एक देश-एक चुनाव : लोकतंत्र और संघवाद पर हमला

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एक देश एक चुनाव का बिल आज 16 दिसंबर को लोकसभा में पेश होना था, लेकिन इसे टाल दिया गया है। 20 दिसंबर को सत्रावसान के पहले संभवतः इसे पेश कर दिया जाय। 12 दिसंबर को यह कैबिनेट में पास हो गया। पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता में सितम्बर 2023 में बनी समिति ने मार्च 2024 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी।

बहरहाल अभी यह बिल पारित हो जाय तब भी इसका क्रियान्वयन 2034 के पहले नहीं हो पाएगा। कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने इसकी सख्त जरूरत की व्याख्या करते हुए कहा है कि कोविंद कमेटी ने इसकी सिफारिश की है। पर यह सच नहीं है।

पूर्व चुनाव आयुक्त कुरैशी ने इस रोचक तथ्य की ओर इशारा किया है कि कोविंद कमेटी का mandate ही नहीं था कि वह इस पर विचार करे कि यह प्रस्ताव उचित है या अनुचित, बल्कि उसे इसके क्रियान्वयन के लिए विधायी और प्रशासनिक उपाय सुझाना था।

कमेटी ने 191 दिन में 18626 पेज की रिपोर्ट प्रस्तुत की। कमेटी को जो कुल 21558 सुझाव मिले, उसमें कमेटी के अनुसार 80%ने इसका समर्थन किया।

इसी तरह जिन 47 पार्टियों ने इस पर अपनी राय भेजी उसमें 32 दलों ने इसका समर्थन किया जो सब NDA से जुड़े हैं, जबकि 15 विपक्षी दलों ने इसका विरोध किया। उत्तरप्रदेश के दो प्रमुख दलों में सपा ने इसका विरोध किया है, लेकिन बसपा ने समर्थन किया है।

इसके प्रावधानों के अनुरूप राष्ट्रीय चुनावों के साथ राज्य के चुनाव होने हैं और उसके 100 दिन के अंदर स्थानीय निकायों के चुनाव होने हैं।

यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आजादी के बाद 1967 तक तो देश में कमोबेश एक साथ चुनाव होता ही था। लेकिन उसके बाद देश में ऐसी राजनीतिक परिस्थितियां पैदा हुईं कि वह संभव नहीं रह गया।

मध्यावधि चुनाव परिस्थिति के अनुरूप केंद्र तथा राज्य के लिए अलग-अलग होने लगे। क्या वे हालात जिन्होंने एक देश अनेक चुनाव को जन्म दिया था, अब पूरी तरह बदल गए हैं कि सरकार फिर 1947 से1967 तक के एक चुनाव के मॉडल को लागू करना चाहती है ?

भारत की जो संघीय व्यवस्था है, उस पर यह बहुत बड़ा कुठाराघात साबित होगा। राष्ट्रीय चुनावों के साथ अगर राज्य के चुनाव होते हैं, तो यह स्वाभाविक है कि राष्ट्रीय मुद्दे हावी रहेंगे और राज्य के तथा स्थानीय मुद्दे पृष्ठभूमि में चले जाएंगे। स्वाभाविक रूप से यह राष्ट्रीय दलों के प्रभुत्व को स्थापित करेगा तथा क्षेत्रीय और आंचलिक दल हाशिए पर चले जाएंगे।

विशेषज्ञों के अनुसार यह देश को एक तरह राष्ट्रपति शासन प्रणाली की ओर धकेलने की कवायद है। यह राज्यों की अपनी जरूरत के हिसाब से समय विशेष पर विधायिका चुनने के अधिकार का निषेध होगा।

कार्यकाल के बीच में अगर सरकार गिर गई , विधान सभा भंग हो गई, त्रिशंकु विधानसभा बन गई और कोई सरकार नहीं बन पाई, तो फिर क्या होगा ? क्या उस राज्य में विधायिका के चुनाव के लिए पूरे देश के चुनाव तक इंतजार करना पड़ेगा ?

