विदेश की धरती पर देश की जगहंसाई

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रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कल विदेश की धरती पर खड़ा होकर दुनिया को बता दिया कि हम किसी भी ताकत, पराक्रम और संकल्प से ज्यादा नींबू के चमत्कार में भरोसा करते हैं। देश के अंदर अगर परचून और पनवाड़ी की दुकान को छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई बड़ा दुकानदार इस टोटके पर भरोसा करता हो। फैक्टरियों, कंपनियों और आधुनिक मालों की तो बात ही छोड़ दीजिए। लेकिन कल राफेल विमान के पहिए के नीचे नींबू के टोटके का प्रदर्शन कर राजनाथ सिंह ने बता दिया कि मोदी सरकार जेहनी तंगदिली के मामले में किसी सामान्य पनवाड़ी से भी नीचे खड़ी है। देश के रक्षामंत्री को अपने हाथों से ओम लिखना शोभा नहीं देता है। सरकार का अपना एक प्रोटोकाल होता है। और उसका प्रतिनिधित्व करने वाले शख्स से किसी भी कीमत पर उसको बनाए रखने की उम्मीद की जाती है।

अगर ये कर्मकांड इतने ही ज्यादा जरूरी थे तो सिंह को अपने साथ एक पंडित लेते जाना चाहिए था। शायद उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। लेकिन इस कर्मकांड के साथ ही राजनाथ सिंह ने देश के संविधान की भी ऐसी की तैसी कर दी। जिसमें साफ-साफ लिखा गया है कि सरकार देश में आस्था और अंधविश्वास को खत्म करने का प्रयास करेगी और उसके साथ ही समाज में वैज्ञानिक सोच और चिंतन को बढ़ावा देगी। जिस सरकार पर देश में वैज्ञानिक और आधुनिक मूल्यों पर खड़ा एक समाज विकसित करने की जिम्मेदारी थी वह खुद ही आस्था और अंधविश्वास के नाले में गोते लगा रही है।

इसके जरिये राजनाथ सिंह ने न केवल अपनी शपथ का उल्लंघन किया है बल्कि पूरे संविधान के वजूद पर भी सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। चंद मिनटों के लिए अगर सोचा जाए कि रक्षामंत्री कोई हिंदू न होकर मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध या फिर किसी दूसरे धार्मिक समुदाय से होता तब क्या होता? क्या इसके जरिये आपने विदेश की धरती पर धर्मनिरपेक्षता को तिलांजलि देने की घोषणा नहीं कर दी? क्या आपने दुनिया को यह बताने की कोशिश नहीं की कि भारत अब हिंदू राष्ट्र हो गया है और दूसरे धर्मों का दर्जा दोयम है। देश में अब संविधान नहीं बल्कि मनुस्मृति का राज चल रहा है। यह अपने तरीके से न केवल धर्मनिरपेक्ष मूल्यों बल्कि लोकतंत्र की विदाई की भी शुरुआत है। क्योंकि बगैर धर्मनिरपेक्ष रहे कोई लोकतंत्र जिंदा ही नहीं रह सकता है। वैसे भी बराबरी कहें या समानता किसी भी लोकतंत्र का पहला और बुनियादी मूल्य होता है।

दरअसल राजनाथ सिंह का यह पूरा कार्यक्रम ही आरएसएस द्वारा बनाया गया था। राजनाथ सिंह वहां रक्षामंत्री से ज्यादा आरएसएस के स्वयंसेवक के तौर पर गए थे। विजयादशमी के मौके पर भारत सरकार का यह कार्यक्रम नागपुर हेडक्वार्टर के निर्देश पर बनाया गया था। आप जानते ही होंगे कि आरएसएस की स्थापना विजयादशी के मौके पर हुई थी। और उस दिन संघ प्रमुख सार्वजनिक रूप से भाषण देने से पहले शस्त्रों की पूजा करते हैं। कल यह पूजा संघ की तरफ से राजनाथ सिंह ने ही संपन्न की। और अगर कोई घड़ी मिलाए तो इस बात की पूरी संभावना है कि राजनाथ सिंह की राफेल पूजा के बाद ही नागपुर में मोहन भागवत का भाषण हुआ होगा। बहरहाल इस पूरे प्रकरण से यह बात साबित हो गयी कि 70 सालों में लोकतंत्र की जिस मजबूत नींव पर धर्मनिरपेक्ष, आधुनिक और वैज्ञानिक मूल्यों वाला भारत खड़ा था उसकी जमीन पर अब दरकने लगी है।

