पश्चिमी समाज अगर किसी एक घटना और उसकी फोटो से बहुत ज्यादा शर्मिंदा होता है तो वो 1972 के अमेरिका-वियतनाम युद्ध में एक 9 साल की वियतनामी बच्ची किम फुक की तस्वीर है। यह अमेरिकी हवाई सेना द्वारा एक वियतनामी गांव में नेपाम बम डालने के बाद भागते हुए गांव वालों के बीच आग से जलकर घायल बच्ची की बिना कपड़ों की तस्वीर है। तस्वीर में किम फुक के चेहरे पर खौफ़ और दहशत थी, वो बाद में वियतनाम पर अमेरिकी हमले के ख़िलाफ़ विरोध का आधार बन गई।
अमेरिकन फौज द्वारा नेपाम बम डालकर वियतनाम के तराग बांग गांव में आग लगाकर सब कुछ तहस-नहस कर दिया था। यह गांव वियतनाम की राजधानी हो ची मिन्ह सिटी से केवल 30 किलोमीटर दूर है।
इससे सैकड़ों गांव वाले झुलस कर मर गए, आग की जलन से 9 साल की किशोरी अपने कपड़े उतार कर अपने परिवार के सदस्यों, बहनों-भाइयों और गांव वालों के साथ भागने लगी, इसी बीच युद्ध की कवरेज करने गए एसोसिएटेड प्रेस के संवाददाता निक उट ने बदहवास भागती इस बच्ची की फोटो ले ली। बाद में यह फोटो दुनिया के सभी अखबारों में छपी थी।
यह फोटो अमेरिकी फौज और सरकार की ऐसी लानत मलामत का कारण बनी, जो किसी आंदोलन और प्रतिरोध से नहीं हुई थी। आज भी यह फोटो साम्राज्यवादी अमेरिकियों का पीछा करती है। इस फोटो को लेने वाले पत्रकार को पत्रकारिता का पुलित्जर पुरस्कार मिला था।
पश्चिमी समाज ने इस बच्ची को अंगीकार करके उसको समाज के लिए उपयोगी बनाया। यूएनओ ने उसे पीस एम्बेसडर बनाया।
हालांकि वियतनाम युद्ध में अमेरिकन फ़ौज ने वियतनामी जनता पर बहुत अत्याचार किए थे। 1968 में वियतनाम के माईलाई गांव में 500 गांव वालों को अमेरिकन फौज ने भून दिया था। इसी काण्ड में बीसियों महिलाओं के साथ अमेरिकन फौजियों ने बलात्कार भी किए थे।
मणिपुर में तीन महिलाओं को नग्न घुमाने की घटना पर भारतीय समाज की बेशर्मी देखकर मुझे वो घटना याद आ गई। उस घटना पर पश्चिमी समाज अभी तक शर्मिंदगी महसूस करता है। लेकिन यहां ऐसी किसी घटना को नकारने, ढकने और उसको सही बताने की अनवरत बेशर्मी चल रही है।
पता चला है कि मीडिया गैंग (आईटी सेल) चलाने वाले एक नफरती चिंटू ने इस घटना पर लीपा-पोती करने की बेशर्म कोशिश की है। सबसे ख़तरनाक बात यह है कि इस घटना को गुजरे तीन माह हो चुके हैं, सत्ता पक्ष ने इस घटना को न केवल छिपाया बल्कि उस पर कोई कार्रवाई नहीं की। बावजूद इसके यह गम्भीर घटना सेना और प्रशासन के नोटिस में है। यह लापरवाही तो है ही, मानवता के ख़िलाफ़ जघन्य अपराध और साजिश भी है।
होना तो चाहिए था कि यह घटना नोटिस में आते ही लिप्त अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करके मणिपुर समस्या के समाधान की तरफ कदम बढ़ाया जाता, लेकिन सरकार ने इस घटना को छिपाकर यह सिद्ध कर दिया है कि उसकी रुचि इस समस्या को बनाए रखने और बढ़ाने में है, जैसा कि तीन महीने के बाद सरकार के गैर जिम्मेदाराना फैसले देखकर लग रहा है।
एक और घटना जो भारतीय समाज के लिए कलंक मानी जाती है, वो फूलन देवी के त्रासदी पूर्ण जीवन और उसकी हत्या से सम्बंधित है। फूलन की जीवन की त्रासदी ग्रामीण क्षेत्रों की विडम्बनाओं से उत्पन्न परिस्थितियों पर कोई विचार नहीं किया जाता। यहां तक कि फूलन को नग्न करके उसके साथ हुए अमानुषिक बलात्कार पर तो चर्चा नहीं हुई, लेकिन बहमई काण्ड में हत्याओं पर उसके क़त्ल की सजा देने का औचित्य और अपराधी का महिमा मंडन करने का पाखण्ड आज भी चल रहा है।
समाज के अगुवा बन गए पाखण्डी धर्म और संस्कृति के दुहाई देकर समाज में प्रतिष्ठित हो रहे हैं, और समाज जय जयकार कर रहा है।
जम्मू की एक बच्ची आसिफा के बलात्कारियों और हत्यारों के बचाव में तिरंगा यात्रा निकालने पर संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने बलात्कारियों को महिमा मंडित करने पर भारतीय समाज की निंदा की थी।
असम में सशस्त्र बलों द्वारा अत्याचार के विरोध में महिलाओं का नग्न प्रदर्शन भी हमारे समाज को नहीं जगा सका। सशस्त्र बलों की तैनाती और नियमन को आज भी हम विमर्श का हिस्सा नहीं बना पाए। पूर्वोत्तर से लेकर कश्मीर और सीमावर्ती क्षेत्रों में यह समस्या बनी हुई है, जो लोकतांत्रिक समाज के लिए कलंक है।
महिलाओं को खाली प्लाट बताने, कश्मीरी लड़कियों से शादी करने की बात पर रस लेने वाले और हाथरस बलात्कार काण्ड जैसी घटनाओं पर चुप रहने वाले समाज में यह मानसिकता कोई नई नहीं है। हां इस बीच इस मानसिकता का फैलाव और गहनता में ज़रूर बढ़ोतरी हुई है। इस सब के बीच यह सवाल सामने है कि हमारा कथित लोकतांत्रिक मूल्यों वाला समाज सभ्य बनने की ओर जा रहा है या असभ्य और बर्बर बनने की ओर?
(1975 में मेरे पत्रकारिता के आरम्भ में वियतनाम युद्ध समाप्त ही हुआ था, उन दिनों युद्ध की वीभत्स कहानियां निकलती रहती थीं, फिर फूलन देवी के काण्ड के समय मुझे पत्रकारिता में अच्छा समय हो गया था। वो सब अच्छी तरह याद है, बेहमई काण्ड में इस्तीफा देने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीपी सिंह से उन दिनों इस मामले में बात भी की थी।)
(इस्लाम हुसैन वरिष्ठ पत्रकार हैं, और उत्तराखंड के काठगोदाम में रहते हैं।)