Tuesday, March 19, 2024

अधिनायकवादी-फासीवादी दौर में शहीद चन्द्रशेखर की क्रांतिकारी स्पिरिट युवाओं की प्रेरणा

31 मार्च JNU छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चन्द्रशेखर का शहादत दिवस है। 1993 में छात्रसंघ चुनाव के दौरान यह पूछे जाने पर कि क्या वे किसी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के लिए चुनाव लड़ रहे हैं, चन्द्रशेखर ने कहा था, ” हां, मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है, मैं भगत सिंह जैसा जीवन और चे ग्वेआरा जैसी मौत चाहता हूं “, सचमुच ही 31 मार्च 1997 को वे सामाजिक बदलाव के महान शहीदों की कतार में शामिल हो गए।

देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में छात्रसंघ के 1993 से 1996 तक लगातार तीन बार पदाधिकारी (पहले उपाध्यक्ष, फिर लगातार 2 बार अध्यक्ष) रहने के बाद चन्द्रशेखर ने सत्ता-प्रतिष्ठान में जगह तलाशने की बजाय जिस तरह उत्पीड़ित जनता की बेहतरी और सामाजिक बदलाव की राजनीति के लिए दिल्ली से सिवान का रुख किया और जनविरोधी माफिया राजनीति के खिलाफ लड़ते हुए शहादत का वरण किया, उसने उस दौर में छात्र-युवाओं और लोकतान्त्रिक ताकतों को बड़े पैमाने पर उद्वेलित किया था।

उस समय चंद्रशेखर की हत्या के खिलाफ दिल्ली के बिहार भवन से लेकर सिवान, पटना और राजधानी के पार्लियामेंट स्ट्रीट-जंतरमंतर तक हुआ छात्रों-युवाओं का अभूतपूर्व प्रतिरोध इतिहास में दर्ज हो चुका है, जिनमें JNU के अनेक प्राध्यापकों तथा सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने भी भाग लिया था। 

शासक-वर्ग के प्रमुख दलों का तो चरित्र पहले से ही सर्वविदित था, चन्द्रशेखर की हत्या और परवर्ती घटनाक्रम ने किसानों, पिछड़ों के नाम पर उभरी मध्यमार्गी  धर्मनिरपेक्ष-सामाजिक न्याय धारा के गहरे अंतर्विरोधों और सीमाओं तथा लोकतांत्रिक प्रश्नों पर चरम अवसरवाद को भी उजागर कर दिया था।

महीनों तक चली प्रतिरोध की लहर को, जिसमें मां कौशल्या देवी भी शामिल थीं, पूरे देश में तमाम लोकतान्त्रिक ताकतों का व्यापक समर्थन मिला था, आंदोलन के दबाव में केंद्र की तत्कालीन गुजराल सरकार को सीबीआई जांच का आदेश करना पड़ा था। प्रतिरोध की वह स्पिरिट छात्र-युवा आंदोलन के लिए हमेशा प्रेरणा बनी रहेगी। 

चन्दू आने वाली पीढ़ियों के मुक्तिकामी युवाओं के लिए हमेशा रोल मॉडल बने रहेंगे। सुदूर सिवान (बिहार ) के पिछड़े ग्रामीण परिवेश से निकलकर NDA तक का सफर और फिर उस चमकदार कैरियर को छोड़कर क्रांतिकारी छात्र-युवा आंदोलन में शामिल हुए चन्दू ने एक तूफानी दौर में देश के प्रमुख विश्वविद्यालय के छात्रों को नेतृत्व दिया। दरअसल, JNU में और पूरे देश में आज जो हो रहा है, चंद्रशेखर का दौर एक तरह से उसके curtain raiser ( झांकी ) जैसा था। 

1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद संघ-भाजपा की फासीवादी आक्रामकता चौतरफा बढ़ती जा रही थी और तमाम कैम्पस, विशेषकर JNU अपनी प्रगतिशील-लोकतान्त्रिक पहचान के कारण उनका खास निशाना था। इसी परिघटना के वे शुरुआती दिन थे, जो आज उनकी बेलगाम सत्ता के दौर में अपने चरम पर पहुंच गई है और JNU, जामिया, इलाहाबाद से लेकर BHU, AMU तक फासीवादी ताकतों का नंगा नाच हो रहा है। 

चंद्रशेखर ने उस तूफानी दौर में JNU के प्रगतिशील, लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले छात्रों की विराट गोलबंदी करके वहां प्रतिक्रिया की ताकतों को पीछे धकेला था और लोकतान्त्रिक ताकतों का वर्चस्व स्थापित किया था।

उधर 90 की दशक की शुरुआत से आक्रामक ढंग से लागू किये जा रहे नवउदारवादी ढांचे में शिक्षानीति को ढालने की जो कोशिशें तेज हो रही थीं, उसका भी JNU experimental ground बनाया जा रहा था। 1991-92 से 1996-97 तक, अपनी हत्या से कुछ समय पहले-छात्रसंघ अध्यक्ष के दायित्व से मुक्त होने-तक चन्दू देश की इस premier संस्था में फासीवाद-नवउदारवाद के हमलों के खिलाफ चले तीखे छात्र-आंदोलन के केंद्र में रहे। 

उनके सह-योद्धा, दोस्त और नेता रहे प्रणय कृष्ण ने उस दौर की लड़ाइयों में चन्दू की भूमिका को शिद्दत से याद किया है, ‘शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ JNU कैम्पस में तब का सबसे बड़ा विजयी आंदोलन उनके नेतृत्व में छेड़ा गया।’

