उपद्रवी मुद्रा में यह कैसी आवाज, मत कह देना कल आवाम को धोखेबाज

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अब 07 मई को आम चुनाव का तीसरा चरण संपन्न होने वाला है। चुनाव प्रचार में गलत बयानी, बेतुकी असंगत बातें और झूठ की झड़ी बेरोक-टोक जारी है। यहां तक कि गोधरा में हुए रेल अग्निकांड को भी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार और लालू प्रसाद यादव के रेल मंत्रित्व काल से जोड़ कर झूठे आरोपों का ‘शूल दस्ता’ मतदाताओं को सौंपने की कोशिश की गई। जबकि उस समय अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री खुद नरेंद्र मोदी थे जो पिछले दस साल से माननीय प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित कर रहे हैं।

प्रसंगवश, छात्र यूनियन के चुनाव को लोक सभा चुनाव की तरह से लड़ने का उन्नत दृश्य अभी कई साल से सामने आने लगा है। अब लोकसभा चुनाव को छात्र यूनियन के चुनाव की तरह से लड़े जाने का नजारा रह-रहकर दिख जा रहा है। नामांकन पत्रों की छीना-झपटी, उम्मीदवारों की घेरा-घेरी क्या बताता है! कौन किस लोकसभा क्षेत्र से उम्मीदवारी का परचा भर रहा है, यह घंटों बहस का विषय बन रहा है।

लगता ही नहीं है कि आबादी के लिहाज से दुनिया के सब से बड़े लोकतंत्र में आम नागरिकों के जीवनयापन से जुड़े मुद्दों पर सार्वजनिक चर्चा का कोई लोकतांत्रिक औचित्य बचा है! स्थिति तो यही है। हां इसी स्थिति में कुछ थोड़े लोगों को बहुत कुछ हाथ लगा। बहुत सारे लोगों के हाथ कुछ न आया तो क्या! अच्छे दिन तो‎ आकर गुजर गये। जिन लोगों के हाथ कुछ नहीं आया उन लोगों के हाथ में ‎‘शूल दस्ता’‎ पकड़ाने की भरपूर कोशिश जारी है। हाथ में ‎‘शूल दस्ता’‎ पकड़े दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मतदाता संविधान और लोकतंत्र बचाने का फैसला करेंगे। अद्भुत है, जिन लोगों के लिए दो जून की रोटी मुश्किल है, उन लोगों के फैसले पता चार जून को ‎लगेगा।

क्यों है लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सत्ता के झूठ का इतना बोलबाला! पता लगाना चाहिए। अवसर है। असल में, मनुष्य अमर होना चाहता है। लेकिन मरना सत्य है तो फिर अमर होने का क्या उपाय है! उपाय है लोगों की याद में बने रहना। लोगों की याद में बने रहना बहुत मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि लोग सिर्फ अच्छे लोगों और अच्छाइयों को याद रखते हैं! नहीं बिल्कुल नहीं। बुरे लोगों और बुराइयों को भी बड़ी शिद्दत से याद करते और रखते हैं।

दुनिया के लोगों में किसी को याद रखने और भूलने के अपने कायदे और फायदे हैं। रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास ने अपने तरीके से सराहना वृत्ति में याद रखने की कमाल की कुंजी खोज निकाली थी, ‎‎‘भलो भलाइहि पै लहइ, लहइ निचाइहि नीचु। सुधा सराहिअ अमरता गरल सराहिअ मीचु’!‎ बस मामला लह जाने का है! जिसका लह जाये वह सिकंदर, न लहे तो अंदर!

दुनिया के लोग हिटलर और उस के प्रचार मंत्री गोएबल्स को नहीं भूल पाते हैं। गोएबल्स कहा करता था, “एक झूठ को अगर कई बार दोहराया जाए तो वह सच बन ‎जाता है।”‎ झूठ और सच मनुष्य का सबसे पुराना साथी है। लेकिन झूठ का ऐसा मारक और स्मारक इस्तेमाल गोएबल्स ने किया कि पूरी दुनिया दहल गई। पूरी दुनिया झूठ के प्रति सतर्क हो गई। झूठ अन्याय का वाहन होता है।

विडंबना है कि न्यायालयों, यहां तक कि देवालयों में भी झूठ का जबरदस्त बोलबाला होता है। नहीं होना चाहिए। मगर होने से इनकार भी नहीं किया जा सकता है। ‎2024 के आम चुनाव के चुनाव प्रचार में बार-बार इधर-उधर से उछलते छलों की ‎‘अमृत ‎वाणी’‎ इतिहास में जरूर याद की जायेगी। आम चुनाव के तीसरे चरण का प्रचार जोर-शोर से चल रहा ‎है। नहीं, सुधार कर कहना ठीक है, चुनाव प्रचार में शोर का जोर चल रहा है। लोकतंत्र में जोर आजमाइश असल में शोर आजमाइश होता है। सत्य स्वभाव से शांत होता है। झूठ का तो‎ प्राण ही शोर होता है। इतिहास याद रखेगा ‎लोकतंत्र के शिखर से फूटती हुई झूठ की निर्झर धारा के भयावह शोर को।

