लोकतंत्र में मतदान आम नागरिकों का पवित्र कर्तव्य है

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भारत में चौथे चरण का चुनाव 7 मई, 2024 का पूरा हो गया है। चुनाव प्रचार में जिस तरह की बातें सत्ता के सर्वोच्च स्तर से कही जा रही है, वह सभी के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। उन घटिया बातों का यहां शब्दशः उल्लेख करना घटियापन के प्रसार के दोष में फंसना है। फिर भी इतना कहना जरूरी है कि गंगा-जमुनी संस्कृति के विरुद्ध कथा-वाचकों के भाव-प्रवंचक प्रसंगों, गये जमाने की ‘बुढ-पुरनिया’ की भाव-भंगिमा और आज के कार्टून-फिल्मों की भावनात्मक हिंसा की शैली में लोकतांत्रिक जनता को संबोधित करना लोकतंत्र के महत्व को कम करना है। यह आम नागरिकों की लोकतांत्रिक शक्ति को अपमानजनक ढंग से कमतर आंकना है।

ऐसे में आम नागरिकों का लोकतंत्र के प्रति विश्वास घटेगा नहीं, तो क्या बढ़ेगा? ऐसे संबोधनों के प्रभाव में निश्चित ही मतदान प्रतिशत में गिराव आता है, न सिर्फ संख्यात्मक बल्कि गुणात्मक गिराव भी। मतदान प्रतिशत में गिराव के कारणों और प्रभाव पर गहनता से विचार किया जाना बहुत जरूरी है। इस बात को संवेदनशील लहजे में समझ लेना चाहिए कि ‎‘ज्ञान वंचित’‎ समय-समाज में लोकतंत्र में घटती जन-भागीदारी एक खतरनाक संकेत हो सकता है। इस संकेत पर विचार किया जाना ही पर्याप्त नहीं है, इस का उपचार किया जाना भी बहुत जरूरी है। अभी इस आम चुनाव के चार चरण बाकी हैं। देखा जाये और क्या-क्या सामने आता है, क्या-क्या देखना पड़ सकता है।

मतदान प्रतिशत का राजनीतिक विश्लेषण जोर-शोर से शुरू है। राजनीतिक विश्लेषणों में विशेषज्ञों की राय मुख्य रूप से राजनीतिक दलों के जीत-हार पर केंद्रित है। स्वाभाविक ही है। लोगों में किसी भी प्रक्रिया के परिणाम तक पहुंचने का इंतजार होता है। इस इंतजार में थोड़ी-बहुत बेसब्री भी होती है। मतदान प्रतिशत का जीत-हार से कोई सीधा और सुनिश्चित संबंध नहीं होता है। फिर भी विशेषज्ञों की पूरी टीम सामूहिक रूप से अनुमान लगाने में व्यस्त रहते हैं।

आम आदमी भी इस मामला में पीछे नहीं रहता है। सभी जगह ऐसा होता है, लेकिन बिहार में तो खासकर, जहां पांच लोग जमा होते हैं, वहां उन में से कोई एक राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषक जरूर निकल आता है। बिहार का मतदान प्रतिशत देखिये तो इसका बिहारियों की राजनीतिक रुचि से कोई तालमेल नहीं दिखेगा। ऐसे लोगों को लगता है कि ‘मतदान’ से कुछ नहीं होता है। सब कुछ पहले से ही तय होता है।

परिणाम के पहले से ही तय होने पर विश्वास करने के दो प्रमुख आधार होते हैं। एक भाग्य का लिखा और दूसरा वर्चस्वशालियों के तिकड़म की ताकत का भरोसा। संघर्षशील दो हितधारकों  में से किसी हितधारक का अपने पक्ष में पलड़े को झुकाने के लिए प्रत्यक्ष-‎अप्रत्यक्ष तौर पर संघर्ष के बाहर के किसी तीसरे गैर-हितधारक को गुप-चुप तरीके से ‎ संघर्ष  में  शामिल  कर  लेने का इंतजाम तिकड़म  कहलाता  है। जरूरी नहीं कि यह गैर-हितधारक तीसरा पक्ष किसी आमंत्रण का इंतजार करे, वह अपना स्वार्थ साधने के लिए अन-आमंत्रित ढंग से भी जगह बनाकर पूरी प्रक्रिया में अपना स्थान बना लेने में बहुत दक्ष होता है।

