संविधान के आईने में लोकतंत्र के सवाल का जवाब है समझदार मतदान

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आम चुनाव 2024 का दूसरे चरण में आज 26 अप्रैल को चुनाव संपन्न हो गया है। इस बीच आज ही, माननीय सुप्रीम कोर्ट का मतपर्चियों के शत-प्रतिशत मिलान पर फैसला भी आ चुका है। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में याचिकाकर्ताओं की मांग को अमान्य करते हुए जारी व्यवस्था के ही जारी रहने की, अर्थात यथास्थिति बनी रहने का रास्ता साफ कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला भारत के आम नागरिकों और राजनीतिक दलों के लिए मान्य होना चाहिए और होता भी है।

बहरहाल, इस के साथ यह प्रकरण समाप्त हो गया है। मतदान प्रतिशत का न बढ़ना चिंता का विषय जरूर है। 54 प्रतिशत मतदान का मतलब है अधिकतम 24 से 27 प्रतिशत मत से बहुमत का हासिल होना। इसे प्रभावी बहुमत नहीं माना जाना सकता है। इस बीच मीडिया के लाइव प्रसारण में असंतुलन साफ-साफ दिख रहा है। एक खास राजनीतिक दल के साथ तरंगी मीडिया भी संघर्ष करता हुआ दिख रहा है। आम चुनाव में सभी राजनीतिक दल बहुमत के लिए संघर्ष करते हैं। प्रासंगिक होगा कि बहुमत के स्वरूपों को समझने की कोशिश की जाये।

लोकतंत्र बहुमत से चलता है। कहा जा सकता है कि देश बहुमत भी बहुमत से ही चलता है। जीवन में बहुमत की बहुत बड़ी भूमिका होती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या विचार भी बहुमत से बनता है! क्या विचार प्रक्रिया बहुमत से चलती है? साधना, समाधि और सद्भाव की पवित्रता और अक्षुण्णता के लिए भी बहुमत की जरूरत होती है! एक हद तक लोकतंत्र में बहुमत बहुत महत्वपूर्ण होता है, लेकिन एक हद तक ही। बहुमत के निर्णय से सुकरात को प्राण दंड मिला था और महात्मा बुद्ध को देश-निकाला मिला था। सुकरात के सामने प्राण बचाने के उपाय थे।

दुविधा यह थी कि प्राण बचाने से उन का शरीर तो जीवित रह जाता लेकिन विचार मर जाता। सुकरात ने प्राण देकर विचार को बचा लिया। महात्मा बुद्ध भी देश-निकाला से बच सकते थे। लेकिन, इस तरह से बचने पर उन के लिए हिंसा और युद्ध के विरुद्ध विचार तथा सत्य के संधान के लिए अपनी साधना को जारी रख सकना संभव नहीं होता। सुकरात और बुद्ध ही नहीं ऐसे असंख्य लोग हैं, जिन्होंने बहुमत के सामने समर्पण नहीं किया और अपने विचार को बचाने के लिए अपने-अपने प्राण तक की परवाह नहीं की। बुद्धिजीवियों ने हमेशा अकेले पड़ जाने तक का जोखिम उठाया है। बहुमत के समर्थन की परवाह जीवन के हर प्रसंग में किया जाना संभव नहीं होता है! इसलिए इस संदर्भ में ठहरकर लोकतांत्रिक बहुमत के स्वरूप को ही समझना प्रासंगिक है।

लोकतांत्रिक बहुमत के स्वरूप पर चर्चा करने के पहले एक विचार रूपक। छोटा पहिया बड़े पहिये को चलाता है। छोटा पहिया बड़े पहिया के प्रति विश्वासी बना रहता है। कैसे? सब से बड़ा पहिया है जनता। जनता के इस बड़े पहिया से एक छोटा पहिया बनता है, संसद। संसद अपना छोटा पहिया बनाने के लिए एक नेतृत्व में विश्वास व्यक्त करती है। वह व्यक्ति अपना एक समूह बनाता है, मंत्री परिषद। वह व्यक्ति प्रधानमंत्री होता है। प्रधानमंत्री समेत मंत्री परिषद को सरकार माना जाता है। सरकार अपने बड़े पहिया, अर्थात संसद के प्रति जवाबदेह होती है। संसद अपने बड़े पहिया, अर्थात जनता के प्रति जवाबदेह होती है। जब तक ‘छोटा पहिया, बड़ा पहिया’ में विश्वास का प्रणालीगत तालमेल और संतुलन बना रहता है, तब तक सब ठीक रहता है।