झूठ और अन्याय में जुड़वां आत्मीयता होती है। जितने तरह के अन्याय, उतने तरह के झूठ। ऐसे भी समझा जा सकता है कि जितने तरह के झूठ, उतने तरह के अन्याय! कहने का तात्पर्य यह है कि झूठ को पकड़ना मुश्किल होता है। यह मुश्किल होता है क्योंकि पकड़ में आते ही झूठ अपने ‘सच’ का कोई-न-कोई टुकड़ा सामने कर देता है। फिर झूठ पकड़नेवाले की हालत उस यातायात पुलिस कांस्टेबल की तरह हो जाती है, जिसे यातायात का नियम तोड़नेवाला पकड़ में आने पर किसी ‘बड़े’ का फोन पकड़ा देता है। तो फिर सच-झूठ के फर्क का पता कैसे चले! सच-झूठ का पता करना मुश्किल तो‎ है, लेकिन एक आसान तरीका भी है। नीयत और नतीजा की दृष्टि से देखने पर सच-झूठ का पता चल जाता है। लोक-हितैषी नीयत और नतीजा से सच का पता चल जाता है। हित-विरुद्धता झूठ की पोलपट्टी खोल देती है।

कहा जाता है कि यह सत्योपरांत (Post Truth Era) युग है –सत्य का उपरांत क्या होता है! क्या सत्य के उपरांत का मतलब झूठ होता है? क्या सत्य के उपरांत जो बचता है, वही झूठ होता है? दोनों का जवाब है, ना! तो फिर सत्योपरांत क्या हो सकता है? यही तो जानना है! सत्योपरांत का मतलब तथ्य और नैतिकता को दरकिनार करके बुद्धि को भावनाओं का अधीनस्थ बनाने से जो हासिल होता है। बुद्धि को बुद्धिमत्ता से काटकर भावात्मकता से संबद्ध करना भारत के लोकतंत्र में चुनावी भाषा का कौशल है! अन्य कौशलों से अधिक यही कौशल विकसित हुआ है, यही है क्या ‘स्किल इंडिया’! विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के पास इस ‘स्किल’ की कमी दिख जाती है।

बुद्धि का मनुष्य के मनुष्य बनने में बड़ी ऐतिहासिक भूमिका रही है, आज भी है। बुद्धिमत्ता आज भी न्याय निर्णय में उपयोगी और अनिवार्य संगी है। साथ ही यह भी ध्यान में रखना ही होगा कि बुद्धिमत्ता भावात्मकता का पूर्ण निषेधक नहीं है, सप्रयोजन नियंत्रक होती है। क्योंकि मनुष्य के मनुष्य बनने में भावना का भी महत्व कम नहीं होता है।

बुद्धि विभिन्न इंद्रियों और इंद्रियातीत के साथ लगकर भावनाओं का उद्रेक करती है। भावनाओं के उद्वेग और निम्नवेग से विभिन्न इच्छाओं का जन्म होता है। बुद्धि इच्छाओं के साथ जुड़कर क्रिया को जन्म देती है। मनुष्य की क्रियाएं भौतिक परिसर में होती है। भौतिक परिसर की अपनी सीमाएं होती है। भौतिक परिसर की सीमाएं क्रियाओं को, क्रियाएं इच्छाओं को, इच्छाएं भावनाओं को, भावनाएं इंद्रियों को, इंद्रियां बुद्धि को नियंत्रित करती है। नियंत्रित बुद्धि के समक्ष ‘हाथ बांधकर’ सत्य उपस्थित होता है।

मनुष्य की बुद्धि को नियंत्रण पसंद नहीं होता है। नियंत्रण से बाहर निकलने के लिए बुद्धि सत्य को नकारती है। सत्य से जुड़े नियंत्रण को नकारने का दो तरीका है। सत्य को नकारने के लिए बुद्धि, सत्य के काल्पनिक विकल्प के रूप में झूठ गढ़ती रहती है। सत्य के काल्पनिक विकल्प को वैकल्पिक सत्य में बदलने के लिए मनुष्य ‎ बुद्धि को विवेक से जोड़कर युक्तियां खोज निकालता है। यह विज्ञान का रास्ता है। जैसे, गुरुत्वाकर्षण सत्य है, उड़ान क्षमता पहले काल्पनिक ‎सत्य और बाद में वैकल्पिक सत्य बनती है। दूसरा रास्ता है जो पुरोहितवादी पाखंड की ओर जाता है।