समाज हो, काम करने का कोई स्थान हो, कोई सार्वजनिक अवसर हो, यह तीसरा पक्ष और तिकड़म सब जगह उपस्थित रहता है। हर तरह के संबंधों में इस दृश्य-अदृश्य तीसरे पक्ष की आक्रमकता बनी रहती है। अपनी आक्रमकता से अकसर यह तीसरा पक्ष उन्नत होकर दूसरा या पहला हितधारक बन जाता है। हिंदी में दो मुहावरे बड़े लोकप्रिय हैं एक ‎‘दाल-भात में मूसलचंद’‎ और दूसरा ‎‘बेगानी  शादी  में अब्दुल्ला दीवाना’‎।

सुमधुर और स्वस्थ संबंध भी सदैव अचिह्नित ‘वो’ से आतंकित रहता है। लोकतंत्र में मतदान का बहुत महत्व है। मतदान करने के अधिकार में मतदान न करने का अधिकार शामिल है। मताधिकार की ताकत पर विश्वास न करने का अधिकार भी सुरक्षित है। भले ही जानबूझकर मतदान न करने वाले ऐसे ‘राजनीतिक विशेषज्ञों और विश्लेषकों’  की ‎ अपनी  व्यक्तिगत  रुचि  मतदान करने में  न हो और  न कोई सुनिश्चित विश्वास ही ‎मताधिकार की ताकत में हो, इन के सारे अधिकार सुनिश्चित रहते हैं, रहने चाहिए। लोकतांत्रिक प्रसंग में वैसे जो कहा जाये मतदान न करनेवाला चाहे जितना भी ‘ज्ञानी’ हो वह असल में वह होता है ‎‘दाल-भात में मूसलचंद’‎ ही।

मतदान प्रतिशत में गिरावट का संबंध दृश्य-अदृश्य रूप से सामंती स्वभाव को दरसाता है। इस बात का भी विश्लेषण किया जा सकता है कि क्यों बिहारियों की राजनीति में इतनी दिलचस्पी के बावजूद, बिहार में ‎मतदान का प्रतिशत अ-संतोषजनक रहता है, जबकि पास के राज्य पश्चिम बंगाल में मतदान का प्रतिशत संतोषजनक रहता है।

भले ही कोई हरफनमौला पत्रकार इसे ‎‘समाज शास्त्रियों’‎ का काम कहकर अपना पल्ला झाड़ ले लेकिन यह काम पत्रकारों का ही है कि वह ‎‘समाज शास्त्रियों’‎ के साथ इस प्रवृत्ति पर चर्चा करे। क्योंकि किसी विषय को सार्वजनिक विमर्श में लाने का कौशल और अवसर तो पत्रकारों के पास ही होता है! सार्वजनिक विमर्श में ‘ज्ञान’ का न आना ‘ज्ञान’ का पोथियों या ‘कुछ ज्ञानी लोगों’ तक सीमित रह जाने का कुचक्र बना देता है। अधिक-से-अधिक ‎‘परीक्षा पास’‎ करने का माध्यम बना देता है। ‎‘ज्ञान वंचित’‎ समाज की समस्याओं की कोई सीमा नहीं होती है।

कुछ खास इलाकों में मतदाताओं को मतपेटी तक पहुंचने न देने के लिए इस-उस तरह से रोके जाने की खबरें भी आती रहती हैं। मतदाताओं के मतपेटी तक पहुंचने से रोकने के अपराध पर किसी को कोई उल्लेखनीय सजा मिली हो यह जानकारी में नहीं आती है। इस मामले में कानूनी प्रावधानों को लाभ उठाने में कमजोर लोग तो वैसे ही अ-समर्थ होते हैं। मतदाताओं के अपने पक्ष के होने-न-होने का आकलन कर राजनीतिक दल जरूर कुछ-न-कुछ हो-हल्ला मचाते हैं, फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है।  