यह सच है कि लोकतंत्र का प्राण बहुमत में बसता है। पूरा यह सच यह है कि लोकतंत्र का प्राण लोकतांत्रिक बहुमत में बसता है। लोकतांत्रिक बहुमत से आशय है, नैतिक आग्रहों, मानवाधिकारों पर्यावरणिक संवेदन-शीलताओं, मिलनसारी प्रवृत्तियों, कानून के राज की स्थितियों कुल मिलाकर लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर निर्मित बहुमत। लोकतांत्रिक बहुमत के लिए बस थोड़ी-सी सहज बुद्धिमत्ता (Common Sense) चाहिए। थोड़ी-सी अक्ल चाहिए। लेकिन जिन्होंने अक्ल का कटोरा ‎ही बेच खाया हो उनकी बात अलग है। ‘दलीय निष्ठा’ के नाम पर ‘प्रतिबद्ध’ लोग दुनिया बनानेवाले से भले ही यदा-कदा ‎सवाल कर लें कि काहे ऐसी दुनिया बनाई! अपने वोट से बनाये ‘भगवान’ से ‎कोई सवाल करने का साहस उन में भला कहां होता है! सवाल यह कि ऐसी-ऐसी नीतियां क्यों बनाई कि वे ‘लाख’ हुए और हम ‘खाक’ हुए! ‎‎

‘अक्लमंदों’ के हाथों अक्ल का कटोरा बेच खानेवाले ‘मंद अक्ल’ लोगों का जमावड़ा लोकतंत्र के ‎लिए एक बड़ा खतरा होता है। ‎सामने रखा हुआ पानी उन के लिए झूठ होता है और मृग-तृष्णा ‎में लहराता ‘भ्रम जल’ सच होता है। उन्हें अपनी बुरी अवस्था के लिए लोकतांत्रिक सरकार की अलोकतांत्रिक नीतियों से कोई शिकायत नहीं होती है। शिकायत होती है, ‎अपने पूर्व जन्म में किये किसी अज्ञात कर्म के आधार पर ‘किस्मत’ लिखकर दुनिया में भेजनेवाले भगवान से। वे इस जन्म में ‘कर्म सुधार’ की चर्या में बड़े आसानी से लग जाते हैं।

तर्कातीत और तर्कहीन पूर्व जन्म, कर्मफल आदि के प्रति ‘धार्मिक विश्वास’ के आधार पर कुछ लोग एकत्र होकर राजनीतिक दल के सदस्य हुए बिना राजनीतिक बहुमत के लिए संगठित हो जाते हैं‎। उन्हें न्याय की उम्मीद धरती पर लगनेवाली किसी अदालत से नहीं ‘ऊपरवाले’ से होती है; विश्वास कि ऊपरवाला सब देखता है, ऊपरवाला गवाह भी होता है और जज भी होता है। धरती पर लगनेवाली अदालत का जज गवाह नहीं हो सकता क्योंकि ‘देखना’ उस के लिए निषिद्ध होता है। वह ‘देखता’ नहीं, समझता है! इसलिए, ‘आस्थावान और विश्वासी’ लोग ‘ईश्वरीय न्याय’ पर भरोसा करते हैं।

‘सकल पदार्थ’ है, लेकिन ‘कर्महीन’ के लिए नहीं। ‘किस्मत’ ही साथ न दे तो कर्म करने का सुयोग, रोजगार का शुभ अवसर कैसे मिले! इसलिए, ‘आस्थावान और विश्वासी’ लोग ‎सरकार की नीतियों में सुधार के लिए नहीं, अपनी किस्मत में सुधार के लिए ‘धर्म-ध्वजा’ के नीचे संगठित हो जाते हैं। इस तरह से ‘भाग्योदय’ के लिए तैयार हो जाता है, धर्म-आधारित बहुमत। यह धर्म-आधारित बहुमत राजनीतिक और अंततः लोकतांत्रिक बहुमत में बदल जाता है।