‘पुरोहितवादी पाखंड और वितंडा’ के प्रभाव में विवेक और बुद्धि से विच्छिन्न युक्तिहीन काल्पनिक रूप को ही सत्य का दर्जा मिल जाता है। सत्य को विश्वास विलोपित कर देता है। सत्य के विलोपित होते ही डर अपना पंख पसारता है, जैसे अंधकार होते ही वातावरण डरावना होने लगता है। डरावने वातावरण को मनोरम बनाने में रोशनी का स्रोत बनकर श्रद्धा प्रकट होती है।

श्रद्धा डर तो कम करती है लेकिन तिकड़म से उसका नाता बहुत गहरा होता है। इस तरह से विलोपित सत्य के खाली स्थान पर विश्वास, आस्था और श्रद्धा का परिवार बसता है। इसी परिवार में बहुत शानदार तरीके से मनगढ़ंत बातों का विकास होता रहता है। परिवार के रूपक से बाकी बात समझी जा सकती है। समझना बहुत मुश्किल तो‎ नहीं है कि विश्वास, आस्था और श्रद्धा का ‘परिवारवाद’ संसदीय लोकतंत्र के लिए कितना खतरनाक होता है।

मनगढ़ंत मन में रहे तो कोई बात नहीं। लेकिन ऐसा होता नहीं है। शक्तिशाली लोग अपने मनगढ़ंत को दूसरे के मन का हिस्सा बनाना चाहते हैं। इस तरह से शुरू होता है, ‘मन की बात’ का सिलसिला। जो लोग शक्तिशाली और वर्चस्वशाली लोगों के ‘मन की बात’ को अपने ‘मन का हिस्सा’ बना लेते हैं या बनाते हुए दिखा पाते हैं उनके लिए शक्तिशाली और वर्चस्वशाली लोग सुख-सुविधा का द्वार खोल देते हैं।

सुख-सुविधा की हल्की-सी ‘दस्तक’ से ही मन का कपाट खुल जाता है। कपाट खुले ही कपट के प्रवेश करने में भला क्या देर लगती है! इस तरह से समकालीन संदर्भ में आदमी ‘लाभार्थी’ में बदल जाता है। राज्य व्यवस्था ‘मतार्थी’ में बदल जाती है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ‘लाभार्थी’ सिर्फ ‘पचकेजिया मोटरी-गठरी ढोनेवाले’ ही नहीं होते हैं। ‘लेटरल इंट्री पानेवाले’ और मिली-भगत (Quid Pro Quo) जैसी विभिन्न नीतियों और परिणतियों का तसल्ली से लाभ उठानेवाले तो असली ‘लाभार्थी’ होते हैं।

इसके बाद शुरू होता है भिन्न आस्था और विश्वास के लोगों के लिए अपने झूठ को प्रश्नातीत बना देना। प्रश्न करनेवाले या वैकल्पिक विश्वास और आस्था रखनेवाले एवं उसकी बात करनेवाले को ‎’दुश्मन’ के रूप में चिह्नित करना। आस्था, विश्वास की अ-वास्तविकता को प्रश्नांकित करनेवाले ‎‘चिह्नित दुश्मन’‎ को ‘शांत’ और नियंत्रित करने, अन्याय और शोषण का शिकार बनाने, यहां तक कि जान-माल तक की क्षति पहुंचाने के लिए शुरू होती है विभिन्न योजनाएं। जोर-शोर से चल पड़ती है ‘बुलडोजर न्याय’ की तरह की ‘आदर्श सरकारी न्याय योजनाएं’।

वर्चस्वशाली लोग लोकतांत्रिक सत्ता में होने के कारण बटेर की तरह हाथ आये विवेकाधिकार (Discretionary) की शक्ति का दुष्ट इरादों से ‘दुष्ट इस्तेमाल’ करना शुरू कर देते हैं। यहां से फासीवाद के प्रारंभिक लक्षणों के प्रकट होने की शुरुआत होती है। ध्यान में होना ही चाहिए कि फासीवाद लोकतांत्रिक वातावरण में ही पलता है। झूठ से फासीवाद का क्या रिश्ता होता है! एडोल्फ़ हिटलर (20 अप्रैल 1889 – 30 अप्रैल 1945) ‎और गोएबल्स जानता था। गोएबल्स यूं ही नहीं कहा करता था, “एक झूठ को अगर कई बार दोहराया जाए तो वह सच बन ‎जाता है।”‎ ‎‘सत्ता, शक्ति और ‎‎आतंक’‎ के बल पर गोएबल्स के ‘विकसित संस्करणों’ की भारत में आज-कल बाढ़-सी आई हुई है।