वंचित मतदाताओं के पक्ष में चुनाव आयोग को मजबूती के साथ खड़ा होना चाहिए। चाहिए तो सही, लेकिन इतना ‘बड़ा’ लोकतंत्र! इतना बड़ा चुनाव! चुनाव आयोग क्या करे, क्या न करे! क्या-क्या करे! वह बड़े-बड़े सवालों को हल करने में अधिक व्यस्त रहता है। ऐसे मालों में चुनाव आयोग की दिलचस्पी, नीयत या दायित्व की क्या बात की जा सकती है! उस के लिए तो आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) ‎ ही बे-संभाल होता है। गांव-देहात में भोज-भात के अवसर पर लपक-झपक कर रहे ‘कुकुरों’ को जितनी ‘तत्परता’ से खदेड़ दिया जाता है, उस से अधिक शायद ही कुछ होता है। इस से अधिक की उम्मीद की जाती है। की जानी चाहिए।

हां, यह ठीक है कि पूर्ण या आदर्श न्याय निष्ठता या आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) ‎के अक्षरशः या शब्दशः अनुपालन की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। इतनी छूट तो‎ चुनाव आयोग को मिलनी ही चाहिए। मिली हुई है भी। लेकिन, इस छूट का इस्तेमाल किसी लापरवाही या दायित्वहीनता का औचित्य बताने के लिए नहीं किया जा सकता है। जानबूझकर की गई लापरवाही पर नजर रखने के लिए भारत में संवैधानिक जांच और संतुलन (Check and Balance)‎ की व्यवस्था है। असल में मनुष्य की सीमा है। इसलिए मनुष्य की व्यवस्था की भी सीमा है। मनुष्य की एक बड़ी सीमा मनुष्य खुद है। मनुष्य की बनाई व्यवस्था की सीमा भी मनुष्य ही है।

पिछले दिनों पूरी दुनिया के बड़े-बड़े ‘नव-धनिकों’ के मन में लोकतंत्र के प्रति हिकारत का भाव बहुत तेजी से सक्रिय हुआ। ऐसे ‎‘नव-धनिकों’‎ को यह बिल्कुल नागवार गुजरता है कि तुलनात्मक ढंग से निर्धन और शक्तिहीन लोगों का प्रतिनिधि उन पर समानता का कोई कानून या मानदंड लागू करे, उसे शासित करे। चुने हुए जनप्रतिनिधियों और चुनी हुई सरकारों को अपने ‘धन-प्रभाव’ के इस्तेमाल से अपने पक्ष में कर लेने की अपराजेय प्रवृत्ति धन-प्रभुओं में होती है। इस प्रवृत्ति से न सिर्फ प्रतियोगी ‎‘नव-धनिकों’‎ में ‎‘गला-काट’‎ आचरण बढ़ता है, बल्कि आम नागरिकों का लोकतांत्रिक अधिकार भी निकृष्टतम अर्थों में बेमानी होकर रह जाता है।  

‎‘नव-धनिकों’‎ को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य के पास मूल धन सिर्फ मनुष्य होना होता है, मनुष्य की सब से बड़ी शक्ति भी मनुष्य होना ही होता है। तुलना करते समय यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि तुलना का लक्ष्य गुण-दोष में रूढ़ अर्थ में समानता खोजना या हीन-श्रेष्ठ का अतिरेकी मूल्यांकन न होकर उपस्थित प्रसंग में ‎जिन  के  बीच तुलना की जा  रही है उस के अंदर या  बाहर  जाकर कुछ-न-कुछ मूल्यवान ढूंढ़ लाने का होता है।