यह पूरे मुल्क में शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ पहला बड़ा और सफल आंदोलन था। शासक वर्ग की चाल थी कि यदि JNU का निजीकरण कर दिया जाय तो उसे मॉडल के रूप में पेश करके देश के अन्य विश्वविद्यालयों का निजीकरण किया जा सकेगा।’ JNU के छात्र समुदाय ने चन्द्रशेखर के नेतृत्व में उस पहली कोशिश को नाकाम कर दिया था।

उनकी सक्रियता का दायरा JNU दिल्ली से लेकर AMU, BHU, इलाहाबाद समेत देश के तमाम विश्वविद्यालयों तक विस्तीर्ण था। उसी दौर में दक्षिण कोरिया की राजधानी सिओल में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए जब उन्होंने अमेरिकी साम्राज्यवाद की आक्रामक कार्रवाइयों के खिलाफ राजनीतिक प्रस्ताव पेश किया तो समय का बहाना बना कर रोक दिया गया।

इसके ख़िलाफ़ उन्होंने ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश और तीसरी दुनिया के देशों के छात्रनेताओं का ब्लॉक बनाकर बहिष्कार किया और बाहर उसके समांतर रैडिकल छात्र संगठनों द्वारा आयोजित 20 हजार से ऊपर छात्रों की रैली को सम्बोधित किया।उसी कार्यक्रम में AISA की ओर से भाग लेने के लिए जाते हुए मुझे और कार्बी छात्र संगठन के साथी को सिओल एयरपोर्ट पर detain कर लिया गया था और फिर वापस भारत deport कर दिया गया था।

चन्दू  का activism कैम्पस तक सीमित नहीं था। JNU छात्रसंघ अध्यक्ष तथा रैडिकल छात्र संगठन आइसा ( AISA ) के नेता के बतौर वे देश में नवउदारवाद-फासीवाद के खिलाफ तेज होते तमाम लोकतान्त्रिक आंदोलनों में शिरकत कर रहे थे और उनके साथ मजबूती से खड़े रहे। 

प्रणय कहते हैं ‘JNU छात्रसंघ को उन्होंने देश भर यहां तक कि देश के बाहर चलने वाले जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ दिया। चाहे बर्मा का लोकतान्त्रिक आंदोलन हो, पूर्वोत्तर में जातीय हिंसा के खिलाफ शांति कमेटियां हों, TADA विरोधी समितियां हों, नर्मदा आंदोलन या सुंदर लाल बहुगुणा का टेहरी आंदोलन हो-चन्द्रशेखर उन सारे आंदोलनों के अनिवार्य अंग थे।’

चंद्रशेखर ने JNU में छात्रों को संबोधित करते हुए एक बार कहा था, ‘भावी पीढ़ियां हम से जवाब मांगेगी, हम उस समय क्या कर रहे थे जब समाज में नई ताकतों का उदय हो रहा था, जब रोज लोग अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, जब उत्पीड़ित जनता जुल्म के खिलाफ आवाज बुलंद कर रही थी?’ एक क्रांतिकारी बुद्धिजीवी के बतौर अपने ऐतिहासिक सामाजिक दायित्व की इसी उदात्त भावना से लैस चन्द्रशेखर ने भारत में सच्चे जनवाद के लिए लड़ते हुए शहादत का वरण किया।

उनकी शहादत के बाद की चौथाई सदी बाद आज उनके दौर की लड़ाई गुणात्मक रूप से एक बिल्कुल नए धरातल पर पहुंच चुकी है। जिस जनविरोधी राजनीति के ख़िलाफ़ लड़ते हुए चंद्रशेखर शहीद हुए, उससे आगे बढ़ते हुए देश आज हत्यारी फासीवादी राजनीति के शिकंजे में कराह रहा है। सम्पूर्ण शिक्षा-क्षेत्र को फासीवादी विचारधारा और राजनीति का आखेट-स्थल बना दिया गया है। NEP के माध्यम से शिक्षा के निजीकरण और भगवाकरण को संस्थाबद्ध किया जा रहा है।

आज न सिर्फ देश की युवा पीढ़ी का शिक्षा, रोजगार, पूरा भविष्य दांव पर है, बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र के रूप में हमारे गणतंत्र के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है।

अडानी प्रकरण में घिर चुकी मोदी सरकार अभूतपूर्व दमन और टकराव के रास्ते पर बढ़ रही है। देश को रसातल में पहुंचा चुकी मोदी-शाह जोड़ी किसी भी हाल में सत्ता से हटने को तैयार नहीं लगती है, 2024 में अपनी पुनर्वापसी के रास्ते में आने वाली हर बाधा को-सम्पूर्ण विपक्ष समेत, लोकतान्त्रिक विरोध की हर आवाज को निर्ममतापूर्वक कुचल देने पर आमादा है। देश एक full blown अधिनायकवादी-फासीवादी निज़ाम की ओर तेजी से बढ़ रहा है।

आज देश को इस अभूतपूर्व चुनौती से उबारने के लिए उसी स्पिरिट की जरूरत है जिसके साथ कभी चन्द्रशेखर ने अपने दौर की चुनौती को कबूल किया था। महासंकट की इस घड़ी में शहीद चंद्रशेखर का जीवन और संघर्ष देश की युवा पीढी और लोकतान्त्रिक ताकतों की प्रेरणा और सम्बल बने !

हम सब के प्यारे चन्दू की स्मृति को नमन !

(लाल बहादुर सिंह, पूर्व अध्यक्ष इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ)

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