भारत के लोकतंत्र के इस दौर में लोकतांत्रिक बहुमत का नहीं धर्म-आधारित बहुमत का वर्चस्व है। धर्म-आधारित बहुमत का आकार किसी धर्म में जन्म लेनेवाली जनसंख्या से बनता है और लगभग अपरिवर्तनशील एवं स्थाई होता है। धर्म-आधारित बहुमत विचार से नहीं जन्म से बनता है। किसी धर्म में किसी का होना उसके विचार पर निर्भर नहीं करता है, बल्कि उसके जन्म से तय होता है। लोकतांत्रिक बहुमत लोकतांत्रिक विचार से बनता है। अपना लोकतांत्रिक विचार स्थिर करने में व्यक्ति का अपना भी कुछ-न-कुछ योगदान तो होता ही है। धर्म-आधारित व्यवस्था एक बंद व्यवस्था होती है, जबकि लोकतंत्र आधारित व्यवस्था एक खुली व्यवस्था होती है।

धर्म-आधारित बहुमत को लोकतांत्रिक बहुमत में बदलने के लिए व्यक्ति को विचार से मुक्त होना होता है। खुली हुई लोकतांत्रिक व्यवस्था को धर्म-आधारित बहुमत बंद व्यवस्था में बदल देता है। चूंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था खुली होती है, इसलिए किसी भी धर्म का आदमी किसी भी लोकतांत्रिक दल का सदस्य हो सकता है। अपने-अपने धर्म में बने रह कर किसी एक लोकतांत्रिक दल का सदस्य हुआ जा सकता है।

लोकतांत्रिक राजनीति लोकतंत्र की खुली व्यवस्था और धर्म की बंद व्यवस्था को एक साथ मिलाती नहीं है। धर्म-आधारित बहुमत के आधार पर अपने दल को बंद व्यवस्था में बदल लेनेवाली राजनीति के दल को लोकतांत्रिक दल नहीं कहा जा सकता है। ऐसी राजनीति अपने राजनीतिक दल में किसी ‘धार्मिक अल्पसंख्यक’ का स्वागत नहीं करती है। ऐसी राजनीति अपने धर्म-आधारित बहुमत पर न सिर्फ इतराती है बल्कि अपने दल को अलोकतांत्रिक नजरिया भी देती है। बेरोक-टोक होने पर यह नजरिया अकसर ‎‘धार्मिक अल्पसंख्यक’‎ के प्रति खूंखार हो जाने की हद तक पहुंच जाता है।

धर्म-आधारित बहुमत के लिए हवा बनाने में पंडा-पुरोहित और सामंतवादी शक्ति अपनी बड़ी भूमिका निभाती है। इधर तकनीक की ताकत से दैत्य-प्रभाव उत्पन्न करने में सक्षम ‎‘मीडिया घरानों और स्टारों’ की स्वार्थ प्रेरित रुचि भी जबरदस्त कमाल दिखा रही है। धर्म और लोकतांत्रिक राजनीति को मिलाना किसी दल को बहुसंख्यकवाद के लिए ‘स्थाई बहुमत’ का आधार देता है। इस ‎‘स्थाई बहुमत’‎ को जीवंत, सार्थक और सक्रिय लोकतांत्रिक बहुमत नहीं कहा जा सकता है। बहुसंख्यकवादी धर्म-आधारित ‘स्थाई बहुमत’‎ लोकतांत्रिक बहुमत का छलिया और घटिया प्रकार होता है, जहरीला भी होता है।

