चंद्रयान-2 के चंद सबक!

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राष्ट्रप्रेम क्या होता है। देशभक्ति का क्या मतलब होता है। पिछले कई सालों से जारी फर्जी राष्ट्रवाद के अंधड़ में देश ने पहली बार देखा। शोक और दुख की घड़ी में जब पूरा देश एक हो गया। और सभी ने पूरे दिल से इसरो के साथ एकजुटता प्रदर्शित की। फिर अलग-अलग तरीके से उसकी अभिव्यक्ति सामने आयी। यह दिल से निकली आवाज थी जो लोगों के दिलों तक पहुंची।

हर कोई गमगीन था और वैज्ञानिकों के दुख में शरीक होकर मजबूती से उनके साथ खड़ा था। यही होता है राष्ट्रप्रेम जिसे किसी नारे की जरूरत नहीं होती। वह दिलों से निकलता है। उसके लिए किसी को कहने की भी जरूरत नहीं पड़ती। क्योंकि वह लोगों के दिलों में जज्ब होता है और मौका पड़ने पर फूट पड़ता है।

चंद्रयान-2 के पूरे प्रकरण से उन फर्जी लोगों को सबक लेना चाहिए जो राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति को महज नारों में सीमित कर देना चाहते हैं। इस पूरे मामले से मीडिया के उन लोगों को भी अपने रवैये पर विचार करना चाहिए जो किसी उपलब्धि का श्रेय किसी ऐसे शख्स को देना शुरू कर देते हैं जो उसका असली हकदार नहीं होता है।

इससे देश की सत्ता में बैठे राजनेताओं को भी अपनी सोच पर पुनर्विचार करना चाहिए जो श्रेय लेने के चक्कर में न केवल अपने पद की गरिमा को गिरा देते हैं बल्कि दूसरी संस्थाओं के हक को भी मारने से बाज नही आते हैं। और इस तरह से एक संस्था के पूरे वजूद को बौना कर उसके पतन का रास्ता साफ कर देते हैं।

अपनी स्वायत्तता के दायरे में हर संस्था का अपना स्वतंत्र वजूद होता है। और उसके चलाने वालों की हैसियत भी किसी दूसरी संस्था से किसी भी रूप में कम नहीं होती है। बल्कि कई रूपों में तो कई बार यह बड़ी हो जाती है। विशेष तौर पर यह वैज्ञानिकों और शिक्षकों के मामले में होता है। लिहाजा लोकतंत्र की सभी संस्थाओं को किसी के मातहत रखने की जगह उन्हें उनके अपने स्वतंत्र वजूद के के साथ देखा जाना चाहिए।

विज्ञान का विवेक के साथ सीधा रिश्ता है। और प्रयोग उसका बुनियादी चरित्र है। लिहाजा अपने स्वभाव में उसे हमेशा इसको बनाए रखना होगा। ऐसा हो ही सकता है कि किसी ऐतिहासिक कमजोरी के क्षणों में भावुकता प्रवेश कर जाए। लेकिन नियम के बजाय उसका स्थान अपवाद स्वरूप ही रहना चाहिए।

देश ने जब इसरो या फिर किसी भी ऐसी वैज्ञानिक संस्था को बनाया है। तो उसके साथ ही उससे जुड़ी दुर्घटनाओं और अनहोनियों के लिए भी वह मानसिक रूप से तैयार रहता है। क्योंकि उसे पता है कि विज्ञान प्रयोगों की बैसाखी पर ही आगे बढ़ता है। और कई असफलताओं के बाद ही कामयाबी मिलती है। विज्ञान का यही नियम है। लिहाजा किसी समय पर किसी मामले में अगर कोई नाकामी भी हाथ लगती है तो देश का नागरिक उसके लिए तैयार रहता है।

वैसे यह बात किसी को बुरी लग सकती है। लेकिन चूंकि इस प्रकरण से जुड़ी हुयी है तथा विज्ञान और वैज्ञानिकों के हित और चिंतन के लिहाज से जरूरी है। इसलिए उसका जिक्र करना बेहद प्रासंगिक हो जाता है। एक संस्था के तौर पर जब कोई काम कर रहा होता है और उसमें भी संस्था अगर विज्ञान से जुड़ी है तो पूजा-पाठ या फिर इस तरह के किसी गैर वैज्ञानिक गतिविधि और कर्मकांड के लिए वहां कोई स्थान नहीं होता है।

लिहाजा इस तरह के किसी मौके पर संस्था या फिर उसके मुखिया की तरफ से ऐसी गतिविधियों का हिस्सा बनना न केवल देश की सेकुलर जेहनियत के खिलाफ है बल्कि यह खुद उस संस्था के बुनियादी चरित्र का भी उल्लंघन है। इस बात में कोई शक नहीं कि वैज्ञानिक होने के बावजूद अगर कोई शख्स धर्म और आस्था में विश्वास करता है तो व्यक्तिगत तौर पर उसके पालन की उसे छूट है। लेकिन संस्था के तौर पर, वैज्ञानिक समुदाय के प्रतिनिधि के तौर पर और राज्य के एक अभिन्न अंग के तौर पर उसकी कोई भूमिका नहीं है।

और आखिर में जो बात बेहद महत्वपूर्ण है वह यह कि यह कोई नाकामी नहीं है। वैज्ञानिकों ने चंद्रमा पर रोवर उतारने का जो लक्ष्य रखा था उससे वे दो कदम दूर रहे। यानी 95 फीसदी से ज्यादा सफलता हासिल कर ली। केवल पांच फीसदी ही बाकी रह गया था। इस लिहाज से इस प्रयोग में यह एक बड़ी कामयाबी है। जिसे अगली बार कमियों को दूर करने के साथ पूरा कर लिया जाएगा।

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