ईश्वर और मनुष्य के द्वंद्व को भी समझना होगा। सभ्यता की शुरुआत से ही यह द्वंद्व सक्रिय रहा है। ई.पू. 399 में सुकरात पर अनास्था एवं नास्तिकता का आरोप लगाया। फिर से कहना जरूरी है, सुकरात के विरुद्ध लगाया गया आरोप था : ‘राज्य के देवताओं में अनास्था’। ‎‘राज्य के देवताओं’ का अर्थ और तात्पर्य इतना अ-स्पष्ट तो नहीं है! याद रहे, सुकरात को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई थी।

जूरी ने सुकरात को थोड़ा-सा हर्जाना देकर अनास्था के आरोप से मुक्त होने का विकल्प दिया गया था। सुकरात ने यह विकल्प नहीं अपनाया। सुकरात के विद्यार्थियों ने, खासकर प्लेटो ने सुकरात को वहां से दूर ले जाने का इंतजाम भी कर लिया था। सुकरात ने कानून तोड़ने से मना कर दिया। सुकरात का मानना था कि जूरी के फैसले को मानने से इनकार करने से उसका नागरिकता का अधिकार चला जायेगा।

सुकरात ने अपनी नागरिकता के अधिकार को बचाने के लिए जहर पीना भी स्वीकार कर लिया था। सजा के रूप में जहर पीने को स्वीकारने के चलते सुकरात खुद ‘जहरीला’ नहीं हो गये थे। सुकरात ने कहा था, ‘अब विदाई का समय आ गया है, मेरे लिए मरने का, तुम्हारे लिए जीवित रहने का। लेकिन हममें से कौन बेहतर स्थिति में होगा, यह ईश्वर के सिवा और कोई नहीं जानता।’ ‘राज्य के देवताओं’ के प्रति सुकरात की अनास्था की वजह मनुष्य के प्रति, नागरिकता के प्रति गहरी आस्था में थी।

‘बिगाड़ के डर से बाहर’ निकलकर किसने ईमान की बात कही! प्रेमचंद के जमाने की बात अपनी जगह। आज-कल के किस अलगू ने, किस जुम्मन ने। किस खाला ने, किसने कही! कोई भी पता लगा सकता है, नहीं क्या! तभी कबीर को याद करता हूं : सांच कहे तो मारन धावे, झूठहि जग पतियाना। सच कहने पर उसके ऊपर मार-मार कर छूटने, झूठ को पतियाने पर रोने से बल के घटने और हंसने से राम के रिसाने का जो डर कबीर के यहां है उसका सत्यापन संभव नहीं है : ‘जे रोऊं तौ बल घटै, हसौं तौ राम रिसाइ।’

आम नागरिक रोये या हंसे!‎ कबीर की दुविधा में छिपे सच को ढूंढ़ निकालना उस जमाने में भी आसान नहीं रहा होगा! आज के सच को खोज निकालना तो असंभव ही है। तभी तो, आम चुनाव के दौरान भी रोजी-रोजगार, महंगाई की मार, सिर पर चढ़ता हुआ आटे-दाल का बेहिसाब उधार जैसे जरूरी मुद्दों पर से आम मतदाताओं का ध्यान भटकाने के लिए सबसे बड़ा सहारा निर्बल के बल भगवान राम को बना लिया जाता है। भगवान के सामने आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) ‎ की तो‎ बात ही क्या!

भारतीय परिप्रेक्ष्य के संदर्भ से मनुष्य और देवता के द्वंद्व में देवता का पलड़ा शुरू से ही भारी रहा है। शायद इसलिए, अब तक लोक-हित लोकतंत्र की पक्की कसौटी नहीं बन पाया। शायद, आम चुनाव में मतदान के निर्णय की कसौटियों की भी नहीं? यह विश्वास सपाट है, यह सवाल सपाट है, शायद झूठ भी। जनता सब सुन रही है, देख रही है। चुनाव प्रचार में लग रही है झूठ की झड़ी!

उपद्रवी मुद्रा में यह कैसी आवाज! मत कह देना कल ‎आवाम को धोखेबाज, जब नतीजा आयेगा बे-आवाज! ‘चित्त के भय शून्य ‎और माथा के उन्नत होने’ की रवींद्रनाथ ठाकुर की काव्य कामना और वतन की गलियों में ‘नज़र चुरा’ के, चलने की विवशताएं सामने है। हाथ में है, जी हाथ में है, मताधिकार की ताकत। फैसले का दिन तो 4 जून 2024 को आना तय है। फिर कहें, जिन लोगों के लिए दो जून की रोटी मुश्किल है उनके फैसले का पता चार जून को लगेगा। तब तक इंतजार!

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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