Sunday, April 28, 2024

अपने पुरखों का दाग धोने का नया हथियार है संघ-भाजपा का इंडिया बनाम भारत एजेंडा

चर्चा है कि जब से संघ प्रमुख मोहन भागवत ने देश का नाम सिर्फ भारत रखने का बयान दिया है तब से मोदी सरकार और उसके चाटुकार मीडिया चैनलों पर भारत बनाम इंडिया की बहस जारी है। कयास लगाए जा रहे हैं कि सरकार ने जो संसद का विशेष सत्र आयोजित किया है उसमें इस मुद्दे के शामिल होने की संभावना है।

जो भी हो, लेकिन इसके पीछे सरकार, संघ और भाजपा का इसके बहाने अपने आप को राष्ट्रवाद का सच्चा हिमायती और शुद्ध देशी वारिस साबित करना है। उसके तथाकथित राष्ट्रवादी चोले की कहानी यह है कि इस देश की माटी के लिए खून तो छोड़िए, उसका एक बूंद पसीना भी इस मातृभूमि पर नहीं गिरा है।

गलती से स्वतंत्रता आंदोलन में फंस गए इनके द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धान्तकार नेता वीर सावरकर ने अंग्रेजों से बार-बार गिड़गिड़ा कर माफ़ी मांगी और ब्रिटिश हुकूमत की सच्ची सेवा का व्रत लेकर उनके पेंशनर बने। ये सब तब हो रहा था जब हमारे देश के लाखों-लाख रण बांकुरे कांग्रेस के नेतृत्व में अंग्रेजी हुकूमत से देश की आजादी के लिए मातृभूमि पर अपने प्राणों की आहुति दे रहे थे या जेल की सलाखों का खुशी-खुशी चुम्बन कर रहे थे।

संघ के पुरखे अंग्रेजों के चाटुकार थे और उनकी गोद में बैठ कर देश में साम्प्रदायिक विभाजन के लिए द्वि-राष्ट्र की बात कर रहे थे तथा ब्रिटिश हुकूमत के साम्प्रदायिक विभाजन (डिवाइड एंड रूल) के एजेंडे पर मुस्लिम साम्प्रदायिक पक्ष के साथ गलबहियां डाले हुए थे। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) से चली आ रही हिन्दू-मुस्लिम एकता की चट्टानी ताकत को तोड़ने और उसे छिन्न-भिन्न कर देने के ब्रिटिश राज के मंसूबों को इन्हीं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और मुस्लिम लीग जैसी फिरकापरस्त ताकतों ने पूरा करने में अंग्रेजों की पुरजोर मदद की थी।

यह जो बार-बार इतिहास बदलने की भाजपाई कवायद है उसकी पृष्ठभूमि यही है कि ये अपने पूर्वजों के बदनुमा चेहरों पर नए इतिहास के जरिये झूठ परोस कर रंग-रोगन करना चाहते हैं। यही हाल इनका भारतीय संविधान को लेकर है- ये बुझे मन से संविधान की दुहाई भले ही देते हों लेकिन इनकी असल मंशा संविधान के समेकित समता मूलक विचारों को खत्म करना रही है, इसीलिए इन्हें संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता शब्द से इतनी चिढ़ है कि जब-तब ये उस पर कटाक्ष करते ही रहते हैं।

आज उपर्युक्त बातें लिखना इसलिए जरूरी है कि इन्होंने भारत बनाम इंडिया की नई जुगाली शुरू कर दी है। इस बहस पर नीचे बाद में लिखूंगा लेकिन पहले यह जान लेना जरूरी है कि बाजपेयी सरकार के ‘शाइनिंग इंडिया’ से लेकर मोदी सरकार के मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्किल इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, इन्वेस्ट इंडिया तक पहुंचते पहुंचते अचानक इन्हें ‘इंडिया’ नाम क्यों खटकने लगा?

इसके पीछे की असल बात सिर्फ यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार की दिनों-दिन घटती लोकप्रियता के बीच उभरे नए समीकरण के तहत विपक्षी गठबंधन ने अपना नाम ‘इंडिया’ रख लिया है, तब से उनकी नींद हराम है। अब इनको कौन समझाए कि भाई तुम्हारे तुगलकी फरमान के चक्कर में देश पहले से ही कई बार जान-माल का नुकसान उठा चुका है, अब तो बख्श दो!

