Tuesday, March 19, 2024

श्रीनारायण गुरु की झांकी गणतंत्र दिवस समारोह से बाहर रखने के पीछे उद्देश्य है ब्राह्मणवादी व्यवस्था को कायम रखना

हर गणतंत्र दिवस पर दिल्ली के राजपथ पर एक शानदार और रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। इसमें एक ओर देश की सैन्य शक्ति का प्रदर्शन होता है तो दूसरी ओर विभिन्न राज्यों और केन्द्रीय मंत्रालयों की झांकियों के जरिए हमारी संस्कृति की झलक भी दिखलाई जाती है। झांकियों का चुनाव भारत सरकार द्वारा किया जाता है। इस साल (2022) पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल की झांकियों को इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि समारोह में केवल 12 झांकियों के लिए स्थान है। केरल के मामले में एक दूसरा पहलू भी सामने आया है। झांकियों के चुनाव के लिए रक्षा मंत्रालय द्वारा गठित जूरी ने केरल सरकार को यह सुझाव दिया कि वह नारायण गुरू पर केन्द्रित झांकी की बजाए शंकराचार्य पर केन्द्रित झांकी बनाए। जूरी का तर्क यह था कि शंकराचार्य भी केरल से थे और उन्होंने देश को एक किया था इसलिए उनकी झांकी प्रदर्शित की जानी चाहिए। सन् 2017 से लेकर अब तक यह तीसरी बार है जब केरल की झांकी खारिज की गई है।

दरअसल नारायण गुरू की जगह शंकराचार्य की झांकी प्रदर्शित करने के सुझाव के पीछे केन्द्र सरकार का एजेंडा है। केन्द्र सरकार भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का भरसक प्रयास कर रही है। केरल में जन्मे इन दोनों महान व्यक्तित्वों की सामाजिक विचारधारा एक दूसरे की धुर विरोधी थी। नारायण गुरू ‘एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर‘ के सिद्धांत के पैरोकार थे तो शंकराचार्य असमानता पर आधारित ब्राम्हणवादी मूल्यों के पोषक।

शंकराचार्य का जन्म नारायण गुरू से कई सदियों पहले हुआ था। उनका काल 8वीं से 10वीं शताब्दी के मध्य का बताया जाता है। उस समय देश में बुद्ध की शिक्षाओं के जरिए जातिगत समानता को बढ़ावा दिया जा रहा था और यह संदेश लोगों तक पहुंचाया जा रहा था कि यही दुनिया असली दुनिया है और इसके लोगों के दुःखों के निवारण के प्रयास किए जाने चाहिए। शंकराचार्य का कहना था कि यह दुनिया माया है और केवल ब्रम्ह ही सत्य है। शंकराचार्य ने बौद्ध चिंतकों को चुनौती दी। वे उन व्यक्तित्वों में से एक थे जिनके कारण बौद्ध धर्म अपने जन्म के देश से ही लुप्त हो गया।

शंकराचार्य ने द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी और श्रृंगेरी में मठों की स्थापना की। यह बौद्ध मठों की तर्ज पर किया गया। परंतु जहां बौद्ध धर्म भौतिकवादी था वहीं शंकराचार्य अद्वैतवाद में आस्था रखते थे। बौद्ध धर्म समानता की बात करता था जबकि शंकराचार्य जन्म आधारित जातिगत और लैंगिक पदक्रम के ब्राम्हणवादी मूल्यों में आस्था रखते थे।

नारायण गुरू अत्यंत मानवीय व्यक्ति थे। उन्होंने भारतीय आध्यात्म और योग का गहन अध्ययन किया था। अपनी यात्राओं के दौरान वे 1888 में अरूविप्पुरम् पहुंचे और वहां ध्यानस्थ हो गए। वहीं उन्होंने नदी से एक पत्थर निकालकर उसकी प्राण प्रतिष्ठा की और उसे शिव की मूर्ति घोषित कर दिया। वह स्थल अरूविप्पुरम् शिव मंदिर कहलाता है और श्रीनारायण गुरू ने अरूविप्पुरम् प्रतिष्ठा की, ऐसा कहा जाता है। इस घटना से केरल में बवाल मच गया। ऊँची जातियों, विशेषकर ब्राम्हणों ने इस पर खूब हंगामा किया।

