दिल्ली पुलिस ने बृजभूषण शरण सिंह को पॉक्सो एक्ट से बचाने के लिए क्या-क्या किया?

अब तक यौन शौषण के सबसे महत्वपूर्ण मामले में, जिसमें बीजेपी के सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ ओलंपिक पदक विजेता महिला पहलवानों ने यौन शौषण और पॉक्सो एक्ट का मुकदमा दर्ज कराया था, का अंततः निस्तारण हो ही गया। दिल्ली पुलिस ने पॉक्सो एक्ट हटा कर मुल्जिम बृजभूषण शरण सिंह को राहत दे दी। जिस तरह से इस महत्वपूर्ण मामले में दिल्ली पुलिस जानबूझकर विलंब कर रही थी, उसे देखते हुए दिल्ली पुलिस के निष्कर्षों पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ।

जनवरी से लेकर मई तक फरियादी और पीड़िता महिला पहलवान सिस्टम से इस बात के लिए कुश्ती लड़ रहे थे कि मुकदमा दर्ज हो। आखिरकार मुकदमा दर्ज तो हुआ पर सबसे बड़ी अदालत के हस्तक्षेप के बाद। फिर चला रस्साकशी का दौर। मुल्जिम को कुछ ढील दी गई। निर्लज्जता भरी यह ढील सबको दिख भी रही थी। नतीजा, फरियादी  पीड़िता ऊब कर घर बैठ गई। अब रास्ता साफ दिखा और चार्ज शीट दायर कर पुलिस ने चैन की सांस ली। कमाल है, सरकार का इकबाल बुलंद है।

इंडियन एक्सप्रेस ने कुछ दिनों पहले कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृज भूषण शरण सिंह के खिलाफ, दो बयानों में यौन उत्पीड़न और पीछा करने का आरोप लगाने के बाद, एक पुलिस के सामने और दूसरा एक मजिस्ट्रेट के सामने, सात महिला पहलवानों में से अकेली नाबालिग ने अपने आरोपों को वापस लेने संबंधी एक खबर छापी थी।

सूत्रों के हवाले से छपी इस खबर में अंकित है कि, “17 वर्षीय पीड़िता ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत एक मजिस्ट्रेट के सामने एक नया बयान दर्ज कराया है जिसमें उसने अपने पहले बयान को बदला है।” धारा, 164 सीआरपीसी के अंतर्गत दिया गया बयान न्यायालय के समक्ष साक्ष्य माना जाता है। अब, यह तय करना अदालत का कार्य है कि 164 के तहत दिए गए किस बयान को प्राथमिकता दी जाए।

अखबार के अनुसार नाबालिग के पिता ने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि पीड़िता की वयस्कता के बारे में उन्हें संशय कब हुआ। संयोग से दिल्ली पुलिस में दर्ज प्राथमिकी और द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार नाबालिग के पिता ने कहा था कि, वह “पूरी तरह से परेशान थी और शांति से नहीं रह सकती थी….आरोपी (बृज भूषण शरण सिंह) उसे परेशान करते रहते हैं।”

शिकायत में विस्तृत रूप से यह कहा गया है कि, बृज भूषण शरण सिंह ने, “उसे कस कर पकड़कर, एक तस्वीर क्लिक करने का नाटक करते हुए, उसे अपनी ओर खींचा, उसके कंधे पर जोर से दबाया और फिर जानबूझकर.. उसके स्तनों पर हाथ फेरा।” इंडियन एक्सप्रेस ने यौन शोषण के सभी एफआईआर पर उसके उद्धरणों को देते हुए एक लंबी स्टोरी छापी थी। जिन्हें रुचि है, वे उसे पढ़ सकते हैं।

पीड़िता नाबालिग ने 10 मई को मजिस्ट्रेट के सामने मुल्जिम बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ यौन उत्पीड़न की घटनाओं का विवरण देते हुए अपना पहला बयान दर्ज कराया था। प्राथमिकी के अनुसार बृजभूषण शरण सिंह पर यौन अपराधों से बच्चों के कड़े संरक्षण (POCSO) अधिनियम की धारा 10 और IPC की धारा 354 (महिला की शील भंग करने के इरादे से उस पर हमला या आपराधिक बल), 354A (यौन उत्पीड़न), 354D के तहत मामला दर्ज किया गया था। (पीछा करना) और 34 (सामान्य आशय) जिसमें एक से तीन साल तक की जेल हो सकती है।

कानून के अनुसार, पॉस्को एक्ट की धारा 10, एक नाबालिग के खिलाफ गंभीर यौन हमले से संबंधित है जिसमें सात साल तक की जेल की सजा का प्रावधान है। POCSO अधिनियम की धारा 9, जो गंभीर यौन हमले को परिभाषित करती है, एक ऐसे व्यक्ति द्वारा बच्चे के खिलाफ यौन हमले को अपराध बनाती है जो भरोसे या अधिकार की स्थिति में है। 

सेक्शन 9(ओ) और 9(पी) गंभीर यौन हमले को परिभाषित करते हैं, “जो कोई भी, बच्चे को सेवाएं प्रदान करने वाली किसी संस्था के स्वामित्व या प्रबंधन या स्टाफ में होने के नाते, ऐसी संस्था में बच्चे पर यौन हमला करता है;”  या “जो कोई भी, किसी बच्चे के भरोसे या अधिकार की स्थिति में होते हुए, बच्चे के संस्थान या घर में या कहीं और बच्चे पर यौन हमला करता है।”

बीजेपी एमपी बृजभूषण शरण सिंह जिन पर यौन शोषण का आरोप है के खिलाफ, दिल्ली पुलिस द्वारा आरोप पत्र दायर करने की खबर है। लेकिन उनकी गिरफ्तारी नहीं हुई है और न ही उन्होंने इस अवधि में किसी अदालत के समक्ष हाजिर होकर अपनी जमानत ही कराई है। यदि कानून की बात करें तो सीआरपीसी में ऐसा कोई प्राविधान नहीं है, जिसमें आरोप पत्र देने के पहले मुल्जिम की गिरफ्तारी की ही जाए। गिरफ्तारी विवेचना का एक अंग है, जिसे पुलिस तब करती है जब उसे लगता है कि मुल्जिम भाग जायेगा या वह फरियादी पर कोई बेजा दबाव डाल कर सबूतों से छेड़छाड़ कर सकता है।

हो सकता है इस मामले में भी पुलिस को यह भरोसा रहा हो कि मुल्जिम एक जनप्रतिनिधि है और अपने रसूख के बावजूद एक भी ऐसा कृत्य नहीं करेगा जिससे फरियादी दबाव में आएगी और वह पीछे हट जाएगी। हो सकता है मुल्जिम के अच्छे चाल-चलन के कारण दिल्ली पुलिस ने सीआरपीसी के इस प्राविधान का पालन किया हो। सुप्रीम कोर्ट का भी एक निर्देश है कि जिन अपराधों में सात साल की सजा है, उसमें गिरफ्तारी न की जाय।

लेकिन गिरफ्तारी करने या न करने का निर्णय पुलिस के विवेचक पर निर्भर है। आमतौर पर आपराधिक मामले में गिरफ्तारी न करना, भले ही सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अनुसार, एक नियम हो, पर ऐसा होता अपवादस्वरूप ही है। लेकिन ऐसे मामलों में गिरफ्तारी में सोची-समझी देरी शिकायतकर्ता को दबाव में डालती है। इस तरह के संघर्ष लंबे और दर्दनाक होते हैं। जब महिलाएं ऐसे मामलों में सामने आती हैं, तो वे अपना जीवन और करियर दांव पर लगा देती हैं।

बृजभूषण शरण सिंह के मामले में गिरफ्तारी न करने का निर्णय, सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्देश के आधार पर है या किसी अन्य कारण से, यह तभी बताया जा सकता है जब चार्ज शीट और पुलिस विवेचना की पूरी जानकारी सार्वजनिक हो जाए। बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह के मामले में नाबालिग फरियादी की उम्र और उसकी वयस्कता को लेकर मीडिया में एक चर्चा यह भी है कि पीड़िता बालिग है, और यह बात उसके चाचा ने बताई थी।

पहली बात, किसी की वयस्कता का निर्धारण उसके माता, पिता, चाचा, ताऊ के बयान पर निर्भर नहीं होता है। यह निर्धारित होता है, उसके जन्म प्रमाण पत्र के आधार पर, जो अस्पताल या नगर निगम आदि से मिलता है।

दूसरी बात, जब कोई अभिलेख उपलब्ध ही न हो, तो इसका निर्धारण डॉक्टर, मेडिकल जांच के आधार पर कर सकता है और उस निष्कर्ष के आधार पर उम्र तय होती है।

अब सवाल उठता है कि जब वयस्कता निर्धारित ही नहीं थी, तो पुलिस ने POCSO एक्ट के अंतर्गत मुक़दमा कैसे दर्ज कर लिया?

इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि, प्रथम दृष्ट्या जो तथ्य सामने आए उन पर एफआईआर दर्ज कर ली गई। और यह तर्क अनुचित भी नहीं है। लेकिन POCSO एक्ट में तफ्तीश की शुरुआत ही इस बिंदु से होती है कि, पीड़िता नाबालिग है या नहीं। यदि वह नाबालिग नहीं है तो जांच के बाद पुलिस POCSO एक्ट का केस खत्म कर देती है। लेकिन यदि पीड़िता नाबालिग है तो फिर पॉस्को एक्ट में कार्रवाई की जाती है।

अब थोड़ा इस केस की क्रोनोलॉजी भी देख लें..

० 28 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट की दखल के बाद दिल्ली पुलिस मुल्जिम के खिलाफ दो मुकदमे दर्ज करती है। एक, POCSO एक्ट का, दूसरा, यौन शौषण की आईपीसी की अन्य धाराओं के अंतर्गत।

० 10 मई को पीड़िता का बयान मैजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 164 सीआरपीसी के अंतर्गत कलमबंद कराया गया।

० अब कहा जा रहा है कि पीड़िता अपने कलमबंद बयान से पलट गई है।

० फिर पहलवानों और गृहमंत्री के बीच वार्ता होती है।

० फिर यह खबर आती है कि 15 जून तक पुलिस जांच में कोई न कोई प्रभावी कार्रवाई करेगी।

० अब खबर आई है कि पुलिस ने POCSO में फाइनल रिपोर्ट, जिसे क्लोजर रिपोर्ट कहते हैं, दाखिल करेगी और आईपीसी के अंतर्गत दर्ज यौन शोषण के मुकदमे में चार्ज शीट दाखिल की है।

अब यहीं यह सवाल उठता है कि क्या जब मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 164 के अंतर्गत पीड़िता का कलमबंद बयान दर्ज कर रहे थे, तब क्या पीड़िता की उम्र उक्त बयान के समय नोट नहीं की गई थी?

बयान की शुरुआत ही पीड़िता के नाम, पिता के नाम, और उसकी उम्र के साथ शुरू होती है। उसी समय पीड़िता की वयस्कता का पता चल जाता है और उसी धारा 164 सीआरपीसी के बयान पर ही यदि पीड़िता वयस्क थी, तो पॉस्को एक्ट की धारा खत्म हो जानी चाहिए थी।

कुछ दिनों पहले यह खबर छपी थी कि पीड़ित महिला पहलवान अपने यौन शोषण से संबंधित ऑडियो वीडियो क्लिप सुबूत के रूप में दें। यह निर्देश ही हैरान करने वाला है। लगभग 90% यौन शोषण से जुड़े अपराध मुल्जिम की तय की हुई जगहों पर ही होते हैं। पीड़िता वहां अकेली होती है। पीड़िता की मनःस्थिति की कल्पना, यदि आप संवेदनशील हैं तो कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में कोई भी पीड़िता मुल्जिम के ठिकाने पर हुए इस दुष्कर्म की ऑडियो और वीडियो क्लिप कैसे बना सकती है या उसे सुबूत के रूप में रख सकती है।

गजब है, POCSO एक्ट और यौन शोषण मामले में न्यायशास्त्र और साक्ष्य अधिनियम के एक नए सिद्धांत को दिल्ली पुलिस ने कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष, बीजेपी सांसद और यौन शोषण के मुल्जिम बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ दर्ज मामले में तफ्तीश करते हुए गढ़ा है। वे हैं,

1. यौन अपराध के संभावित पीड़ितों को वास्तविक घटना के समय, यौन शोषण को सुबूत के लिए रिकॉर्ड करने के लिए हर समय बॉडी कैमरा पहनना चाहिए। गौरतलब है कि, दुनिया भर में पुलिसकर्मी पारदर्शिता के लिए बॉडी कैमरा पहनते हैं।

2. मुल्जिम का अपराध तय करने के लिए मुल्जिम के इरादे से अधिक पुलिस तफ्तीश की नीयत मायने रखती है। इसके लिए पीड़िता से अपेक्षा की जाती है कि वह अभियुक्तों को दोषमुक्त करने के लिए जितने आवश्यक हो उतने बयान देगी।

 3. एक दीर्घ आपराधिक इतिहास के अपराधी और मुल्जिम को गिरफ्तार करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसे जांच को प्रभावित करने और पीड़ितों को डराने-धमकाने के लिए अपने आदेश पर संरक्षण के सभी अवसरों और पसंद के प्लेटफार्मों का लाभ उठाने की आवश्यकता होगी।

है न मित्रों, कमाल का सिद्धांत यह !!

अक्सर न्यायालय के फैसले के लिए कहा जाता है कि फैसला न्याययुक्त तो हो ही, पर वह न्याययुक्त दिखे भी। यही सूत्र पुलिस विवेचना के लिए भी है कि पुलिस तफ्तीश नियमानुकूल तो हो ही, वह नियमानुकूल दिखे भी। यह मामला भी किसी दूर दराज गांव के थाने का नहीं, बल्कि देश की राजधानी दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस थाने में दर्ज एक महत्वपूर्ण फरियादी की एफआईआर पर, जिसमें मुल्जिम भी महत्वपूर्ण और असरदार जनप्रतिनिधि है, के खिलाफ दर्ज मामले का है।

और जब मुकदमा से लेकर थाना, फरियादी, पीड़िता और मुल्जिम सभी महत्वपूर्ण हस्तियां हैं, तो ऐसे मुकदमे की तफ्तीश पर सबकी निगाह स्वाभाविक रूप से रहेगी ही। इस पूरे घटनाक्रम में सबसे अधिक यदि किसी संस्था की साख गिरी है तो वह दिल्ली पुलिस है। इस केस में दिल्ली पुलिस की भूमिका से यह संदेश जनता में स्पष्ट रूप से गया है कि, यदि कोई मुल्जिम राजनीतिक और अन्य तरह से असरदार है तो देश की सबसे साधन संपन्न पुलिस भी उस का कुछ बिगाड़ नहीं सकती है और राजनीतिक आका पुलिस की हर तफ्तीश को अपनी भ्रू भंगिमा से नचा सकते हैं।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस हैं।)

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