हिन्दी सिनेमा में ब्राह्मणवाद और दलित मुक्ति के संदर्भ

भारत में सिनेमा का इतिहास सौ साल से अधिक पुराना है। यह न केवल महंगा माध्यम है, बल्कि तकनीकी माध्यम भी है,जिसके लिए तकनीकी जानकारों और विशेषज्ञों की जरूरत होती है। इन दोनों कारणों से सिनेमा में आरंभ से ही उच्चवर्णीय लोगों का बोलबाला रहा है। फ़िल्म उद्योग में दलित और पिछड़े समुदाय के लोग हाशिए पर भी नज़र नहीं आते।

अपवाद रूप में एक-दो उदाहरण मिल सकते हैं। हिंदी के प्रख्यात गीतकार शैलेंद्र का संबंध दलित परिवार से था, लेकिन यह तथ्य बहुप्रचारित नहीं है। इसी तरह हिंदी फ़िल्मों के लंबे इतिहास में ‘मसान’ (2015) फ़िल्म का निर्देशन करने वाले नीरज गैवान दलित समुदाय से है। संपन्न और शिक्षित उच्चजातीय लोगों के वर्चस्व के कारण यह स्वाभाविक है कि जाति उत्पीड़न का प्रश्न सिनेमा के लिए कई दशकों तक महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं रहा। जब-जब जन आंदोलनों ने दलित मुक्ति के सवाल को भी अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया या जनविरोधी प्रतिक्रियावादी उभार के कारण दलितों का उत्पीड़न बढ़ा, तब-तब फ़िल्मकारों का ध्यान भी उस ओर गया।

मसलन, 1932 में जब गांधी और आंबेडकर के बीच पूना समझौता हुआ और यह पूरे देश में चर्चा का विषय बना तब फ़िल्मकारों ने दलित प्रश्न को केंद्र में रखकर कुछ फ़िल्में बनायीं। इसी तरह समांतर सिनेमा के दौर में, मंडल आयोग के दौर में और अब सांप्रदायिक ब्राह्मणवादी उभार के दौर में दलित समस्या की ओर फ़िल्मकारों का भी ध्यान गया है। लेकिन इसके बावजूद जाति का प्रश्न सिनेमा में हाशिए तक ही सीमित रहा। अगर श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘समर’ को प्रमाण मानें तो सिनेमा में काम करने वाले कलाकार और तकनीशियन भी जातिवादी पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं है।

भारत में कथा फ़िल्मों की शुरुआत 1913 में हुई थी, जब दादा साहब फाल्के ने ‘राजा हरिश्चंद्र’ नाम की फ़िल्म बनायी थी जो हिंदू पौराणिक कथा पर आधारित थी। 1913 से 1931 के दौरान बनने वाली अधिकतर मूक फ़िल्में धार्मिक, पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित होती थीं। उस दौर के फ़िल्मकारों का मानना था कि हिंदुस्तान की धर्मप्राण जनता को सिनेमाघरों तक खींच लाने का तरीका यही है कि उन्हें ऐसी कहानियां दिखायी जाएं जिनसे वे भलीभांति परिचित हों, जिनके प्रति उनकी श्रद्धा हो और फ़िल्म देखते हुए उनमें यह भाव पैदा न हो कि वे नये ज़माने की कोई बुरी चीज देख रहे हैं। पुराण कथाओं में जो चमत्कारपूर्ण घटनाएं वर्णित होती हैं, फ़िल्मों में उन्हें यथावत दिखाना मुमकिन था। आम दर्शकों ने इसे नयी तकनीक की देन समझने की बजाए ईश्वरीय चमत्कार के रूप में ही लिया और उनकी धार्मिक आस्था और मजबूत हुई। इस तरह आरंभिक फ़िल्मों ने दर्शकों की रूढ़िबद्ध चेतना के लिए कोई चुनौती पैदा नहीं की।

फिल्म राजा हरिश्चद्र

औपनिवेशिक शासन द्वारा सेंसर की व्यवस्था के कारण फ़िल्मों में स्वतंत्रता संग्राम का चित्रण करना भले ही संभव न रहा हो, लेकिन धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाने का काम फ़िल्मों द्वारा किया जा सकता था। मूक फ़िल्मों में इसकी कोई सचेत और सामूहिक कोशिश हुई हो, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता। सवाक फ़िल्मों के आरंभिक दौर में भी पौराणिक कहानियों पर फ़िल्में बनती रहीं। ‘सती सावित्री’, ‘सती अनसुया’, ‘देवयानी’, ‘द्रौपदी’, ‘सती सुलोचना’, ‘भक्त ध्रुव’, ‘भक्त प्रहलाद’ जैसी फ़िल्में बनीं और इनके द्वारा दर्शकों की धार्मिक भावना का दोहन होता रहा।

1931 और उसके बाद के दौर में कुछ ऐसी फ़िल्में भी बनीं जिनमें जातियों में बंटे समाज की आलोचनात्मक तस्वीर पेश करने की कोशिश हुई थी। सवाक फ़िल्मों का दौर शुरू होने तक भारत की आज़ादी का आंदोलन तेज हो गया था, न केवल जनता की भागीदारी बढ़ रही थी, बल्कि अब मध्यवर्ग की सीमाओं को लांघकर किसानों, मजदूरों और शिक्षित युवाओं की भागीदारी भी काफी बढ़ गयी थी। इसका असर फ़िल्मों के मिज़ाज़ पर भी पड़ा। अब कुछ जागरूक फ़िल्मकारों द्वारा सामाजिक दृष्टि से प्रगतिशील फ़िल्में भी बनने लगी थीं।

इस दौर में भक्ति आंदोलन से जुड़े भक्त कवियों और संतों पर भी कई फ़िल्में बनीं। कलकत्ता के न्यू थियेटर्स ने अपनी स्थापना के दूसरे साल ही अपनी पहली बांग्ला फ़िल्म ‘चंडीदास’ (1932) का निर्माण किया। उसके अगले साल ही ‘राजरानी मीरा’ नाम की फ़िल्म बनी। प्रभात फ़िल्म्स ने मराठी में ‘संत तुकाराम’ (1936) फ़िल्म बनायी। इन सब फ़िल्मों के द्वारा समाज सुधार का प्रगतिशील दृष्टिकोण पेश किया गया। ‘चंडीदास’ फ़िल्म के निर्देशक देवकी बोस थे। दो साल बाद न्यू थियेटर्स ने नितिन बोस के निर्देशन में इसे हिंदी में भी बनाया था। यह फ़िल्म बांग्ला भक्त कवि चंडीदास और एक धोबन रामी के बीच की प्रेमकथा पर आधारित है।