भारत के संदर्भ में बात करें तो जन्म से सिर्फ धर्म ही नहीं, जाति भी तय होती है; खासकर हिंदुओं के मामलों में। ऐसा कोई हिंदु हो ही नहीं सकता है, जिसकी कोई जाति न हो। धर्म की तरह जाति भी एक बंद व्यवस्था है। धर्म-आधारित बहुमत पर जो लागू होता है, वही जाति-आधारित बहुमत पर भी लागू होता है। लेकिन धर्म-आधारित बहुमत और जाति-आधारित बहुमत में एक बारीक और बड़ा फर्क है, और इस फर्क की अनदेखी नहीं की जा सकती है। फर्क क्या है! फर्क यह है कि जाति-आधारित बहुमत बनानेवाली जातियों का व्यापक हिस्सा सामाजिक और आर्थिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐतिहासिक उपेक्षा और शोषण का शिकार बना हुआ रहता आया है।

ऐतिहासिक उपेक्षा और शोषण से बनी परिस्थितियों के कारण उनके एक जगह संगठित होने से जाति-आधारित बहुमत बनता है। ‘जाति-आधारित बहुमत’ की हवा बिगाड़ने, घोर अधार्मिक तथा अनैतिक साबित करने के लिए ‘धर्म-आधारित बहुमत’ की राजनीति के पक्षधर पंडा-पुरोहित और सामंतवाद की संयुक्त शक्ति लगी रहती है। ‎‘मीडिया’ का रुझान ही नहीं जबरदस्त समर्थन, ‘धर्म-आधारित बहुमत के साथ’ और ‘जाति-आधारित बहुमत के विरुद्ध’ होता है। दूसरी बात यह है कि भिन्न-भिन्न जातियों की आबादी बहुत छोटी होती है। जाति-आधारित बहुमत बनाने के लिए छोटी-बड़ी जातियों का एक साथ आना स्थाई स्वभाव का नहीं होता है।

सच पूछा जाये तो जाति-आधारित बहुमत से ‘‎स्थाई बहुमत’‎ बनता भी नहीं है। क्योंकि जाति-आधारित बहुमत का सूक्ष्म प्रबंधन (Micro Management)‎ बहुत मुश्किल ‎होता है। जाति-आधारित बहुमत को समाज में सक्रिय वर्चस्वी मिजाज से हर कदम पर आघात लगता रहता है। जाहिर है कि इनके नेता अपनी सामाजिक और राजनीतिक बेचैनियों में इधर-उधर होते रहते हैं। कहा ‎जा सकता है कि ‘जाति-आधारित बहुमत’ में आंतरिक समर्थन बहुधा अस्थिर और परस्पर शत्रुतापूर्ण (Volatile and ‎Hostile)‎ नहीं भी तो ‘कृपण-सहयोगी’ ही होता है।

इस वक्त जातियों के बीच संबंधों में राजनीतिक और आर्थिक ‎स्थिरता लाने के प्रयास की जरूरत है। सार्वभौमिक और पारस्परिक हितों के साझापन के संवेदनशील ‎सूत्रों को जगाना, उभारना राजनीतिक कर्तव्य है। सामाजिक न्याय का लोकतांत्रिक वातावरण बनाने के लिए ‎बहुआयामी, समन्वित एवं सतत कार्यक्रम की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता है। पिछले दिनों सामाजिक और आर्थिक ‎ताना-बाना को विचलित कर देनेवाला आघात पहुंचा है। फिर भी आम ‎तौर पर भारतीयों के संतोष-बोध पर भरोसा करते हुए सघन और सतत प्रयास से सब कुछ ठीक किया जा सकता है। कहने का आशय यह है कि जाति-‎आधारित बहुमत और धर्म-आधारित बहुमत की राजनीति में मात्रात्मक और ‎गुणात्मक अंतर होता है। लोटा में भी पानी है, समुद्र में भी पानी है इस आधार पर ‎लोटा और समुद्र एक नहीं होता है। ‎

आंबेडकर ने कहा था, ‘‘लोकतंत्र का अर्थ है ‎साथ-साथ जीवन बिताने की एक ‎प्रणाली। लोकतंत्र की जड़ें उन लोगों के सामाजिक संबंधों में ‎ही नजर आती हैं, जो ‎एक समाज में साथ-साथ जीवन बिताते हों।’’ बढ़ती हुई भयावह विषम परिस्थिति में दबाये हुए और दबंग एक साथ जीवन कैसे बिता सकते हैं? चाहे जैसे भी हो, विषमता की खाई को अविलंब पाटना होगा। सच पूछा जाये तो, धर्म-आधारित बहुमत की बहुसंख्यकवादी धर्म-आधारित राजनीति के जनविरोधी रुझानों को रोकने और लोकतांत्रिक बहुमत को बहाल करने में जाति-आधारित राजनीति में संभावित जनवादी रुझान और जनसांकृतिक चेतना की समन्वित शक्ति का बड़ा योगदान हो सकता है।