 उदाहरण के लिए तुलनात्मक रूप से लाखों की गाड़ी के सामने किसी हजार-सौ के छोटे-से पुर्जे की कीमत बहुत कम होती है, लेकिन मूल्य बहुत होता है। हजार-सौ के पुर्जे के कारण लाखों रुपये की गाड़ी बेकार हो जाती है। समझना चाहिए कि किसी अकेले की कीमत होती है और उस अकेले के प्रणाली में शामिल होने पर उसकी कीमत (Price) नहीं, उसका मूल्य (Value) उसे महत्वपूर्ण बना देता है। सभ्यता विकास की  प्रक्रिया आम आदमी के, मनुष्य मात्र के शामिल रहने से आगे बढ़ी है। लोकतंत्र सभ्यता विकास की प्रक्रिया का हिस्सा है। सीधे-सीधे सभ्यता विकास की प्रक्रिया हो या सभ्यता विकास की प्रक्रिया के अंतर्गत लोकतंत्र के विकास की बात हो, उससे मनुष्य को बे-दखल कर दिया जाये, यह नहीं हो सकता है।  

वर्तमान लोकतंत्र तो वास्तविक रूप से ‎‘नव-धनिकों’‎ का ही लोकतंत्र है। यह लोकतंत्र उन्हें और उनकी ‘धन-व्यवस्था’ को आपसी ‎‘गला-काट’‎ परिस्थिति में पड़ने और अंतर्ध्वंस से बचाने के लिए वैकल्पिक आत्मीयता का प्रबंध करता है। लोकतंत्र का यह महत्व कम नहीं है कि यह रक्त-हीन सत्ता परिवर्तन और आम नागरिकों के लिए बिना किसी बड़े हुज्जत के जीवनयापन की सुख-सुविधा का अवसर बनाता है। इस लोकतंत्र की सक्रिय उपस्थिति के अभाव में सत्ता परिवर्तन में रक्त-पात का प्रसंग जुड़ जाता है। जीवंत और स्वस्थ लोकतंत्र की अन-उपस्थिति में ‎‘नव-धनिकों’‎ की ‘धन-व्यवस्था’ ‎‘गला-काट’‎ प्रतियोगिता के घात-प्रतिघात की अंतहीन प्रक्रिया में फंस जाती है और अंततः अंतर्ध्वंस की चपेट में आने से बच नहीं पाती है।

यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इस सभ्यता के केंद्र में मनुष्य है। मनुष्य को सभ्यता के केंद्र से बेदखल करने की कोई भी कोशिश सभ्यता को ही बे-पटरी कर दे सकती है। जब सभ्यता ही बे-पटरी हो जाये तो ‎‘नव-धनिकों’‎ की ‘धन-व्यवस्था’ हो या ‘मन-व्यवस्था’ हो एक क्षण के लिए भी टिक ही नहीं सकती है।

दूसरी तरफ आम नागरिकों का जीवनयापन भी बेमतलब की हुज्जतों से भर जाता है। इसलिए वर्तमान लोकतंत्र का इतना महत्व बताया और बखाना जाता है। वर्तमान लोकतंत्र संतुलन, सामंजस्य, संतोष की व्यापक समझ, पारस्परिक सहानुभूति और नैतिक समर्पण की संधि और संघाती रेखा (Fault Line) पर टिका है। इस संधि और संघाती रेखा (Fault Line) पर बार-बार आघात विध्वंस को खतरनाक आमंत्रण देता है।

पूंजीवादी लोकतंत्र में धनिकों के कारोबार का प्राण प्रतियोगिता में बसता है और आम नागरिकों के जीवन का आधार सहयोगिता से तैयार होता है। पूंजीवादी लोकतंत्र की नकेल ‘धन-पतियों’ के हाथ में होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। ‘धन-पतियों’ की ही तरह राजनीतिक दलों में भी ‎‘गला-काट’‎ प्रतियोगिता जारी रहती है। सब से अधिक दुखद होता है इस प्रतियोगिता में राजनीतिक दलों के द्वारा आम नागरिकों की परवाह न करना।