फिल्म संत तुकाराम

चंडीदास एक मंदिर में पुजारी है और रामी मंदिर में झाड़ू लगाती है। दोनों में प्रेम हो जाता है। रामी पर उसी गांव के ज़मींदार की नज़र है और वह उसे हासिल करना चाहता है, लेकिन रामी उसको ठुकरा देती है। जमींदार उसका अपहरण करवा लेता है, जिसे जमींदार की पत्नी उसके चंगुल से छुड़ा लेती है। जमींदार चंडीदास को अपने रास्ते का कांटा समझता है और मंदिर के महंत के आगे चंडीदास पर इल्जाम लगाता है कि उसके एक निम्न जाति की स्त्री रामी के साथ संबंध है। चंडीदास या तो प्रायश्चित करे या उसे दंड दिया जाए। चंडीदास प्रायश्चित के लिए तैयार हो जाता है लेकिन उसी समय घायलावस्था में रामी वहां आती है। उसकी यह दशा देखकर चंडीदास प्रायश्चित करने की बजाय वह मंदिर ही छोड़ देता है और रामी और उसके माता-पिता के साथ वहां से चला जाता है। 1933 में बनी ‘राजरानी मीरा’ में मीराबाई के जीवन के माध्यम से उन सामाजिक मर्यादाओं को जो स्त्री को पराधीन बनाते हैं, उससे मुक्ति की कोशिश को बताया गया है। इसी तरह ‘संत तुकाराम’ फ़िल्म के माध्यम से ब्राह्मणवाद की आलोचना भी की गयी है।

भक्त कवियों के साथ-साथ सीधे सामाजिक सवालों पर भी फ़िल्में बनीं। प्रभात फ़िल्म्स ने सामाजिक बुराइयों के विरोध में कई फ़िल्में बनायीं। मसलन, अनमेल विवाह पर ‘दुनिया न माने’ (1937), वेश्यावृत्ति पर ‘आदमी’ (1939), सांप्रदायिक एकता पर ‘पड़ोसी’ (1941) आदि। जिस समय ये फ़िल्में बन रही थीं, उस समय देश में आज़ादी के आंदोलन के साथ-साथ बाबा साहब आंबेडकर के नेतृत्व में दलित अपने अधिकारों के लिए भी संघर्ष कर रहे थे। इसका असर भी फ़िल्मों पर दिखायी दे रहा था।

1936 में ही बोंबे टॉकीज ने ‘अछूत कन्या’ नामक फ़िल्म बनायी थी। इसमें एक ब्राह्मण युवक प्रताप (अशोक कुमार) और दलित युवती कस्तुरी (देविका रानी) के बीच प्रेम को कहानी का विषय बनाया गया है। जाहिर है कि उच्च वर्ग ऐसे प्रेम को और उसकी विवाह में परिणति को स्वीकार नहीं करता इसलिए दोनों की शादी अपने-अपने समाजों में ही होती है। लेकिन उन दोनों के जीवन में बहुत कुछ ऐसा घटित होता है कि अंतत: अपने पति और प्रेमी का जीवन बचाने के लिए कस्तुरी को अपने जीवन का बलिदान देना पड़ता है।

1940 में एक और फ़िल्म ‘अछूत’ नाम से बनी थी, जिसमें एक दलित कन्या लक्ष्मी को एक उच्चवर्णीय व्यक्ति पाल-पोस कर बड़ा करता है। लेकिन लक्ष्मी जब उसी लड़के से प्रेम करने लगती है जिससे उसकी अपनी बेटी प्रेम करती है तो उसे वापस अपने दलित पिता के यहां भेज दिया जाता है। कहानी यहां से मोड़ लेती है और लक्ष्मी अपने बचपन के मित्र रामू के साथ मिलकर गांव के मंदिर में दलितों के प्रवेश के लिए आंदोलन करती है। लक्ष्मी को जेल हो जाती है और रामू बीमार होकर मर जाता है। लेकिन इस आंदोलन के कारण गांव के मंदिर के दरवाजे दलितों के लिए भी खुल जाते हैं। ये दोनों फ़िल्में दलित उत्पीड़न को कहानी का विषय तो बनाती है लेकिन इन पर आंबेडकर से ज्यादा गांधी की विचारधारा का ही असर नज़र आता है। इन फ़िल्मों का संदेश यह था कि जन्म से न कोई बड़ा होता है और न छोटा। जिन्हें जाति से छोटा समझा जाता है वे भी इंसानियत में उनसे बड़े हो सकते हैं जो अपने को जाति से उच्च समझते हैं।

1940 के बाद दो दशकों तक सीधे तौर पर दलित समाज पर कोई उल्लेखनीय फ़िल्म हिंदी में नहीं बनीं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हिंदी फ़िल्में जातिप्रथा पर कोई दृष्टिकोण पेश नहीं करती। सतही तौर पर हिंदी का लोकप्रिय सिनेमा जाति आधारित ऊंच-नीच के भेद को अस्वीकारता नज़र आता है। “ठाकुर साहब हम गरीब हैं तो क्या, हमारी भी इज्ज्त है”। 1960-70 के दशक में हर दूसरी-तीसरी फ़िल्मों में इस तरह के संवाद सुनने को मिलते थे। लेकिन यह भी सच्चाई है कि उच्चवर्गीय अहंकार का भौंडा प्रदर्शन भी हम फ़िल्मों में देखते हैं। ‘रेशमा और शेरा’ (1971), ‘राजपूत’ (1982), ‘क्षत्रिय’ (1993) और इस तरह की कई फ़िल्मों में इस श्रेष्ठता को विषय बनाया गया है। “हम ठाकुर हैं जान दे देंगे लेकिन किसी के सामने सिर नहीं झुकायेंगे”, “ब्राह्मण की संतान होकर तूने यह कुकर्म किया”, “एक सच्चा राजपूत ऐसा कर ही नहीं सकता”।

हिंदी फ़िल्मों में आमतौर पर पुलिस का बड़ा अधिकारी या सेना का बड़ा अफसर राजपूत जाति का दिखाया जाता है। अगर हम थोड़ा ध्यान दें तो हिंदी फ़िल्में जातियों का उल्लेख किए बिना ही उच्च वर्ण की श्रेष्ठता और उनके दृष्टिकोण को स्वीकार करके चलती है। इसके पीछे वही गर्व भावना छुपी है जो “गर्व से कहो हम हिंदू हैं” के पीछे है। ऐसा मानना तभी संभव होता है जब हम यह मानें कि हिंदू होना कुछ और होने (मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि) से ज्यादा श्रेष्ठ है। इसी तरह जब ब्राह्मण या राजपूत होने को महिमामंडित किया जाता है तो इसका अर्थ यह भी है कि जो ब्राह्मण या राजपूत नहीं है, यानी जो सवर्ण हिंदू नहीं है, वह श्रेष्ठ कहलाने का अधिकारी भी नहीं है।