आंबेडकर ने यह भी कहा था, ‎“अल्पसंख्यक समुदायों के मूलभूत अधिकारों की अवश्य ही रक्षा होनी चाहिए।’’ कांग्रेस के घोषणापत्र में अल्पसंख्यक समुदाय के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की चिंता शामिल है। भारतीय जनता पार्टी के ‘स्टार प्रचारक’ चुनाव प्रचार में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का नाम तो बार-बार लेते हैं, लेकिन कांग्रेस के घोषणापत्र में ‘मुस्लिम लीग’ की छाप देखते हैं। कांग्रेस के न्यायपत्र में स्वस्थ लोकतंत्र के प्रति समझ, सम्मान और समर्पण के साथ अधिक स्पष्टता और विश्वसनीयता से अपनी बात रखी गई है। कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) की चुनावी तालमेल की रणनीति का जो आभास कांग्रेस के न्यायपत्र से अघोषित सहमति में मिलता है, वह भरोसे के काबिल है। उम्मीद है कि चुनाव के बाद सत्ता परिवर्तन होने की कोई स्थिति बने तो, चुनावी रणनीति भारत सरकार की नीतियों में शामिल होगी और छः महीनों में इसका प्रभाती प्रभाव दिखने भी लगेगा।

वर्तमान सत्ता में आम नागरिकों का खयाल रखने की सलाहियत नहीं है। किसी का खयाल रखना उस पर वर्चस्व या बढ़त बनाना, हुक्म चलाना नहीं होता है। खयाल रखने का मतलब ‎होता है, जिसका खयाल रखा जा रहा हो उसकी भौतिक-मानसिक जरूरतों को समय पर ठीक से समझना और ‎सेवा एवं हिदायत को ग्रहण करने की स्वाभाविक मनःस्थिति में उसे बनाये रखना। आम नागरिकों का खयाल रखने में वर्तमान सत्ता ‎की कोई रुचि नहीं रही है। ‎ इसलिए भी भारत के लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन जरूरी हो गया है। सत्ता परिवर्तन, जिस की प्रबल संभावना है, के बाद स्वाभाविक है कि अपनी स्थिति से उत्पन्न अहं की खुमारी से निकलने में वर्तमान सत्ताधारी दल को समय लगेगा। इस खुमारी के प्रभाव से निकलने में राजनीतिक कार्यकर्ता बन चुके नौकरशाहों को भी थोड़ा समय लगेगा। नौकरशाहों का तैतत-भय (तैनाती-तबादला-तरक्की) के निर्भय होने में भी समय लग सकता है।

कहना न होगा कि प्रतिबद्धता के अदल-बदल में नौकरशाह की दक्षता लाजवाब होती है! यह भी ध्यान देने की बात है कि सरकार की नीतियों की न्यायशीलता, प्रभावशीलता और जन-प्रशंसनीयता बहुत बड़ा अंश नौकरशाहों की ईमानदार कार्य-कुशलता पर निर्भर करता है। ईमानदार कार्य-कुशल नौकरशाह को विभिन्न महत्वपूर्ण स्तर पर सक्रिय करना हर नई सरकार की समग्र समझ और आम जनता के प्रति स्वाभाविक सहानुभूति पर निर्भर करता है। उम्मीद कीजिए कि जो भूलें जनता पार्टी और पार्टी की सरकार ने की उसे विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) की सरकार, अगर बनती हो तो, दुहरायेगी नहीं।

प्रसंगवश, जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद ‘दिल्ली से दूर’ के लोग जब अपने नव निर्वाचित जनप्रतिनिधि के पास किसी व्यक्तिगत या सार्वजनिक कार्य के कारण संपर्क करते थे, तो असमंजस में जनप्रतिनिधि पलटकर पूछ लेते थे कि किससे कहना होगा! अक्सर काम लेकर जानेवाले लोगों को पता ही नहीं होता था! ऐसे असमंजस में पड़े लोगों के लिए ‘दलाल सेवा’ और पिछली सरकार में उपेक्षित नौकरशाह की ‘विनम्र सेवा’ बड़े काम की होती है। किन राजनीतिक कारणों, दलालों और ‎‘प्रतिबद्ध नौकरशाहों’‎ के किन कारनामों से जनता पार्टी का पतन हुआ था, आज कहना मुश्किल है। आगे क्या होगा? क्या पता!‎ इतना पता है कि भारत के लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य के संतुलन को बनाये रखने के लिए ‘वाम तत्व’ का पर्याप्त और सम्यक सम्मान अनिवार्य होता है।

यह मानने को कोई कारण नहीं है कि सत्ता परिवर्तन के कारण सत्ता से बेदखल, यदि ऐसा होता है तो, दक्षिण-पंथी रुझान की राजनीति नई सरकार का रास्ता स्वतः खाली कर देगी। अराजकीय कारक और कारण (Non State Actor And Factor) किस दिन उनके काम आयेंगे भला! यह आशंका निर्मूल नहीं कही जा सकती है कि दक्षिण-पंथी राजनीति अपनी ‎‘सांस्कृतिक जिद’ के तहत एक-से-बढ़कर-एक हथकंडा और वितंडा को आजमाना जारी रख सकती है। सत्ता से बेदखल दल को उम्मीद रहेगी कि ‘मुश्किल वक्त’ में मीडिया पहले की तरह से उन की राजनीति का साथ देना जारी रखेगी। एक तरफा हो चुकी मीडिया के परिप्रेक्ष्य को संतुलित और जनोन्मुख बनाये रखना सरकार के लिए सब से मुश्किल होता है और होगा। कुल मिलाकर सत्ता परिवर्तन के बावजूद व्यवस्था परिवर्तन की चुनौती बहुत बड़ी होगी। प्राण-प्रद लोकतंत्र में हिस्सेदारी और भागीदारी का सवाल हमेशा महत्वपूर्ण बना रहता है।

कुल मिलाकर यह कि धर्म-आधारित स्थाई बहुमत की राजनीति का इलाज फिलहाल ऐतिहासिक रूप से शोषित-वंचित विभिन्न जातियों के संयोजित बहुमत से ही संभव है। भारत में लोकतंत्र के निष्फल होने की स्थिति का ख्याल आते ही डॉ. आंबेडकर की बात का संदर्भ दिमाग में कौंध जाता है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर लोकतंत्र को ‘‘रक्तपात पर निर्भर न करते हुए जनता के आर्थिक और सामाजिक ‎‎जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लानेवाली शासन प्रणाली’’ कहते थे, साथ-साथ यह भी कहते थे कि ‘‘पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ है साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और मध्यवर्गीय भारतीय व्यापारियों के शिकंजे से देश की मुक्ति।’’

चिंता तो हर किसी को होनी चाहिए कि ‘रक्तपात रहित लोकतांत्रिक परिस्थिति’ के कामयाब न हो पाने पर वंचित-शोषित नागरिकों की ‘मुक्ति का उपाय’ क्या बचता है? व्यवस्था के विचलित विवेक के कारण उत्पन्न होनेवाले “रक्तरंजित माहौल” का जवाबदेह और भुक्तभोगी कौन होगा?

‘हिंसा से निकली सत्ता’ को बंदूक के बल पर कब तक टिकाये रखा जा सकेगा? ‘अहिंसा’ के माध्यम से हासिल आजादी और लोकतंत्र पर राजकीय हिंसा के कब्जा में चला जायेगा? आनेवाली पीढ़ी के पास क्या सवाल होगा, क्या जवाब होगा? क्या पता! फिलहाल तो यह है कि संविधान के आईने में लोकतंत्र के सवाल का ‎जवाब समझदार ‎मतदान है। मतदान का अवसर सामने है और इंतजार सब को है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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