भाजपा नेता नामकरण की इस बहस को ऐसा पेश कर रहे हैं कि ‘इंडिया’ शब्द उपनिवेशवादी प्रतीक है जिसे हम सच्चे राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित होकर ‘भारत’ करना चाहते हैं। ये ज्ञान-विज्ञान और तर्क से वंचित और कूढ़मगज हैं इसलिए इनकी अज्ञानता यहां भी परिलक्षित हो रही है, क्योंकि ‘इंडिया’ नाम का मामला ब्रिटिश उपनिवेशवादी प्रतीक का तो कतई नहीं है। कहने का मतलब यह कि ‘इंडिया’ नाम किसी अंग्रेज ने नहीं दिया बल्कि यह नाम सिंधु नदी से जुड़ा है जिसकी हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता से हमारी पहचान है और उसी से जोड़ कर यह नाम लगभग चौथी सदी ईसा पूर्व से प्रचलन में है।

लेकिन यहां बहस के भटक जाने का खतरा है इसलिए आइए इन संघी-भाजपाई अज्ञानियों के कुतर्क पर ही बात कर लेते हैं कि अचानक ‘इंडिया’ को बदल कर ये ‘भारत’ नाम के जरिये क्यों गौरवान्वित होना चाहते हैं तथा क्यों अपने गुबरैले भक्तों को व्हाट्सएप ज्ञान से अभिसिंचित करने लगे हैं?

अपने चरण चूमकों के जरिये ये देश को ऐसा बताने की कोशिश कर रहे हैं जैसे ‘भारत’ नाम इन्होंने हाल-फिलहाल आविष्कृत किया है और अब से पहले इस नाम से कोई परिचित भी न था? जबकि हमारे समाज मे घर-घर में होने वाले पूजा-पाठ में भारत खंड, जम्बू द्वीप, सिंधु क्षेत्र का जिक्र श्लोकों में सदियों से होता आया है। हमारे राष्ट्रगान में भारत भाग्य विधाता के रूप में उत्तर से दक्षिण तक तथा पूरब से पश्चिम तक की हमारी बहुलतावादी सांस्कृतिक परंपरा को समाहित किया गया है, जिससे इस देश का जन-जन परिचित है।

तो फिर मामला क्या है?

मामला कुल मिलाकर बस इतना ही नहीं है कि देश के राजा को अब ‘इंडिया’ पसन्द नहीं है इसलिए वह इसे डिक्शनरी से मिटा देना चाहता है। यह देश के नामकरण की चलाई जा रही बहस का सरलीकरण करना होगा। अगर कल को विपक्षी गठबंधन अपना नाम बदल कर ‘भारत’ नाम रख ले तो क्या बहस खत्म हो जाएगी? नहीं!

दरअसल इस नाम के विवाद के पीछे छिपी राजनीतिक मंशा को उद्घाटित किया जाना बेहद जरूरी है जिस पर शायद ध्यान नहीं दिया जा सका है। भाजपा-संघ के इरादे इस ओर इशारा करते हैं कि देश के हिंदी नाम ‘भारत’ को अंग्रेजी नाम ‘इंडिया’ के बरख्श खड़ा कर वे अपने हिंदी भाषी राज्यों के छीजते जनाधार को छद्म राष्ट्रवादी उभार के जरिये पुनर्स्थापित करना चाहते हैं।

राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद हिंदी पट्टी में कांग्रेस को मिल रहे अभूतपूर्व समर्थन ने मोदी सरकार की नींद उड़ा रखी है। भारत जोड़ो यात्रा के बाद हुए चुनावों में कर्नाटक और हिमाचल से उसकी बेदखली ने उसके अंदर खलबली मचा रखी है। संघ-भाजपा को लगता है कि ‘भारत’ बनाम ‘इंडिया’ की बहस के बहाने उसे अपना जनाधार मिल सकता है क्योंकि गैर हिंदी भाषी राज्यों में तो उसका कोई नामलेवा बचा नहीं है, इसलिए नरेंद्र मोदी इस नामकरण के जरिये 2024 के चुनाव की वैतरणी पार करने की आस लगाए बैठे हैं।

यह बहस अंततः हिंदी बनाम अंग्रेजी में देर सवेर तब्दील होगी और गैर हिंदी भाषी राज्यों में इसका पुरजोर विरोध भी उभरेगा। जैसा कि हम पहले ही जानते हैं कि इन्होंने अंग्रेजों से गलबहियां कर स्वतंत्रता संग्राम का बहिष्कार किया और मुस्लिम लीग के साथ मिलकर देश के विभाजन के ब्रिटिश राज के उद्देश्यों को अमली जामा इसलिए पहनाया कि हिंदुओं का देश बन जाने पर सत्ता की चाभी अंग्रेज इनके हाथ सौंप देंगे।