फिल्म क्षत्रिय

हिंदी फ़िल्में जाति संदर्भ की उपेक्षा करते हुए भी नायक-नायिका की कुलीनता और रक्त श्रेष्ठता को प्रबल ढंग से रखती हैं। राजकपूर की ‘आवारा’ जो ऊपरी तौर पर कुलीनतावाद और रक्त श्रेष्ठता के विचार का विरोध करती नज़र आती है, लेकिन अपने निहितार्थ में वह इन्हीं के पक्ष में खड़ी दिखायी देती है। जज रघुनाथ (पृथ्वीराज कपूर) अपनी गर्भवती पत्नी भारती (लीला चिटनिस) को इसलिए त्याग देता है कि जग्गा नामक एक अपराधी के यहां उसे एक रात बितानी पड़ी थी। रघुनाथ ने जग्गा (के एन सिंह) को चोरी के इल्जाम में जेल भेज दिया था, लेकिन साथ ही फैसला सुनाते हुए यह नस्लवादी सिद्धांत भी पेश किया था कि व्यक्ति अच्छा या बुरा जन्म से ही होता है। जग्गा इसलिए बुरा नहीं है कि वह हालात से मजबूर होकर बुरे कर्म करता है, बल्कि वह जिस परिवार में पैदा हुआ है वह ही बुरा है। जज रघुनाथ का बेटा राज (राज कपूर) का पालन पोषण मजबूरीवश झुग्गी बस्तियों में होता है और बुरी संगत के कारण अपराधी बन जाता है, अंतत: अपने पिता द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है जबकि जग्गा और उस जैसे गरीब लोग उसी नरक में जीने और मरने के लिए छोड़ दिये जाते हैं।

राज कपूर की ही आठवें दशक में बनी फ़िल्म ‘धरम-करम’ का नायक भी “नीच” लोगों के बीच रहकर भी अपना “धरम-करम” बचाये रखता है तो इसका कारण यह है कि वह उच्च कुल का है। फ़िल्म ‘राम बलराम’ में खलनायक अपने को ठाकुर परिवार से उत्पन्न मानता है, लेकिन उसका उच्च कुल का होना आरंभ से ही संदिग्ध बना दिया जाता है। अंत में यह साबित किया जाता है कि दरअसल खलनायक का ठाकुर परिवार से कोई रक्त संबंधी रिश्ता नहीं है। खलनायक जिस वेश्या की कोख से उत्पन्न हुआ है उसका संबंध किसी नीच कुल के व्यक्ति से रहा है। खलनायक का रक्त संबंध उसी से है। निष्कर्ष यही है कि अगर खलनायक उच्च कुल का होता तो ऐसे कुकर्म कदापि नहीं करता।

भारतीय समाज का सामंती ढांचा सश्लिष्ट जातिवादी संगठन पर आधारित है और जिसे तोड़ने में वह असफल रहा है। कुलीनता और रक्त की श्रेष्ठता का भाव उसका सहज परिणाम है। इसलिए फ़िल्में भले ही सीधे-सीधे जातिगत आधारों का उपयोग न करती हो, लेकिन लोगों की जातिगत धारणाओं को पुष्ट करने में मदद पहुंचाती रही है। इसे एक अन्य रूप में भी देख सकते हैं। हिंदी फ़िल्में लगभग उन सभी सामाजिक मूल्यों और परंपराओं को महिमामंडित करती हैं जो सवर्णपरस्त ब्राह्मणवादी प्रभाव का परिणाम हैं। मसलन, स्त्री के सतीत्व और पातिव्रत्य के प्रतीक चिन्हों (मांग में सिंदूर भरना, मंगलसूत्र पहनना, करवा चौथ का व्रत रखना आदि) को अधिकाधिक प्रदर्शित करना, स्त्री की स्वतंत्र पहचान की बजाए, मां, बेटी, बहू, बहन आदि रिश्तों को केंद्र में रखकर उनका चरित्र निर्मित करना, इसके विपरीत चरित्र वाली स्त्री को खलनायिका के रूप में दर्शाना, यह हिंदी फ़िल्मों के लोकप्रिय फार्मूले रहे हैं।  

1950-60 के दशक में कुछ फ़िल्में ऐसी भी बनीं जिनका सीधे तौर पर संबंध ब्राह्मणवादी परंपरा और जाति समस्या या दलित प्रश्न से नहीं था, लेकिन जिनमें उठाये गये सवालों का संबंध दलित समाज से सबसे ज्यादा है। इस दृष्टि से ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘बूट पालिश’, ‘जागते रहो’ और ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ‘दो बीघा ज़मीन’ (1953) का संबंध एक गरीब किसान परिवार से है जिसकी ज़मीन ज़मींदार के पास गिरवी रखी हुई है और वह उसको छुड़ाने की स्थिति में नहीं है। ज़मींदार उस पर दबाव डालता है कि वह उसे ज़मीन बेच दे। लेकिन वह उसके लिए तैयार नहीं होता। कर्ज चुकाने के लिए वह कलकत्ता जाकर रिक्शा चलाता है, लेकिन तय समय के अंदर वह कर्ज नहीं चुका पाता और ज़मीन उससे छीन ली जाती है। वह किसान से मजदूर बन जाता है। ‘दो बीघा ज़मीन’ के किसान का नाम शंभु महतो (बलराज साहनी) है। ‘गोदान’ का नायक होरी भी महतो होता है। महतो दलित नहीं है, लेकिन सवर्ण भी नहीं है। बिमल राय ने यह फ़िल्म वर्गीय दृष्टि से बनायी है, लेकिन ज़मीन की जिस समस्या को उठाया है, वह सबसे ज्यादा गरीब, पिछड़े और दलित किसानों की ही है।

1954 में बनी ‘बूट पालिश’ का संबंध भी दलित वर्ग से है हालांकि इसमें भी जाति का उल्लेख नहीं है। इस फ़िल्म का संबंध समाज के उस वर्ग से है जिनमें सबसे ज्यादा संख्या दलितों की है। फ़िल्म में उन लोगों के जीवन को प्रस्तुत किया गया है जो शहरों और महानगरों की झुग्गी बस्तियों में रहते हैं और अपना जीवनयापन छोटा-मोटा काम करके या भीख मांगकर करते हैं। यह ऐसे दो बच्चों की कहानी है जिनकी मां हैजे से मर गयी और पिता को काले पानी की सजा हो गयी है। दोनों बच्चों का पालन-पोषण करने वाली चाची बच्चों से भीख मंगवाती है। लेकिन उसी बस्ती में रहने वाले जॉन चाचा (डेविड) ने उन्हें सिखाया है कि भीख मांगना बुरा है, मेहनत की रूखी-सूखी रोटी कहीं ज्यादा अच्छी है।

इसी तरह ‘जागते रहो’ (1956) का किसान जो मजदूरी की तलाश में शहर आया है और एक बड़े भवन में पानी की आस में घुस जाता है। एक जातिवादी समाज में जैसे दलित के लिए पीने का पानी तक आसानी से उपलब्ध नहीं होता क्या इस किसान की स्थिति भी ठीक वैसी ही नहीं हैॽ ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ (1957) का मजदूर हरी जिसे उस अपराध के लिए जेल में बंद कर दिया गया है जिसे उसने किया ही नहीं। गरीबी, बेकारी और कर्ज में फंसा एक मजदूर जिसके घसीटा और मसीटा जैसे जेबकतरे दोस्त हैं, उसके दलित होने में क्या कोई संदेह हैॽ छठे दशक की ये फ़िल्में जो कई मायनों में क्लासकीय दर्जा हासिल कर चुकी हैं, समाज के उस वर्ग की कहानी कहती है दलित समाज जिसका अटूट हिस्सा है।

विमल राय ने 1959 में दलित समस्या पर ‘सुजाता’ फ़िल्म बनायी। फ़िल्म दरअसल दलित यथार्थ पर आधारित नहीं है बल्कि दलितों के प्रति सवर्णों के रवैये को कहानी का आधार बनाया गया है। दलित प्रश्न को इस दृष्टि से देखने का अपना महत्त्व है क्योंकि जातिगत भेदभाव के लिए और जातिवाद की समाप्ति के लिए सबसे जरूरी यह है कि सवर्ण हिंदू अपने उच्च होने के अहंकार का त्याग करे और दलित को न केवल इंसान समझे बल्कि उनके साथ रोटी-बेटी का संबंध भी बनाए।

फिल्म सुजाता

सुजाता की कहानी कुछ इस प्रकार है: पेशे से इंजीनियर बंगाली ब्राह्मण उपेंद्रनाथ चौधरी उर्फ उपेन बाबू (तरुण बोस) और उनकी पत्नी चारु (सुलोचना) को अपने अछूत नौकर की बेटी सुजाता का पालन-पोषण करना पड़ता है। उनकी अपनी भी एक बेटी है, रमा जो सुजाता की हमउम्र है। चारु में सुजाता को लेकर हमेशा द्वंद्व बना रहता है। अपने ब्राह्मण संस्कारों के कारण वह सुजाता को अपने से दूर करना चाहती है जबकि उसका मातृ हृदय उसे अपनाना चाहता है। इसके विपरीत उपेन बाबू इस तरह के छुआछूत और ऊंच-नीच की धारणा को ठीक नहीं समझते।

पति-पत्नी के विरोधी दृष्टिकोण की वजह से जहां एक ओर सुजाता को उस घर में आश्रय मिल जाता है वहीं उसे वह सबकुछ नहीं मिलता जो रमा को सहज ही मिल जाता है। उपेन बाबू की बुआ (ललिता पवार) जो छुआछूत को बहुत मानती है और अपने भाई के घर पर किसी दलित स्त्री का रहना उचित नहीं मानती उसीका बेटा अधीर (सुनील दत्त) सुजाता (नूतन) से प्रेम करने लगता है जबकि चारु अपनी बेटी रमा (शशिकला) का विवाह अधीर से करना चाहती है। रमा को मालूम है कि अधीर सुजाता से प्रेम करता है और उसे उनके प्रेम से कोई समस्या नहीं है। इसी दौरान सुजाता को चारु बता देती है कि वह एक अछूत माता-पिता की संतान है। वह अपने को अधीर से अलग करने की कोशिश करती है, लेकिन अधीर स्पष्ट घोषणा कर देता है कि वह शादी करेगा तो सुजाता से ही। चारु को इस बात से बहुत धक्का लगता है और वह गुस्से में अपने को संभाल नहीं पाती और सीढ़ियों से गिर जाती है। उसकी जान बचाने के लिए सुजाता अपना खून देती है क्योंकि घर में किसी और का खून चारु से नहीं मिलता। जब चारु को मालूम पड़ता है कि सुजाता ने अपना खून देकर अपनी जान बचाई है तो उसे अपनी भूल का एहसास होता है और वह अधीर और सुजाता की शादी के लिए तैयार हो जाती है। इस तरह फ़िल्म एक ब्राह्मण लड़के और एक दलित लड़की के विवाह के साथ समाप्त हो जाती है।

इस फ़िल्म में सुजाता को छोड़कर शेष सभी प्रमुख पात्र उच्च जाति (ब्राह्मण) के हैं। उच्च जाति के ये पात्र तीन पीढ़ियों के हैं। सबसे पुरानी पीढ़ी की बुआजी। वह पुरी तरह से जातिवादी संस्कारों से बंधी स्त्री है।

बुआजी अछूतों को घर में रखना तो दूर, उनकी छाया भी अपने ऊपर पड़ जाने को पाप समझती है। दूसरी पीढ़ी के उपेन बाबू और चारु हैं। उपेन बाबू का दृष्टिकोण ज्यादा प्रगतिशील और मानवीय है। सुजाता को अपना लेने के बाद वह उसके साथ किसी तरह के भेदभाव को उचित नहीं समझते और अपने इसी व्यवहार के कारण वह सुजाता के प्यार और श्रद्धा के हकदार भी बनते हैं। इसके विपरीत चारु अधिक रूढ़िवादी और संस्कारी स्त्री है। उसका दृष्टिकोण बुआजी जितना निष्ठुर और नफरत से भरा नहीं है। फिर भी, वह सुजाता को सहजता से अपना नहीं पाती। तीसरी पीढ़ी रमा और अधीर की है। रमा एक खुले विचारों वाली युवा लड़की है जिसने सुजाता को सहज रूप से अपना लिया है। उसके लिए इस बात का कोई महत्त्व ही नहीं है कि सुजाता किसकी बेटी है और किस जाति की है। उसने उसे अपनी बहन मान लिया है और उसकी यह भावना शुरू से अंत तक अक्षुण्ण बनी रहती है। अपने कालेज में वह रवींद्र के गीतिनाट्य ‘चंडालिका’ में चंडालिका की भूमिका निभाती है। अधीर भी नयी पीढ़ी का जागरूक युवा है। उसके कमरे में रवींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी और विवेकानंद की तस्वीरें लगी है। इससे उसके प्रगतिशील वैचारिक दृष्टिकोण को समझा जा सकता है।

‘सुजाता’ दलित समस्या की विकरालता और भयावहता के उन जटिल रूपों को नहीं छूती जिनके बिना इस समस्या को पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता। ‘सुजाता’ में दलित प्रश्न काफी हद तक एक सवर्ण परिवार की निजी और नैतिक समस्या के रूप में सामने आता है। फ़िल्म में सुजाता का दलित होना इस अर्थ में बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं छोड़ता क्योंकि उसका पालन-पोषण एक ब्राह्मण परिवार में हुआ है। फिल्म कुछ ऐसा कहती प्रतीत होती है कि सुजाता तो वैसे भी जन्मना ही दलित है अन्यथा ब्राह्मण परिवार में पालन-पोषण होने के कारण वह तो ब्राह्मण ही है। इसका अर्थ यह भी निकलता है कि दलित अगर सवर्णों के संस्कार अपना ले तो वे समाज में स्वीकार्य हैं। प्रकारांतर से यह कहना ब्राह्मणवाद की श्रेष्ठता को स्थापित करना है।

फ़िल्म में जिन अन्य दो दलित पात्रों को दिखाया गया है उससे इसका आभास भी होता है। एक वह व्यक्ति जो फोकट में सुजाता को अपनाने के लिए तैयार नहीं है और जो शराब के नशे में धुत रहता है। दूसरा वह दुहाजु जो सुजाता से शादी करना चाहता है। निश्चय ही इन दोनों की तुलना में सुजाता काफी अलग नज़र आती है। उसके संस्कार और व्यवहार वैसे ही होते हैं जैसे उपेन बाबू के परिवार के अन्य लोगों के। ‘सुजाता’ जैसी फ़िल्मों के प्रगतिशील सोच की यह सीमा भी है।

भारतीय समाज में निहित जटिलताओं को कहीं ज्यादा सूक्ष्मता से चित्रित उन फ़िल्मकारों ने किया है जिन्होंने यथार्थवादी परंपरा से अपने को जोड़ा है। 1970 के लगभग भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद की जो नयी लहर उभरी उसने दलित समाज की समस्याओं को भी अपना विषय बनाया। श्याम बेनेगल ने आरंभ से ही इस ओर ध्यान दिया है। ‘अंकुर’ (1973), ‘मंथन’ (1976) और ‘समर’ (1998) में उन्होंने दलित समस्या को अपनी फ़िल्मों का विषय बनाया है। इसी तरह मृणाल सेन की ‘मृगया’ (1976), गोविंद निहलानी की फ़िल्म ‘आक्रोश’ (1980), सत्यजित राय की फ़िल्म ‘सद्गति’’ (1980), गौतम घोष की फ़िल्म ‘पार’ (1984), प्रकाश झा की फ़िल्म ‘दामुल’ (1984), अरुण कौल की फ़िल्म ‘दीक्षा’ (1991) और शेखर कपूर की फ़िल्म ‘बैंडिट क्वीन’ में भी किसी न किसी रूप में हम दलित यथार्थ का चित्रण देख सकते हैं। ये फ़िल्में दलितों के सवाल को व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखती हैं। इनमें न तो वर्गीय शोषण के सवाल को ही मूल सवाल मानकर सामाजिक उत्पीड़न के सवाल को छोड़ दिया गया है और न ही सामाजिक अन्याय के प्रश्न की आड़ में आर्थिक सवालों की उपेक्षा की गयी है।

फिल्म समर

‘अंकुर’ फ़िल्म में दलित स्त्री की आर्थिक पराधीनता का लाभ उठाकर उसका शारीरिक शोषण करने वाले जमींदार के खिलाफ फ़िल्म में व्यक्त गुस्सा किसी विद्रोह में परिणत नहीं होता लेकिन एक छोटे बच्चे द्वारा ज़मींदार के घर पर पत्थर फेंकना उस भविष्य की ओर जरूर संकेत करता है, जब दलित इस तरह के शोषण के विरुद्ध उठ खड़े होंगे।

‘मंथन’ में सहकारिता का आंदोलन दलित समाज में जागरूकता का वाहक बनकर आया है। प्रेमचंद की इसी नाम की कहानी ‘सद्गति’ उच्च जातियों द्वारा बेगारी के माध्यम से दलितों के शोषण की कथा कहती है। यह फ़िल्म दलितों की एकता और दमन के खिलाफ संकल्प के साथ खड़े होने की ताकत का भी चित्रण करती है। श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘समर’ शहरी आधुनिकतावादी होने का दावा करने वाले सवर्णों में भी जातिवाद किस तरह अंदर तक बैठा हुआ है, उसका अत्यंत प्रभावशाली चित्रण करती है।

1990 के दशक में जब प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की तो आरक्षण के विरोध में देश भर में आंदोलन खड़ा हो गया। लेकिन राजनीतिक पार्टियों के लिए आरक्षण का विरोध करना संभव नहीं था, और न ही फ़िल्मकारों के लिए आरक्षण के विपक्ष में फ़िल्म बनाना संभव था। लेकिन इस पूरे दौर में ऐसा कोई फ़िल्मकार सामने नहीं आया जो आरक्षण के पक्ष में फ़िल्म बनाये। लगभग दो दशक बाद प्रकाश झा ने जरूर आरक्षण पर ‘आरक्षण’ (2011) के नाम से फ़िल्म बनायी थी। ‘आरक्षण’ लोकप्रिय विधा में बनी एक साधारण फिल्म है।

यह फ़िल्म बनाने के वक्त तक प्रकाश झा ‘दामुल’ और ‘परिणति’ की परंपरा को बहुत पीछे छोड़ आये थे। विवादास्पद मुद्दों पर फ़िल्में बनाने के बावजूद रचनात्मकता के लिए खतरा उठाने की प्रवृत्ति उनमें नहीं हैं। यह ‘गंगाजल’ (2003), ‘राजनीति’ (2010), आदि फ़िल्मों से भी स्पष्ट है। निश्चय ही उक्त दोनों फ़िल्मों की अपेक्षा प्रकाश झा की यह फिल्म अधिक सुलझी हुई और कम समझौतापरस्त है लेकिन है यह एक व्यावसायिक फ़िल्म ही।

यदि फ़िल्म के केंद्रीय चरित्र प्रभाकर आनंद (अमिताभ बच्चन) के नज़रिये को फ़िल्म का नज़रिया माना जाये तो यह फ़िल्म आरक्षण का न सिर्फ समर्थन करती है बल्कि प्रकारांतर से निजी शिक्षा संस्थाओं में आरक्षण लागू किये जाने का प्रस्ताव भी करती है। खुद प्रकाश झा की पहले की फ़िल्मों के विपरीत इस फ़िल्म का नायक एक दलित है और खलनायक एक सवर्ण। फ़िल्म का पूर्वार्द्ध आरक्षण के मुद्दे पर केंद्रित है इसलिए आरक्षण से जुड़े तर्क चाहे वे पक्ष के हों या विपक्ष के, विभिन्न पात्रों के माध्यम से सामने आये हैं। इसके साथ ही आरक्षण विरोधी सवर्णों की दलितों और पिछड़ी जातियों के प्रति घृणा और नफ़रत भी उजागर होती है।

फिल्म आरक्षण

इसे मुख्य रूप से मिथिलेश सिंह (मनोज वाजपेयी) के माध्यम से दिखाया गया है जो उसी निजी कॉलेज का वाइस प्रिसिंपल है जिसके प्रिसिंपल प्रभाकर आनंद है। प्रभाकर आनंद भी सवर्ण हैं लेकिन वे दलितों और पिछड़ों के विरोधी नहीं हैं। इसके विपरीत वे हमेशा उनकी मदद के लिए तत्पर रहते हैं। वे जातिवाद में विश्वास भी नहीं करते इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उन्हें अपनी इकलौती बेटी के एक दलित से प्रेम करने पर किसी तरह का विरोध नहीं है। यही नहीं फ़िल्म इसे समस्या के रूप में भी नहीं प्रस्तुत करता। आरक्षण विरोधी सवर्णों का जबाब फ़िल्म के दलित नायक दीपक कुमार (सैफ अली खान) की तरफ से दिलवाया गया है। दीपक कुमार के जबाब भी वे ही हैं जो दलित बुद्धिजीवियों और जातिवाद विरोधी प्रगतिशीलों द्वारा दिये जाते रहे हैं।

इस दृष्टि से देखें तो इस सारी बहस में दीपक कुमार वैचारिक दृष्टि से अधिक प्रभावशाली दिखाया गया है। इस फिल्म का नाम आरक्षण जरूर है लेकिन यह फिल्म आरक्षण की समस्या तक सीमित नहीं है बल्कि इसका केंद्रीय मुद्दा शिक्षा का बढ़ता व्यावसायीकरण है। फ़िल्म की सीमा यह है कि वह दलित यथार्थ के उन पहलुओं की पूरी तरह उपेक्षा करती है जिनके बिना आरक्षण के सवाल को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं समझा जा सकता है और न ही सत्ता के वर्गीय चरित्र को समझे बिना शिक्षा के व्यवसायीकरण को समझा जा सकता है। ‘आरक्षण’ दरअसल इन गंभीर मुद्दों का व्यावसायिक इस्तेमाल करने की एक कोशिश कही जा सकती है।

1990 के दशक में दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक उभार ने ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी जिसकी वजह से दलितों पर हमले बढ़ते चले गये। अंतरजातीय और अंतरगोत्रीय विवाह को रोकने के नाम पर उत्तर-पश्चिम भारत में जाति आधारित खाप पंचायतें सक्रिय होने लगीं और ‘ऑनर किलिंग’ के नाम पर युवाओं की हत्या होने लगीं। कुछ फ़िल्मकारों ने इनको लेकर फ़िल्में भी बनाने का साहस दिखाया। ‘आक्रोश’ (2010), ‘खाप’ (2011), ‘गुड्डू रंगीला’ (2015), ‘धड़क’ (2018) आदि में इसी विषय को उठाया गया था। नीरज गैवान की फ़िल्म ‘मसान’ (2015) में भी सवर्ण और दलित के बीच के प्रेम को कहानी का विषय बनाया गया है। ‘मसान’ फ़िल्म में दो कहानियां समांतर चलती है जिसमें एक डोम जाति के इंजीनियर युवक दीपक कुमार (विक्की कौशल) और उच्च वर्णीय शालु गुप्ता (श्वेता त्रिपाठी) की प्रेम कहानी भी है। शालु यह जानते हुए कि जिस लड़के से प्रेम करती है, वह जाति का डोम है, फिर भी वह पीछे नहीं हटती। ‘ऑनर कीलिंग’ पर बनने वाली अधिकतर फ़िल्में लोकप्रिय विधा में बनी हैं, इसलिए इस प्रश्न को जितनी गंभीरता से लिया जाना चाहिए उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया है।

फिल्म मसान

इस दृष्टि से मराठी में बनी फ़िल्म ‘सैराट’ ज्यादा प्रभावशाली है जिससे प्रेरित होकर हिंदी में ‘धड़क’ बनी थी। मराठी में बनी सैराट (2016) एक मछुआरे युवक प्रशांत काले (आकाश थोसर) और उच्च जाति (पाटिल) की युवती अर्चना (रिंकु राजगुरु) की प्रेम कहानी है। अर्चना और प्रशांत एक ही कॉलेज में साथ-साथ पढ़ते हैं और उनमें आपस में प्रेम हो जाता है। अर्चना के पिता तात्या पाटिल (सुरेश विश्वकर्मा) जो गांव के धनी और शक्तिशाली व्यक्ति हैं, जब उन्हें  इस बात की जानकारी मिलती है कि एक गरीब मछुआरे का बेटा उनकी बेटी से प्रेम करता है तो उसके साथ जबर्दस्त मारपीट की जाती है, उसके घर वालों को डराया-धमकाया जाता है, यहां तक कि उसकी हत्या करने की कोशिश की जाती है।

फिल्म सैराट

अर्चना को भी घर में कैद कर लिया जाता है। लेकिन एक दिन वह अपने प्रेमी के साथ घर से भाग जाती है। दोनों का पीछा किया जाता है लेकिन किसी तरह बचते-बचाते वे दोनों हैदराबाद पहुंच जाते हैं। जीवनयापन के लिए उनके पास कुछ नहीं होता। लेकिन वे साहस नहीं छोड़ते। छोटी-मोटी नौकरियां करते हुए आखिरकार वे शादी करने और अपना घर बसाने में कामयाब हो जाते हैं। उनका एक बेटा भी होता है। दूसरी जाति की लड़की से संबंध बनाने के कारण प्रशांत के घर वालों को भी काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। प्रशांत की छोटी बहन से कोई शादी करने के लिए तैयार नहीं होता।

हैदराबाद में रहते हुए अर्चना को बीच-बीच में अपने घर-परिवार की याद आती है। वह कभी-कभार अपनी मां को फोन करती है। धीरे-धीरे उसके पिता और भाई को भी अर्चना और प्रशांत के हैदराबाद में होने की जानकारी मिल जाती है। अर्चना को लगता है कि उसके पिता और भाई का गुस्सा अब समाप्त हो गया है। एक दिन उसका भाई प्रिंस अपने बिरादरी के कुछ लोगों के साथ उनके घर पहुंच जाते हैं। बहन अपने भाई और उनके साथ आने वाले का स्वागत करती है। अपने माता-पिता द्वारा भेजे उपहार पाकर खुश होती है। उन सबके लिए चाय बनाती है और पति के हाथों उनके पास चाय भेजती है। उनका बेटा किसी पड़ोस की स्त्री के साथ घर से बाहर है।

उसी दौरान पड़ोसी औरत बच्चे को घर के दरवाजे पर छोड़ जाती है। डेढ़-दो साल का बच्चा जब अंदर जाता है तो उसे अंदर फर्श पर पड़ी खून से लथपथ अपने माता-पिता की लाशें दिखाई देती है। सवर्णवादी मानसिकता का जो जहर अर्चना के घर-परिवार और बिरादरी वालों की नसों में बह रहा था, उसका असर इतने सालों बाद भी कम नहीं हुआ था। दलित लड़के के साथ अपने घर की बेटी का विवाह उनके लिए जाति-बिरादरी के सामने अपनी प्रतिष्ठा का धूल में मिल जाना था। इसी उच्च जाति के होने के गर्व और प्रतिष्ठा को बचाने  के लिए वे अपनी ही बेटी और दामाद की हत्या कर डालते हैं। सैराट हालांकि लोकप्रिय सिनेमा की विधा में ही बनी है लेकिन निर्देशक नागराज मंजुले ने इसके माध्यम से ‘ऑनर कीलिंग’ की भयावहता को कहीं भी कम नहीं होने दिया है।

‘मुल्क’ (2018) जैसी महत्वपूर्ण फ़िल्म बनाने वाले अनुभव सिन्हा अपनी फ़िल्म ‘आर्टिकल 15’ (2019) के माध्यम से ‘ऑनर किलिंग’ के एक और सत्य को सामने लाते हैं। भारतीय संविधान के आर्टिकल 15 में समानता के मूल अधिकार की विस्तार से व्याख्या की गयी है। इस आर्टिकल के अनुसार, “राज्य किसी भी नागरिक के साथ धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म के स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा”।

फिल्म आर्टिकल-15

लेकिन हम रोजाना देखते हैं कि संविधान की इस धारा की किस तरह धज्जियां उड़ाई जाती है। फ़िल्म की कहानी आइपीएस अधिकारी अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) के माध्यम से कही गयी है। जिसकी पहली पोस्टिंग उत्तर प्रदेश के लालगांव में हुई है। अपने ऑफिस तक पहुंचते-पहुंचते उसे एहसास हो जाता है कि किस तरह उसका अपना महकमा जातिवाद के जहर से ग्रसित है। संविधान कुछ भी कहता हो लेकिन वहां मनुष्य को उसके कामों से नहीं बल्कि उसकी जाति से पहचाना जाता है। जाति ही तय करती है कि किसके हाथ का पानी पीना है और किसके हाथ का नहीं या उसके साथ मनुष्य की तरह व्यवहार करना है या जानवर की तरह।

जो केस सबसे पहले उसके सामने आता है वह दो नाबालिग लड़कियों की हत्या का है जिनकी लाशें उनके घर के बाहर पेड़ों पर लटकी मिलती हैं (ठीक ऐसी ही घटना बदायूं में हुई थी)। विभाग के ही ब्राह्मण पुलिस इंसपेक्टर ब्रह्मदत्त (मनोज पाहवा) उसे यह समझाने की कोशिश करता है कि यह ऑनर किलिंग का केस है। ये दोनों लड़कियां घर से भाग गयी थीं। उनके आपस में समलैंगिक रिश्ते थे इसलिए उनके घर वालों ने उनको मारकर पेड़ों पर लटका दिया। अगर कोई केस बनता है तो उनके घर वालों पर ही बनता है।

लेकिन अयान रंजन जल्दी ही समझ जाता है कि जो कहानी उसे बतायी जा रही है, सच्चाई उससे कुछ अलग है। उसे यह भी पता चलता है कि दो नहीं तीन लड़कियां गायब हुई थीं जिनमें से दो लड़कियों की तो लाशें मिल गयी थीं लेकिन तीसरी लड़की पूजा का अभी भी कुछ पता नहीं है। एक जूनियर लेडी डॉक्टर से जिसने उन लड़कियों का पोस्ट मार्टम किया था, उसे मालूम पड़ता है कि इन लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था और उसके बाद इनकी हत्या की गयी। अयान रंजन पर राजनीतिक दबाव डाला जाता है कि ऑनर किलिंग बताकर केस को क्लोज कर दे। सीनियर डॉक्टर अवधेश ऐसी ही रिपोर्ट भी दे देता है कि उनके साथ बलात्कार नहीं हुआ था और बच्चियों के पिताओं ने ही उनकी हत्या की है। अयान रंजन का दोस्त सत्येंद्र (आकाश दभाडे) जो लाशें मिलने के दिन से गायब है, उससे पूरी सच्चाई मालूम पड़ती है कि इस हत्या और बलात्कार में अंशु नहारिया नामक एक ठेकेदार और ब्रह्मदत्त दोनों शामिल थे और निहाल सिंह (सुशील पांडेय) जिसकी बहन अमली (सुंबुल तोक़ीर) अयान रंजन के घर खाना बनाती है, उसने भी लड़कियों के साथ बलात्कार किया था। सत्येंद्र के सामने ही लाशें पेड़ पर लटकाई गयी थीं। अंशु नहारिया के यहां बहुत से दलित लड़के लड़कियां काम करती थीं जिन्हें पचीस रुपये रोज की मजदूरी मिलती थीं।