वर्तमान लोकतंत्र को आक्रामक पूंजीवाद और राजनीतिक सर्वसत्तावाद की चपेट में पड़ने से बचाना धन-पतियों, लोकतांत्रिक नेताओं और आम नागरिकों सहित व्यवस्था के किसी भी आसन पर विराजमान हर किसी का दृश्य-अदृश्य संयुक्त कर्तव्य है। भले ही यह संयुक्त कर्तव्य अ-व्याख्यायित और अ-परिभाषित ही क्यों न हो! याद रखा जाना चाहिए कि इस संयुक्त कर्तव्य के निर्वाह में किसी प्रकार की अ-पवित्र कोताही में परमाणु संपन्न सभ्यता के विध्वंस का बीज पलता है। किसी भी हितधारक के विवेक के पासंग का चाक्रिक प्रभाव लोकतांत्रिक मिजाज को क्षतिग्रस्त कर दे सकता है।

‎‘हम भारत के लोगों’‎ को पूर्वजों की असंख्य कुर्बानियों, बलिदानों से यह लोकतंत्र हासिल हुआ है। यह हमारी पीढ़ी की अपनी कमाई नहीं है, उत्तरजीविता में मिली है। इस संविधान और लोकतंत्र को हमारे पुरखों ने अपने कठिन बलिदानों के बल पर अर्जित किया था। इस संविधान और लोकतंत्र की रक्षा करना ‎‘हम भारत के लोगों’‎ का अपने हित में निभाया जानेवाला सब से महत्वपूर्ण दायित्व है।

चुनाव में मतदान का चिंताजनक प्रतिशत सभी वर्तमान और भविष्य के हितधारकों के हितों के विरुद्ध है। किसी भी अर्थ में यदि लोकतांत्रिक चुनाव में घटती जन-भागीदारी आम नागरिकों के लोकतंत्र से निकासी का लक्षण (Withdrawal Syndrome) है तो‎ इस पर तुरत विचार और इसका उपचार किया जाना आवश्यक है। भारत की सत्ताधारी दल के राजनीतिक कौशल और उसकी ‘राजनीतिक  कौशल ‎ की प्रभावशाली रणनीति’ में संविधान और लोकतंत्र के प्रति सकारात्मक रुझान का चिंताजनक अभाव है।

ऐसा लगता है कि मीडिया और ‎‘ज्ञान वंचित’‎ समाज के अधिकतर राजनीतिक विश्लेषकों और विशेषज्ञों के मन में लोकतंत्र की राजनीति में नहीं, रुझानों की राजनीति में दिलचस्पी है। इस अर्थ में पिछले दस साल की लोकलुभावन राजनीति का असर आधुनिक ‘ज्ञान संकाय’, विश्वविद्यालय, शोध-संस्थानों, सांख्यिकीय संग्राहकों आदि का दिशा-निर्देशन बहुत हद तक बहुसंख्यकवादी ‘हिंदुत्व’ से ग्रहण करने, उसी से प्रमाणित होने के ‎बढ़े हुए रुझानों में साफ-साफ दिख रहा है।

भारत की समावेशी संस्कृति, इस के सामासिक स्वभाव के विपरीत है, यह सब। इतना ही नहीं, ‘चंद्रकांता संस्कृति’ के चिंतकों के चिंतन की मुद्रा में गर्व और गौरव का भरा हुआ भाव जाने कैसा-कैसा इशारा करता है! इन सब के मिले-जुले प्रभाव के चलते इस समय गर्व और ग्लानि का भी संतुलन बिगड़कर व्यतिक्रम का शिकार हो गया है; गर्व के विषय पर ग्लानि और ग्लानि के विषय पर गर्व का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है।

आम नागरिकों के पास इस समय मताधिकार की शक्ति है। मतदान की शक्ति के इस्तेमाल का अवसर है। इसका इस्तेमाल समझ-बूझकर अवश्य किया जाना चाहिए। स्वस्थ लोकतंत्र ‘ हम  भारत के लोगों’ का संवैधानिक हक है।

इस हक से इनकार का ‎मतलब संविधान को मानने से इनकार है। दोहराव की फिक्र किये बिना बार-बार दोहराना आवश्यक है कि संविधान और लोकतंत्र ‎‘हम भारत के लोगों’‎ का हक है। फिलहाल लोकतंत्र में मतदान आम नागरिकों का पवित्र कर्तव्य है कि समय पर सही तरीके से मतदान किया जाये। लोकतंत्र की सौ बीमारी की एक दवा है मतदान।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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