वहीं दूसरी ओर संघ के नेता मुसोलिनी और हिटलर से भी आस लगाए बैठे थे कि अगर द्वितीय विश्वयुद्ध में बाजी पलटी तो वे भारत में सत्ता हस्तगत करने में इनकी मदद करेंगे। इन दोनों वैश्विक खलनायकों से मूलतः इनकी वैचारिक एकता थी जिसका प्रयोग साम्प्रदायिक फासीवाद के तौर पर ये हिंदुस्तान में कर रहे थे। मुसोलिनी-हिटलर के साथ-साथ ये अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन के खिलाफ मोहरे बनाये जाते रहे।

वहीं दूसरी तरफ देश के राजनीतिक पटल पर मुख्य धारा में कांग्रेस के होने के कारण इनके मंसूबे पूरे नहीं हो सकते थे। हां! ब्रिटिश हुकूमत ने इनकी मदद से देश का बंटवारा सफलता पूर्वक जरूर सम्पन्न कर लिया और 1857 से जारी ब्रिटिश महारानी की डिवाइड एंड रूल की नीति अंततः 1947 में देश के विभाजन के साथ लार्ड माउंटबेटन के हाथों अपनी परिणति को अवश्य पहुंच गई।

अब जब नया आजाद भारत इनके हाथ नहीं आ सका तो इनकी कसक बनी रही और ये दीमक की तरह हमारे संविधान और उसके मूल्यों के खिलाफ उसी साम्प्रदायिक विभाजन की नीति पर चलते हुए जमीनी स्तर पर उसे खाद-पानी देते रहे।

अभी जब इनके हाथ में सत्ता है तब ये क्या कर रहे है? क्या इन्होंने राष्ट्र के विकास के लिए कोई ठोस कार्यक्रम विगत वर्षों में देश के समक्ष प्रस्तुत किया? क्या इन्होंने उसी घिसी-पिटी मंदिर-मस्जिद और हिन्दू-मुसलमान से बाहर का कोई राजनीतिक विमर्श पेश किया? क्या इन्होंने जनता के किसी मूलभूत मुद्दे पर जिससे वह रोज जूझ रही है, कोई योजना प्रस्तुत की अथवा उसका क्रियान्वयन किया?

क्या देश की बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई, अशिक्षा, खाद, बिजली, पानी जैसे जनोन्मुखी मुद्दे इनके राजनैतिक कार्यक्रम का हिस्सा बन सके? क्या अंतरराष्ट्रीय पटल पर इन्होंने राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित रखा? क्या अपनी वैदेशिक नीतियों से इन्होंने आर्थिक निवेश और देश की संप्रभुता का मान उन्नत किया या उसे अक्षुण्ण रखा? क्या इन्होंने देश में आंतरिक शांति व विकास को बहाल करने का कोई सार्थक उपक्रम किया?

ऐसे दर्जनों सवालों का जवाब अगर हम इनके विगत 9 सालों के शासन काल में ढूंढेंगे तो उत्तर केवल नकारात्मक ही मिलेगा। ऐसा क्यों है कि राष्ट्रवादी चोला ओढ़ने और तरह-तरह के हथकंडे अपनाने वाली भाजपा उपरोक्त मोर्चों पर बुरी तरह मुंह की खाती दिखती है?

दरअसल इन सभी प्रश्नों का जवाब उसकी पराई विचारधारा और प्रतिक्रियावादी सोच में छिपी है जिसकी कोई परंपरा हमारे इतिहास में मौजूद नहीं है। हमारी मूल संस्कृति समरसता की संस्कृति है जिसे हम सनातन कहते आये हैं। जहां ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की रसधारा बहती हो और विचारों की उदारता और स्वतंत्रता से बुद्ध, जैन, सिख, ईसाई, मुस्लिम सहित सभी धर्मों का सम्मान होता आया हो। जहां हिन्दू धर्म में ही दर्जनों सम्प्रदाय शैव, शाक्त, वैष्णव आदि एक साथ अपने विचारों को प्रचारित-प्रसारित करते आये हों।

जहां कबीर दास, तुलसी दास, सूरदास, रसखान और रहीम की एक समान मान्यता और लोकप्रियता हो, जहां सूफी संतों की बारगाह में हिंदुओं की संख्या मुसलमानों के कमतर न रहती हो, जहां मंगल पांडेय, झांसी की रानी, तात्याटोपे, मौलवी लियाकत अली और बहादुर शाह जफ़र जैसे बलिदानी रहे हों। जहां तिलक, गोखले, गांधी, नेहरू, सुभाष और पटेल रहे हों, तो भगत, आजाद, अशफाक और बिस्मिल भी पूजे जाते हों।