प्रस्तावित बिल में यह कहा गया है कि उस राज्य में या तो राष्ट्रपति शासन लागू हो जाएगा और अगले लोकसभा के साथ चुनाव होगा अथवा चुनाव हो जाएगा लेकिन उसका कार्यकाल अगले लोकसभा तक ही रहेगा।

यह सब कितना अलोकतांत्रिक है, स्वतः स्पष्ट है। इसका सबसे बुरा नतीजा यह होगा कि विश्वास खो चुकी सरकार को बचाने या नई सरकार बनाने के लिए विधायकों की खरीद फरोख्त ( हॉर्स ट्रेडिंग )बहुत बढ़ जाएगी, चुने हुए विधायक हर हाल में बीच में ही मध्यावधि चुनाव से बचना चाहेंगे।

जाहिर है किसी भी राज्य में अथवा राष्ट्रीय स्तर पर मध्यावधि चुनाव की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। फिर क्या होगा ? कैसे सब चुनाव एक साथ होंगे ?

सबसे बड़ी बात यह कि चुनाव तो एक तरह लोकतंत्र का महोत्सव होते हैं जिसके माध्यम से जनता की लोकतांत्रिक भागीदारी और दावेदारी सुनिश्चित होती है। चुनावों के मौजूदा स्वरूप को खत्म करना जनता की लोकतांत्रिक भागीदारी पर हमला साबित होगा।

स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव लोकसभा विधानसभा चुनाव के 100 दिन के अंदर होने हैं। इसका मतलब दो बार तो चुनाव होने ही हैं।अर्थात लगभग 1.5 करोड़ स्टाफ को तीन महीने के अंदर फिर mobilise करना होगा। यह आसान नहीं होगा।

सबसे बड़ी बात यह है कि खर्च बचाने के नाम पर जो इसकी वकालत की जा रही है वह गलत है क्योंकि सब चुनाव एक साथ होने पर आज से तीन गुना अधिक EVM और VVPAT मशीनों की जरूरत पड़ेगी, जिससे खर्च कम होने की बजाय कई गुना बढ़ जाएगा।

लाख टके का सवाल यह है कि जो आयोग कई बार दो राज्यों के चुनाव एक साथ नहीं करवा पाता, यहां तक कि एक राज्य के चुनाव कई दौर में करवाता है, वह आखिर पूरे देश और सभी राज्यों के दो दो चुनाव एक साथ कैसे करवा पाएगा?

हिमाचल और गुजरात के चुनाव एक साथ क्यों नहीं करवाए गए ? हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड के चुनाव एक साथ क्यों नहीं हुए ?

बहरहाल अगर अभी यह बिल पारित हो जाय तब भी इसका क्रियान्वयन 2034 के पहले नहीं हो पाएगा। दरअसल कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा की पहली बैठक में एक तिथि तय की जाएगी, जिसके बाद चुनी गई विधान सभाओं का कार्यकाल इस तरह कम किया जाएगा ताकि वहां अगले लोकसभा चुनाव के साथ मतदान हो सके। इसका अर्थ यह है कि 2029 में चुनाव के बाद लोकसभा की पहली बैठक में ऐसी तिथि की घोषणा हो पाएगी।

अर्थात कोविंद कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार ऐसा चुनाव 2034 में ही हो पाएगा। प्रशांत किशोर जैसे लोगों का यह तर्क भी बेमानी है कि इससे पार्टियों और सरकारों को हमेशा जो इलेक्शन मोड में रहना पड़ता है, उससे मुक्ति मिल जाएगी। यह तर्क बेमानी है।

सच्चाई यह है कि चुनाव प्रक्रिया चाहे जैसी भी हो जाय, तमाम दल व सरकारें हमेशा ही चुनाव को केंद्र में रखकर काम करती हैं, यह उनका स्वभाव है। वन नेशन वन इलेक्शन से इसमें कोई बदलाव होने वाला नहीं है।

जाहिर है यह पूरा मामला शिगूफे बाजी अधिक है, व्यावहारिक कम। हरियाणा और महाराष्ट्र चुनावों के बाद विशेषकर चुनावों को लेकर जो अविश्वास का माहौल बना है, उससे ध्यान भटकाने की भी यह कवायद है।

मोदी 2013 से जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तभी से इसकी वकालत करते रहे हैं। देश के विभिन्न राज्यों की राजनीतिक विविधता को नकार कर सब पर चुनाव एक साथ थोपने की मंशा एक अधिनायकवादी राज थोपने की योजना का ही हिस्सा है।

विशेषज्ञों का मानना है कि इसके माध्यम से सरकार संसद में दो तिहाई बहुमत तथा पर्याप्त राज्यों में अपनी सरकार बनाना चाहती है ताकि संविधान के मौलिक ढांचे को इच्छानुसार बदला जा सके और देश पर एक चुनाव एक पार्टी शासन को थोपा जा सके।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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