शस्त्र पूजा के बाद भागवत का भाषण भी इसी सिलसिले को आगे बढ़ाता हुआ दिखा। जब उन्होंने मॉब लिंचिंग की घटनाओं की जगह उसके नामकरण पर एतराज जताया। यह प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपो में मॉब लिंचिंग का समर्थन था। यह गांधी के उस सिद्धांत के बिल्कुल खिलाफ था जिसमें वह पापी की बजाय पाप से घृणा करने की बात करते हैं। यहां तो भागवत न पाप से घृणा करते हैं और न पापी से बल्कि उसे पापी क्यों कहा जा रहा है इसी पर उनका एतराज है। इसको एक दूसरे तरीके से भी उन्होंने उचित ठहराने की कोशिश की जब यह कहा कि ये घटनाएं एकतरफा नहीं हैं बल्कि दूसरे समुदाय की ओर से भी ऐसा ही किया जा रहा है। यह संघ प्रमुख द्वारा मॉब लिंचिंग को दंगे का रूप देने की कोशिश का हिस्सा है। जिसमें जाने-अनजाने दोनों पक्षों को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। ऐसी घटनाएं जो बर्बरता की श्रेणी में आती हैं उन्हें ऐन-केन प्रकारेण उचित ठहराने या फिर उसकी वकालत करने कोशिश आदिम प्रवृत्ति की याद दिला देती है।

ऐसा शख्स जो गाय, गोबर और नींबू से आगे सोच नहीं पाता हो अगर वो अर्थव्यवस्था जैसे आधुनिक और बेहद जटिल मसले पर अपना ज्ञान देगा तो वह कुछ ऐसा ही होगा जिसे कल मोहन भागवत ने प्रदर्शित किया है। उन्होंने मंदी को सिरे से खारिज कर दिया। उनका कहना था कि जब विकास दर यानि जीडीपी जीरो पर चली जाए तभी अर्थव्यवस्था में मंदी आने की बात कही जाएगी। भागवत तो अर्थशास्त्रियों के भी अर्थशास्त्री निकले। और उसके साथ ही उन्होंने यह भी कह डाला कि इस पर बात करने से यह और बढ़ती है। लिहाजा इसकी चर्चा ही नहीं की जानी चाहिए। बिगड़ी अर्थव्यस्था से निपटने के इस बवासीरी नुस्खे ने स्वयंसेवकों की बीमारी का भले इलाज कर दिया हो। लेकिन आम जनता भी इसको मानेगी यह कह पाना मुश्किल है।

बाबा साहेब अंबेडकर ने देश के संविधान को भारत को सौंपते समय ही कह दिया था कि इस संविधान की सफलता की सबसे बड़ी कसौटी यही होगी कि उसको लागू करने वाला कौन है। लागू करने वाला अगर विध्वंसक निकला तो इसे किसी के लिए बचा पाना मुश्किल होगा। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि अगर यह अपने रास्ते से भटका तो उसको जलाने का काम करने वाले वो पहले शख्स होंगे। लिहाजा केंद्र में एक ऐसी सत्ता आ गयी है जिसने न केवल अपना जमीर नागपुर में गिरवी रख दिया है बल्कि उसने संविधान की जगह अब मनुस्मृति अपने हाथ में ले ली है। लेकिन यह बात किसी को नहीं भूलना चाहिए कि समय के साथ उसके लागू होने पर समाज में उसके नतीजे बेहद भयंकर होंगे। उसके भ्रूण संकेत अपने तरीके से मिलने शुरू हो गए हैं। और आने वाले दिनों में इसके और विस्फोटक होने की आशंका है।

(लेखक महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)

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