इन लड़कियों ने मजदूरी पचीस रुपये से बढ़ाकर अट्ठाइस रुपये करने की मांग की थी। बस इसीलिए उनको और उनकी जाति को उनकी औकात दिखाने के लिए उनके साथ बलात्कार किया गया, हत्या की गयी और उनको पेड़ों पर लटका दिया गया। अयान रंजन अंशू नहारिया का डीएनए टेस्ट कराता है और उसे यह सच्चाई भी मालूम पड़ जाती है कि बलात्कार अंशु नहारिया ने किया था। उसके नाम का वारंट जारी हो जाता है। वह फरार हो जाता है और फरारी के दौरान ही ब्रह्मदत्त उसकी हत्या कर देता है, ताकि जांच की आंच उस तक न पहुंचे। अयान रंजन को इस मामले से हटाने के लिए मामला सीबीआई को सौंप दिया जाता है और सीबीआई का अधिकारी अपने राजनीतिक आका के आदेशानुसार अयान रंजन को निलंबित कर देता है और मामले को रफा-दफा करने का प्रयत्न करता है। इसके बावजूद अपने विभाग के लोगों की मदद से अयान रंजन न केवल पूरे मामले के सबूत इकट्ठे करने में कामयाब होता है, वह ब्रह्मदत्त को भी गिरफ्तार करता है और तीसरी लड़की पूजा को भी जंगल से ढूंढ निकालता है जो डर के मारे वहां छुपी हुई थी।

यह फ़िल्म एक साथ कई स्तरों पर चलती हैं। दलितों के साथ होने वाले हर तरह के अत्याचार और उत्पीड़न को यह फ़िल्म अपनी कहानी का हिस्सा बनाती है। फ़िल्म में दो और कहानियां समानांतर चलती हैं। एक राजनीति की जहां दलित नेता शांति प्रसाद और एक ब्राह्मण महंत हिंदू एकता के नाम पर दलित और ब्राह्मण एकता का नारा देते हैं ताकि चुनावों में दलितों के वोट हासिल किये जा सकें। दूसरी कहानी भीम सेना के निषाद (मोहम्मद जिशान अय्यूब) और गौरा (सयानी गुप्ता) की है, जो दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। निषाद पहले भी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल जा चुका है और अब भी वह भूमिगत है। उसका दलित राजनीति से मोहभंग हो चुका है। वह कहता भी है कि “हम कभी हरिजन हो जाते हैं, कभी बहुजन हो जाते हैं, लेकिन कभी जन नहीं हो पाते कि इस जनगण में हमारी भी गिनती हो”। मंदिर में प्रवेश के नाम पर जब कुछ दलितों की सरेआम पिटाई होती है तो वह मरे हुए मवेशी उठाने वालों और सफाई मजदूरों की हड़ताल करवा देता है। सीबीआइ की जांच के दौरान निषाद को सादे वेश में पुलिस उठा ले जाती है और एनकाउंटर के नाम पर उसकी हत्या कर दी जाती है। निषाद इस फ़िल्म का नायक नहीं है, वह भविष्य की उन फ़िल्मों का नायक है जो दलितों के शोषण और उत्पीड़न की कहानी खुद कहेगा।

इस चरित्र में रोहित वेमुला, चंद्रशेखर रावण और जिग्नेश मेवाणी की झलक नज़र आती है। अयान रंजन की पत्नी अदिति अपने पति की इस बात पर कि उन्हें बस हिरो चाहिए तो वह कहती है उन्हें ऐसे लोग चाहिए जो किसी हीरो का इंतजार न करे। निषाद ऐसा ही दलित नायक है जो अभी हाशिए पर है। यह प्रसंग संभवत: इस आलोचना से बचने के लिए है कि इस फ़िल्म का नायक भी एक ब्राह्मण है और फ़िल्म यह कहती प्रतीत हो सकती है कि दलितों का उद्धार भी सवर्णों के नेतृत्व बिना मुमकिन नहीं है।

आर्टिकल 15 यह बताने में कामयाब है कि भारतीय व्यवस्था किस हद तक दलितों के प्रति क्रूर और हिंसक है। फ़िल्म व्यवस्था की इस सच्चाई को, उसके अंदर की सड़न को सामने लाने में कामयाब है, जिसे पानी के प्रतीक द्वारा कई तरह से दिखाया गया है। फ़िल्म के आरंभ में ही अयान रंजन को बोतल का पानी पीने से रोका जाता है क्योंकि वह बोतल एक पासी की दुकान से आयी है। दलितों की हड़ताल से हर तरफ लगता गंदगी का ढेर और सड़कों पर बहता गटर का पानी, उसी गटर में गंदगी साफ करने उतरते लोग जिन्हें सवर्ण जातियां इंसान मानने से भी इन्कार करती है और पूजा को ढूंढने के लिए कीचड़ भरे एक तालाब में उतरकर उसे पार करते पुलिस महकमे के लोग और उनकी अगुवाई करता अयान रंजन।

जब उससे पूछा जाता है कि क्या आप इस कीचड़ में उतरेंगे तो वह कहता है, एक न एक दिन तो ब्राह्मणों को भी कीचड़ में उतरना ही पड़ेगा। फ़िल्म में गटर साफ करने के लिए दलित ही उतरता है लेकिन दलित लड़की पूजा को ढूंढने के लिए अयान रंजन का अपने साथियों के साथ कीचड़ में उतरना और पूजा को ढूंढ निकालना प्रतीकात्मक भी है। जिस दलित का पानी पीने से फ़िल्म के आरंभ में उसे रोका गया था, उसी के साथ सब बैठकर ढाबे का पानी भी पीते हैं और रोटी भी खाते हैं। लेकिन लड़ाई सिर्फ इतनी नहीं है। दलित के साथ खाना खाने का ढोंग तो महंत भी करता है। लड़ाई इससे ज्यादा बड़ी है। संविधान जो प्रत्येक भारतीय नागरिक को समानता का अधिकार देता है, उस संविधान को इस व्यवस्था ने ही कूड़ेदान में डाल दिया है। अयान रंजन कहता भी है कि “असली लड़ाई यही है कि उस किताब की चलानी पड़ेगी” उस किताब की यानी संविधान की। उसमें लिखे मूल अधिकारों और आर्टिकल 15 को सच्चे अर्थों में लागू करने की। जबकि निषाद इस व्यवस्था को ही बदलना चाहता है, हिंसा के रास्ते से नहीं वरन जन जागृति और जन आंदोलन के रास्ते से क्योंकि वह यह जान चुका है कि हिंसा को कुचलना व्यवस्था के लिए आसान होता है।

(जवरीमल्ल पारख साहित्य और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं। गुरुग्राम में रहते हैं।)

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