जहां मुकेश, किशोर कुमार से ज्यादा मो. रफी सुने जाते हों, जहां बेगम अख्तर, नूरजहां, लता और आशा भोसले को एक बराबर सम्मान मिलता हो। जहां राज कपूर, मनोज कुमार, शम्मी कपूर, राज कुमार से भी ज्यादा दिलीप कुमार पर जनता प्यार लुटाती आयी हो, और आज भी खान त्रयी बॉलीवुड के सबसे हिट चेहरे हों, उस देश में विभाजन की राजनीति क्षणिक ही हो सकती है।

दुनिया के इतिहास में फ़ासीवादी ताकतें जहां-जहां भी उभरी हैं और पूंजीपतियों की मदद से सत्ता में आई हैं वहां-वहां उन चंद पूंजीपतियों ने दोनों हाथों से उस देश का माल-असबाब लूटा है। मोदी सरकार भी इसका अपवाद नहीं है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार जब पूंजीपतियों ने 2014 में प्रत्यक्ष या खुल कर नरेंद्र मोदी का चुनाव संचालित किया और अडानी-अम्बानी ने हजारों-हजार करोड़ रुपये पानी की तरह बहाया तभी यह साफ हो चला था कि आगामी सत्ता की असली चाभी उन्हीं के पास रहनी है।

अब पूरा देश देख रहा है कि कैसे पूरे देश के हर महत्वपूर्ण लाभकारी क्षेत्र में अडानी-अम्बानी ने अपने हाथ की सफाई दिखा रहे हैं और जिनके लिए मोदी सरकार सभी नियम-कानूनों को शिथिल कर अथवा ताक पर रख कर खुलेआम इस लूट के लिए मार्ग प्रशस्त कर रही है। या यूं कहें कि उनके एहसान का बदला चुका रही है।

भला हो राहुल गांधी का जिन्होंने इस लूट की कलई खोल कर रख दी है और इसको बेनकाब करने का व्रत ले बैठे।

जैसा कि कहावत है, ‘खिसियानी बिल्ली- खंभा नोचे’ सो नरेंद्र मोदी खीझ में कभी संसद में माइक बंद करने, तो कभी उनकी सांसदी खत्म करने के तिकड़मों में उलझ कर रह गए हैं। राहुल गांधी ने जो नब्ज पकड़ी है वह इस समय और सत्ता की सबसे कमजोर कड़ी है, इसीलिए कल तक जिसे हजारों करोड़ खर्च कर भाजपा-संघ और मोदी सरकार पप्पू बताते नहीं अघाती थी, वही मोदी सरकार तथा उसके असली आकाओं (अडानी-अम्बानी) का पूरा खेल पलट चुका है।

कल तक जिनके लिए यह प्रचारित किया जाता था कि उनको तो कांग्रेस वाले ही नेता नहीं मानते, वही रातों-रात अचानक पूरे विपक्ष का सर्वस्वीकार्य नेता बन बैठा है। दरअसल यह कोई चमत्कार नहीं है, बल्कि हमारी उसी सांस्कृतिक विरासत की ताकत है जिसकी सच्ची और ईमानदार साधना राहुल गांधी कर रहे हैं।

राहुल भारत की पावन भूमि के वास्तविक तपस्वी बन बैठे हैं जिसका जनता को लंबे समय से इन्तजार था। प्रेम और भाईचारे को जिसे वो मोहब्बत की दुकान कहते हैं, वह दुकान डर, छल-छद्म और अथाह पूंजी के ऊपर भारी पड़ गई है और चल निकली है। उसे चलना ही है क्योंकि वही हमारी विरासत है जिसे हजारों सालों से इस महा देश ने तमाम झंझावातों और हमलों के बावजूद बचा कर रखा है। 

इंडिया गठबंधन अभी बना है लेकिन इंडस वैली जिसके हम बाशिंदे हैं हजारों सालों से इसी तरह फल-फूल रही है। भारत ही इंडिया है, वहीं हिन्द और हिंदुस्तान है जिसे हमारे दिलों से कोई भी ओछी राजनीति जुदा नहीं कर सकती।

विभाजनकारी सोच कुछ क्षण तक तो भ्रमित रख सकती है लेकिन प्रेम सर्वव्यापी है जिसकी अंततः विजय ही होती है। हम समझते हैं कि गांधी का यह देश सदैव की तरह सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चल कर सत्ता के इस विपथन से जल्द ही बाहर आएगा और विश्वपटल पर भारत भूमि गौरवान्वित होती रहेगी।

(क्रांति शुक्ल, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं।)    

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles