मणिपुर: हजारों गोलियों पर भारी राहुल के प्रेम की एक बोली

हजारों गोलियों पर एक प्रेम की बोली भारी होती है। यह बात वो लोग नहीं समझ सकते हैं जिन्होंने पूरे जीवन में नफरत और घृणा का कारोबार किया हो। जिनका जन्म ही उस शाखा में हुआ हो जहां लोगों से नफरत और घृणा करना सिखाया जाता हो। जहां प्रेम और भाईचारे की जगह बंटवारे की दीवार खड़ी करने की ट्रेनिंग दी जाती हो। जहां मानवता को उसके उच्च शिखर पर पहुंचा कर हर इंसान की गरिमा की रक्षा करने और उसके साथ अपेक्षित सम्मान की गारंटी करने की जगह उसे धर्मों, नस्लों, जातियों, लिंगों और क्षेत्रों में बांट कर देखने और उसके अनुरूप उससे बर्ताव करने का प्रशिक्षण दिया जाता हो। 

राहुल गांधी के दौरे के बाद मणिपुर से आने वाली तस्वीरें आखिर क्या कह रही हैं? वह बता रही हैं कि पिछले 56 दिनों से हिंसा में डूबे जिस मणिपुर को अनाथ छोड़ दिया गया था उसे कितने प्यार और संवेदनशील स्पर्श की जरूरत थी। महिलाओं का राहुल गांधी के सामने फूट-फूट कर रोना और फिर गले लिपट जाना बताता है कि सत्ता ने उनको किन हालात में पहुंचा दिया है। जिन्हें बाहरी और उग्रवादी कह कर दुश्मन के ख़ेमे में खड़ा करने की कोशिश की जा रही है और उनसे डबल इंजन की सरकार बंदूकों और गोलियों से बात कर ही है, उनमें कितना अपनापन है और किस तरह से उन्हें देश की जरूरत है। इन तस्वीरों में बिल्कुल साफ देखा जा सकता है। 

हालांकि राहुल गांधी को हिंसा से पीड़ित इन हिस्सों तक पहुंचने से रोकने की सरकार ने हर चंद कोशिश की। इंफाल से 20 किमी दूर ही उनके काफिले को रोक दिया गया। लिहाजा उन्हें फिर से राजधानी लौटना पड़ा और फिर हेलीकाप्टर के जरिये वह शरणार्थी कैंपों तक पहुंचे। वहां पहुंचते ही लोगों ने उनसे लिपट-लिपट कर अपनी कहानी बयां करनी शुरू कर दी। राहुल पहले इस स्तर के राष्ट्रीय नेता हैं जिन्होंने सूबे का दौरा किया है और आम लोगों से मुलाकात की है। इसके पहले गृहमंत्री अमित शाह ज़रूर वहां गए थे लेकिन उनकी मुलाकात प्रशासन और चुनिंदा लोगों तक ही सीमित थी। राहुल के दौरे ने इस बात को साबित कर दिया है कि वहां के लोग किस बेसब्री से इस तरह की किसी पहल की इंतजारी कर रहे थे। अनायास नहीं है कि जब राहुल गांधी को रोड पर रोका जाने लगा तो महिलाएं सड़कों पर आ गयीं और उन्होंने सुरक्षा बलों के सामने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। और राहुल गांधी जिंदाबाद और पुलिस प्रशासन मुर्दाबाद के नारे लगाए।

कल राहुल गांधी के रास्ते को रोकने की जिस तरह से कोशिश की गयी उससे यह बात समझ में नहीं आती कि आखिर केंद्र सरकार क्या चाहती है? एक तरफ तो वह सर्वदलीय बैठक बुलाती है और दूसरी पार्टियों से इसमें सहयोग की अपील करती है। इस कड़ी में विपक्षी दल उसके सामने बहु-दलीय प्रतिनिधिमंडल सूबे में भेजने का प्रस्ताव रखते हैं लेकिन सरकार की तरफ से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आती है। सरकार के सिवाय प्रशासन और गोली से इतर कोई रास्ता अख्तियार नहीं करने पर अगर कोई नेता अपने स्तर पर पहल लेकर इस काम को करता है तो भला सरकार को क्यों एतराज होना चाहिए?

एक बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि बंटवारे के दौरान जब देश में हिंसा अपने चरम पर थी। और दंगों ने पूरे समाज को अपनी चपेट में ले लिया था। इस मामले में मौजूदा पश्चिमी बंगाल और बांग्लादेश की सीमा के इलाके तथा पंजाब के सरहदी क्षेत्र बुरी तरीके से प्रभावित थे। तब महात्मा गांधी ने पहल ली थी। और अपनी जान की परवाह किए बगैर वह नोआखाली में कूद पड़े थे। जहां की गलियों में रोजाना कत्ल हो रहे थे और इंसानों की लाशों से मोहल्लों के मोहल्ले पट गए थे। और हालात इस स्तर तक थे कि जब हिंसा प्रभावित इलाकों का दौरा करने के लिए गांधी अपने ठिकाने से बाहर निकले तो उन्होंने चप्पल पहनने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि रास्ते भर इंसानी खून फैला हुआ है भला वह उसके ऊपर चप्पल पहन कर कैसे जा सकते हैं? और आखिरकार गांधी के प्रेम ने लोगों को अपना हथियार डालने के लिए मजबूर कर दिया। 

और अंत में वही सुहरावर्दी जो मुस्लिम लीग के कोटे से वहां के प्रधानमंत्री थे और गांधी से पहले दिन की मुलाकात में उनके सामने मेज के ऊपर पैर रखकर बैठे थे, उन्हें भी गांधी की इस पहल के सामने झुकना पड़ा और फिर यही सुहरावर्दी अपनी सांप्रदायिक और नफ़रती राजनीति को छोड़कर गांधी के साथ बिड़ला हाउस में उनका शिष्य बन कर रहने लगे। इसी पहल का नतीजा था कि इस इलाके में बहुत जल्द ही हिंसा पर काबू पा लिया गया। जबकि पंजाब का इलाका बहुत दिनों बाद तक हिंसा में डूबा रहा। और इसी दौर में तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन का वह चर्चित बयान आता है जिसमें वह कहते हैं कि पूर्वी बंगाल की हिंसा को रोकने के लिए गांधी नाम का उनका अकेला कमांडर ही काफी है।

लिहाजा इस तरह की खून-खराबा और हिंसा की परिस्थितियों में ऐसी पहलों का क्या महत्व होता है वह ऐतिहासिक दस्तावेजों में सुरक्षित है और उसे बार-बार आजमाए जाने की भी जरूरत है। लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि केंद्र में एक ऐसी सत्ता बैठी है जिसको इन सब बातों में कोई भरोसा ही नहीं है। उसे आग अच्छे से लगाना आता है लेकिन बुझाने की उसके पास कोई तरकीब नहीं होती। नहीं तो क्या वजह हो सकती है कि पीएम मोदी इतने दिनों बाद भी मणिपुर की घटना पर खामोश हैं। क्या मणिपुर के लोग देश के नागरिक नहीं हैं या फिर उनका कोई अपना वजूद नहीं है? आखिर देश के प्रधानमंत्री होने के नाते इस सूबे के प्रति उनकी जिम्मेदारी किसी और से ज्यादा है। और ऐसी स्थिति में जबकि उसमें खुद उनकी पार्टी की सरकार है तब यह और बढ़ जाती है। लेकिन पीएम अमेरिका जाने से पहले भी कुछ नहीं बोलते हैं और लौटने के बाद भी वह ‘मेरा बूथ, सबसे मजबूत’ करने के लिए मध्य प्रदेश के दौरे पर चले जाते हैं। वह हर छोटी-बड़ी घटना पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। लेकिन मणिपुर के मामले पर उन्होंने चुप्पी साध रखी है। यहां तक कि कल केरल के एक आर्कबिशप ने मणिपुर को गुजरात के बाद उस तरह स्तर का नरसंहार ग्रस्त दूसरा सूबा करार दिया। 

अब ऐसे में अगर सूबे की सरकार अपना काम नहीं करती है। केंद्र सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है और आखिर में समर्पण की मुद्रा में आ जाती है। तो बाकी देश क्या करे? क्या वह चुप बैठा रहे? और अपने ही देश के एक हिस्से को जलते हुए देखता रहे। उसके नागरिकों की असहायता और पीड़ा पर भी वह चुप्पी साधे रहे। विपक्षी दल खामोश रहें? उनके नेता कुछ नहीं बोलें? ऐसा कैसे हो सकता है? जनता ने देश को किसी एक पार्टी और सरकार के नाम नहीं किया हुआ है। उसने पांच सालों तक सत्ता चलाने का उसे मैंडेट दिया है। और इस दौरान भी उसके नाकाम रहने पर उससे इस्तीफा मांगने का उसे अधिकार है। 

केंद्र को न सही, इतनी हिंसा और नकारे रवैये के चलते अब तक सूबे की सरकार को ज़रूर हटा दिया जाना चाहिए था और वहां एक दूसरी व्यवस्था दी जानी चाहिए थी जिससे आम नागरिकों में सरकार के प्रति भरोसा पैदा किया जा सके। क्योंकि सूबे की मौजूदा बीरेन सिंह सरकार न केवल पक्षपाती के तौर पर देखी जा रही है बल्कि उसने सभी हिस्सों का भरोसा भी खो दिया है। लिहाजा एक बार फिर वहां शांति लाने और लोगों में भरोसा कायम करने की पहली शर्त बन जाती है कि सूबे की इस नकारा सरकार के बोझ से जनता को मुक्त किया जाए। लेकिन सरकार की तरफ से ऐसी कोई पहल नहीं हुई। ऊपर से जो भी एजेंडा और कार्यक्रम तय हो रहा है उसके केंद्र में उसी बीरेन सिंह को रखा जा रहा है। ऐसे में समझा जा सकता है कि उसे जमीनी स्तर पर कितना लागू कराया जा सकेगा।

अंधेरे के इस घटाटोप में राहुल एक उम्मीद की किरण के तौर पर सामने आए हैं। वह जनता जिसने अपना पूरा भरोसा खो दिया था। रोने और अपनी पीड़ा जाहिर करने के लिए उसके पास कोई नहीं था तब राहुल ने उसे अपना कंधा मुहैया कराया है। आंसुओं के साथ पूरा गम बाहर आ जाता है। इंसान के भीतर की पीड़ा पानी की धार बन कर बहने लगती है। राहुल गांधी के साथ यह रिश्ता दो इंसानों के बीच का रिश्ता नहीं है यह सूबे का बाकी देश के साथ के रिश्ते के तौर पर देखा जाना चाहिए। कोई सूबा या फिर किसी इलाके की जनता को फौज की बंदूकों के बल पर नहीं रखा जा सकता है। प्यार की डोर ही उसे आखिरी तौर पर बांधने का जरिया बनेगी। लिहाजा राहुल गांधी के दौरे के साथ बनी उम्मीद की इस डोर को खारिज करने की जगह केंद्र सरकार को इसे पकड़ लेना चाहिए और इसके सहारे मणिपुर को एक बार फिर से अपने साथ खड़ा कर लेना चाहिए। लेकिन इससे अलग अगर केंद्र कोई रास्ता अपनाता है तो वह न केवल सूबे बल्कि पूरे देश के लिए बेहद घातक होगा।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडर एडिटर हैं।) 

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