ऊँची जातियों का कहना था कि श्रीनारायण गुरू को मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करने का अधिकार नहीं था। इसके जवाब में नारायण गुरू ने कहा कि ‘‘ये ब्राम्हण शिव नहीं बल्कि एझावा शिव हैं।‘‘ उनका यह उत्तर आगे चलकर बहुत प्रसिद्ध हुआ और जातिप्रथा के विरोध का नारा बन गया। श्रीनारायण गुरू ने अपना जीवन जातिप्रथा के विरोध को समर्पित कर दिया। उन्होंने गहरे तक जड़ें जमा चुकी जातिप्रथा को जबरदस्त चुनौती दी।

सन् 1904 में नारायण गुरू ने वर्कला के निकट शिवगिरी में रहना शुरू कर दिया। वहां उन्होंने समाज के निम्न वर्गों के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने के लिए एक स्कूल की स्थापना की। जातिप्रथा के संदर्भ में यह एक क्रांतिकारी कदम था जिसकी तुलना जोतिबा फुले द्वारा महाराष्ट्र में दलित बच्चों के लिए स्कूल खोलने से की जा सकती है। आधुनिक शिक्षा, जाति के बंधनों को तोड़ने का मजबूत हथियार साबित हुई है। उस काल में जहां शिक्षा केवल उच्च जातियों का विशेषाधिकार थी, नारायण गुरू ने अपने स्कूल के दरवाजे सभी के लिए खोल दिए। इसके 7 साल बाद उन्होंने वहां एक मंदिर का निर्माण किया और फिर 1912 में एक मठ स्थापित किया। उन्होंने त्रिशूर, कन्नूर, अंचुतहेंगू, थालासेरी, कोझीकोड और मंगलौर में भी मंदिरों की स्थापना की। ये हमें चलकर अंबेडकर द्वारा शुरू किए गए कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन की याद दिलाते हैं।

नारायण गुरू ने ब्राम्हणवादी व्यवस्था को चुनौती दी और जाति के बंधनों को तोड़ने का प्रयास किया। जातिप्रथा के खिलाफ उनका आंदोलन अत्यंत महत्वपूर्ण था। हमारे वर्तमान शासक उस अतीत का महिमामंडन करते हैं जिसमें ब्राम्हणवाद और जातिगत ऊँचनीच का बोलबाला था। वे इसे वैदिक या सनातन धर्म बताते हैं। शंकराचार्य को भारत की आध्यात्मिक परंपरा के प्रमुख वाहक के रूप में प्रतिष्ठित करने के प्रयास हो रहे हैं।

अंबेडकर ने लिखा है कि भारत का इतिहास, बुद्ध के समानता के मूल्य और वैदिक ब्राम्हणवाद के ऊँचनीच पर आधारित मूल्यों के बीच सतत संघर्ष का इतिहास है। देश में दक्षिणपंथी ताकतों के उभार के साथ शंकर को उच्च दर्जा देने और भौतिकवादी परंपरा के बुद्ध-चार्वाक इत्यादि को कमजोर करने के प्रयास हो रहे हैं। यह दिलचस्प है कि राजनैतिक और चुनावी उद्देश्यों से भाजपा नारायण गुरू को मान्यता देती है परंतु उनके सिद्धांतों और शिक्षाओं को खारिज करना चाहती है। नारायण गुरू पर आधारित झांकी को गणतंत्र दिवस समारोह में शामिल न किया जाना यही दर्शाता है।

एक तरह से नारायण गुरू की झांकी को खारिज करना असमानता पर आधारित राजनीति का प्रकटीकरण है। नारायण गुरू मठ और केरल सरकार ने केन्द्र सरकार के इस निर्णय को राजनीति से प्रेरित बताया है। यह आरोप ठीक नजर आता है। अन्य राजनैतिक दलों जैसे कांग्रेस ने भी केन्द्र सरकार के इस निर्णय की आलोचना की है। जूरी का दावा है कि उसे सर्वश्रेष्ठ झांकियां चुनना थीं और ऐसे में कुछ झांकियों का खारिज होना अनिवार्य था। सच तो यह है कि नारायण गुरू और कबीर जैसे लोग वर्तमान सरकार को बिल्कुल रास नहीं आते। गांधी, जिन्होंने अछूत प्रथा और जातिगत असमानताओं के खिलाफ जीवन पर्यन्त संघर्ष किया, भी भारत की संत परंपरा का हिस्सा थे। यह आवश्यक है कि हम नारायण गुरू जैसे लोगों के योगदान को मान्यता दें और उन्हें हमारी संस्कृति और इतिहास में उचित स्थान उपलब्ध कराएं।

वर्तमान सरकार द्वारा पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल की झांकियों को खारिज करना देश के संघीय ढांचे की अवहेलना भी है। यह सरकार सारी शक्तियां अपने हाथों में केन्द्रित करना चाहती है। 

(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं। अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया ने किया है।)

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