहीं बख्शा गया है। उसके कमरे, खिड़कियां और दरवाजे जले हुए थे। सब कुछ वीरान पड़ा था। लेकिन जैसे ही हमने उनका वीडियो बनाने की कोशिश शुरू की तभी एक शख्स आकर रोकने लगा। उसका कहना था कि आपने किससे परमिशन ली है? मेरे यह कहने पर कि हम मीडिया से हैं और इसके लिए किसी परमिशन की जरूरत नहीं है। बावजूद इसके वह बार-बार डिस्टर्ब करने की कोशिश कर रहा था। ऐसा वह इसलिए कर रहा था जिससे हम अपना वीडियो नहीं बना सकें। इतना ही नहीं जब उसका मेरे ऊपर कोई बस नहीं चला तो उसने मेरे साथ गए गाड़ी के चालक पर दबाव बनाना शुरू कर दिया।
जिसके चलते ड्राइवर ड्यूटी समाप्त होने का बहाना बनाकर वहां से तत्काल चलने के लिए कहने लगा। आपको बता दें कि इस तरह के किसी भी मौके पर सतर्कता बरतना बहुत जरूरी हो गया था। दरअसल किसी भी जगह पर इस तरह का वीडियो बनाने या फोटो लेने पर मैतेई समुदाय के लोग एतराज जताते हैं। उनको लगता है कि इससे उनका हमलावर चेहरा सामने आ जाएगा। हालांकि तमाम दबावों और कोशिशों के बाद भी हमने वीडियो शूट किया और उसके बाद ही वहां से निकले। इसी तरह से ठीक आफिसर्स कोलानी में स्थित एक दूसरे चर्च को भी आग लगाने के बाद उसे पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया गया। बताया गया कि आफिसर्स कॉलोनी में तमाम रिटायर्ड कुकी अफसर रहते हैं। उनके तीन से लेकर चार मंजिला भव्य मकान हैं।
यहां रिटायर्ड डीजीपी से लेकर मुख्य सचिव तक रहते हैं। लेकिन हिंसा की इस अंधी बयार में उनके ठिकाने भी सुरक्षित नहीं रह सके। अगर आईएएस और आईपीएस अफसर भी कहीं सुरक्षित नहीं रह सकते हैं और वह भी अपने दफ्तरों और रिहाइशी कॉलोनियों में ठीक राजधानी के भीतर तो समझा जा सकता है कि प्रतिशोध और अराजकता की भीषणता किस स्तर तक की थी। चार मई को यहां भी हमला हुआ जिसके निशान अभी भी उन घरों की टूटी खड़कियों और उनके टूटे शीशे के तौर पर देखे जा सकते हैं। हमले के बाद यहां कोई भी अफसर नहीं बचा है। लोग अपने घरों को छोड़कर दूसरे ठिकानों पर चले गए हैं। पूछने पर पास में खड़े एक शख्स ने बताया कि इनमें से कुछ असम चले गए हैं तो कुछ मिजोरम और ढेर सारे लोगों ने दिल्ली का रुख कर लिया है। इसके अलावा एक हिस्सा अपने परंपरागत घरों की ओर भी चला गया है। क्योंकि उसको इस दौर में वह जगह अपने लिए सबसे ज्यादा सुरक्षित दिखी। अब अगर किसी जिंदा लोकतंत्र के भीतर सूबे का कोई आला अफसर सुरक्षित न महसूस करे और इसके लिए उसे अपने समुदाय में जाना पड़े तो इसे भला आप कैसा लोकतंत्र कहेंगे?
इसी अफसर कालोनी के पास एक ट्राइबल मार्केट स्थित है। यहां भी कुकी रहते हैं। इनका बड़ा हिस्सा यह इलाका छोड़कर कहीं और चला गया है। लेकिन लगता है कुछ लोग नहीं भाग सके या फिर उनको कोई दूसरा ठिकाना नहीं मिला। नतीजतन उनकी सुरक्षा के लिए सीआरपीएफ के जवानों को रात-दिन ड्यूटी पर लगाया गया है। कॉलोनी में जाने के लिए तीन गलियां हैं लेकिन एक को छोड़कर बाकी दो गलियों को लकड़ी और बांस से ढंक दिया गया है। जिससे उस इलाके में कोई बाहरी प्रवेश न कर सके। पूछने पर ड्यूटी पर तैनात एक सुरक्षाकर्मी ने बताया कि ये लोग पिछले तीन महीनों से वहीं बंद हैं। कभी भी उनका कोई सदस्य बाहर नहीं आया। कैसे चल रहा है उनका जीवन और उन्हें किन संकटों का सामना करना पड़ रहा है इसकी किसी को कोई जानकारी नहीं है। किसी बुजुर्ग या बच्चे के बीमार होने पर उनका इलाज कैसे होता होगा यह सब कुछ रहस्य का विषय बना हुआ है। यहां न तो सरकार ने कोई दस्तक दिया और न ही किसी एनजीओ ने उसे देखना-सुनना जरूरी समझा। लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। बाहर से यह ज़रूर जाहिर किया जा रहा है जैसे उनकी सुरक्षा की जा रही है क्या यह कम है?
इंफाल में जगह-जगह दुकानें जली देखी गयीं। अगर ऐसा कहीं भी दिखा तो समझिए कि वह किसी कुकी समुदाय से जुड़े शख्स की दुकान है। इसी तरह की एक भव्य दुकान आफिसर्स कॉलोनी के पीछे जला दी गयी थी। तीन मंजिला यह दुकान ऊपर से लेकर नीचे तक जलकर बिल्कुल खाक हो गयी थी और अब उसका केवल खंडहर बचा था। अगर उसका मालिक ठीक भी कराना चाहे तो वह संभव नहीं है। मणिपुर यूनिवर्सिटी के सामने भी एक चर्च के जलाये जाने की बात एक राजनीतिक दल के नेता ने मुझसे बतायी। समय कम होने के चलते हम वहां का दौरा नहीं कर सके।
(आजाद शेखर के साथ जनचौक के फाउंडिंग एडिटर महेंद्र मिश्र की रिपोर्ट।)
जारी…
आप की बातों से ऐसा लग रहा है कि आप पूरी हिंसा के लिये मैतेई लोगों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं आपकी लेखनी से लग रहा है कि आप कुकी लोगों को पीड़ित दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।